Edited By Pardeep,Updated: 09 Sep, 2018 04:12 AM
किसी ऐसे व्यक्ति के लिए, जिसने नोटबंदी, जब मोदी ने 8 नवम्बर 2016 को देश में इसे लागू किया, की आलोचना करने के लिए शब्दों में कोई कंजूसी नहीं की और इसे तानाशाहीपूर्ण, बेकार तथा हानिकारक बताया, के आकलन पर दोबारा गौर करें तो यह अवसरवादी और यहां तक कि...
किसी ऐसे व्यक्ति के लिए, जिसने नोटबंदी, जब मोदी ने 8 नवम्बर 2016 को देश में इसे लागू किया, की आलोचना करने के लिए शब्दों में कोई कंजूसी नहीं की और इसे तानाशाहीपूर्ण, बेकार तथा हानिकारक बताया, के आकलन पर दोबारा गौर करें तो यह अवसरवादी और यहां तक कि विद्वेषपूर्ण लगता है मगर मुझ पर विश्वास करें, ऐसा नहीं है।
इस अवधारणा में बदलाव के लिए केवल एक ही कारण है और वह है कि इसने कम से कम बड़ी संख्या में लोगों को ईमानदार करदाता बनने के लिए मजबूर किया। एक अपेक्षाकृत कम कर आधार वाले देश में नोटबंदी के बाद वार्षिक आयकर रिटन्र्स देने वाले लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि एकमात्र उपलब्धि है और यह ऐसी नहीं है कि इसे नजरअंदाज किया जा सके।
याद रखें कि 2014-15 में आयकर असैसीज की संख्या केवल 3.8 करोड़ थी। नोटबंदी की कड़वी दवा के तुरंत बाद 2017-18 में यह संख्या बढ़कर 6.8 करोड़ हो गई, जो 80 प्रतिशत की वृद्धि है। वे सभी, जिनकी दशकों तक काला व्यापार करने की आदत बन गई थी और अधिकारियों से अपनी आय छिपाते थे, इस संभावना बारे सोच कर इतना डर गए कि उनकी जमा की गई करंसी बेकार कागज के टुकड़ों में बदल जाएगी और उन्होंने आयकर रिटन्र्स की सुरक्षा चाही। मोदी के झटके ने उन्हें समाज की देनदारी चुकाने के लिए मजबूर कर दिया।
एक अन्य आंकड़ा और अधिक बयां करता है। नोटबंदी के पहले के समय में गैर वेतन वाली आई.टी.आर. की कुल संख्या एक करोड़ से कम थी मगर नोटबंदी के तुरंत अगले असैसमैंट वर्ष में यह दोगुनी से अधिक होकर 2.05 करोड़ हो गई। यह देखते हुए कि वेतनभोगियों के लिए आई.टी.आर. दाखिल करना आवश्यक है, एक बड़ी संख्या केवल इसीलिए ऐसा करती है ताकि स्रोत पर काटे गए करों के रिफंड का दावा कर सकें और यह है स्वरोजगार वाला गैर वेतनभोगी वर्ग, जो प्रति वर्ष आयकर रिटर्न दाखिल करने के मामले में अनुपस्थित रहता था। प्रति माह लाखों-करोड़ों रुपए कमाने वाले व्यवसायी करों के रूप में एक धेला नहीं चुकाते थे। आपके पड़ोस में किराने वाला अथवा एक प्रसिद्ध रेस्तरां का मालिक, जहां आप आमतौर पर जाते रहते हैं, को पता ही नहीं था कि आई.टी.आर. क्या है। फिर 8 नवम्बर के झटके के बाद सबकी नींद उड़ गई। याद रखें कि एक ऐसे देश में यह असामान्य नहीं था जहां शीर्ष औद्योगिक घरानों में से एक वर्षों तक ‘जीरो टैक्स कम्पनी’ के रूप में पेश आता रहा।
निश्चित तौर पर केवल यही एक डर था जिसने गैर-करदाता वर्ग को वैध रास्ता अपनाने को प्रेरित किया। अत: नोटबंदी के झटके ने अब तक अच्छे परिणाम दिखाए हैं क्योंकि इसने उन लोगों को अच्छे करदाता बना दिया है जो अभी तक कर चुकाने को अपनी प्रतिष्ठा के विपरीत मानते थे, चाहे उनकी मासिक आय उनके व्यवसाय अथवा निजी प्रैक्टिस, कंसल्टैंसी अथवा व्यावसायिक सेवाओं आदि से 6 अंकों की संख्या से भी अधिक होती थी। यहां तक कि यह तथ्य कि कुछ आई.टी.आर. में शून्य कर वाली आय का खुलासा हुआ है, एक मायने में यह सकारात्मक था कि इससे सिस्टम में करोड़ों नए असैसी जुड़ गए।
हां, इसके मद्देनजर नोटबंदी एक बड़ी बर्बादी दिखाई देती है। ऐसा इसलिए क्योंकि हर किसी का यह अनुमान था कि अघोषित नकदी के ढेर पर बैठे सभी लोग उसे खो देंगे मगर ऐसा नहीं हुआ। प्रसार में 90 प्रतिशत नकदी बैंकों में जमा करवा दी गई। इसका कौन-सा भाग सफेद और कौन-सा काला था, अब कर अधिकारियों के लिए बड़ी सिरदर्दी बना हुआ है। उन्होंने 18 लाख से अधिक जमाकत्र्ताओं को नकदी के स्रोत बारे जानकारी देने के लिए नोटिस भेजे हैं। यदि उनमें से आधे भी अपने जमा करवाए गए धन का एक हिस्सा जब्त करवा लेते हैं और उन्हें मोटे टैक्स तथा शुल्क चुकाने को बाध्य होना पड़ता है तो खजाना पर्याप्त रूप से समृद्ध हो जाएगा।
संक्षेप में यह कतई एक अनुत्पादक प्रयास नहीं था, यद्यपि नोटबंदी को लेकर संदेश पर सावधानीपूर्वक विचार किया जा सकता था। इसके साथ ही ‘सफाई’ के विशाल अभियान को भारतीयों के जन्मजात ‘जुगाड़’ के रवैये के तौर पर नहीं देखा गया। जन-धन आधारित बैंक खाते रातों-रात इतने धन से भर गए जिनके वैध मालिकों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा। यदि ‘सेठों’ द्वारा उनके खातों में अपना धन जमा करवाने के बदले में उन्हें उसका कुछ हिस्सा ‘बख्शीश’ के रूप में मिल गया तो नोटबंदी उनके लिए एक वरदान साबित हुई। एक बार तो उनके नियोक्ता उनकी दया पर निर्भर हो गए।-वरिन्द्र कपूर