जिंदगी और राजनीति में कुछ भी ‘स्थायी’ नहीं

Edited By ,Updated: 08 Dec, 2019 12:20 AM

nothing  permanent  in life and politics

मोदी तथा शाह को लेकर भाजपा पहले ही सातवें आसमान पर है। मई 2019 में लोकसभा में रिकार्ड 303 सीटें जीतने के बाद यह भगवा जोड़ी अपनी चरम सीमा पर है मगर जीत का यह रथ मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान के विधानसभा चुनावों में थम गया था। मगर इसके बाद भाजपा...

मोदी तथा शाह को लेकर भाजपा पहले ही सातवें आसमान पर है। मई 2019 में लोकसभा में रिकार्ड 303 सीटें जीतने के बाद यह भगवा जोड़ी अपनी चरम सीमा पर है मगर जीत का यह रथ मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान के विधानसभा चुनावों में थम गया था। मगर इसके बाद भाजपा ने पूरी ऊर्जा के साथ संसदीय चुनावों में अपना परचम लहराया। 

हालांकि इसके बाद भाजपा में नजरअंदाजी तथा हेंकड़ी दिखाई थी। महाराष्ट्र में पार्टी ने साधारण बहुमत प्राप्त किया। शिवसेना, राकांपा तथा कांग्रेस के नए गठबंधन के बाद महाराष्ट्र में पार्टी ने सत्ता खो दी। भाजपा के साधारण कार्यकत्र्ता के मन को ठेस लगी। शिवसेना के भाजपा से नाता तोड़ देने के कारण पार्टी कार्यकत्र्ता निराश नजरआए। देवेंद्र फडऩवीस इस स्थिति में नहीं थे कि वह दशकों से सत्ता का खेल खेल रहे शरद पवार के मन को पढ़ सकें। इससे पहले कि केंद्रीय नेतृत्व आगे आता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पार्टी नेतृत्व को एक तरह के आलस ने जकड़ लिया था। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार के गठन के समय भाजपा का यह बर्ताव नजर आया, जब भाजपा आधा दर्जन के करीब विधायकों को अपने खेमे में ले सकती थी। 

केंद्रीय नेतृत्व शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बने रहने देने के प्रति भी उत्साहित नजर नहीं आया जिसके नतीजे में कांग्रेस सत्ता में लौटी। उस समय भी वरिष्ठ नेताओं का पेचीदा रुख नजर आया। महत्वपूर्ण राज्य को पार्टी ने अपने हाथों से जाने दिया। पार्टी की कमान को संभाले हुए मोदी-शाह की जोड़ी ने यह दर्शाया कि यदि भाजपा एक या दो राज्यों को खोती भी है तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अब भाजपा के कदम आधे देश से भी कम पर सिकुड़ कर रह गए हैं। 

एक सशक्त मोदी भाजपा के बिना अकल्पनीय है
इसका एक कारण यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना ध्यान सरकार चलाने की तरफ दे रहे हैं जोकि इतना आसान नजर नहीं आ रहा। शायद मोदी अपने आप को अब बड़ा स्टेट्समैन महसूस करते हैं जोकि पार्टी के ढांचे को बदलने तथा जोड़-तोड़ करने के लिए अपने हाथों को गंदा नहीं करना चाहता। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश तथा पिछले माह महाराष्ट्र में सरकारों के गठन का यह ताजा उदाहरण है। एक सशक्त भाजपा अकेली प्रधानमंत्री के कार्य को नहीं कर पाती जबकि एक सशक्त मोदी भाजपा के बिना अकल्पनीय है। दूसरी बात यह है कि एक असाधारण आयोजक अमित शाह का सरकार में बतौर गृहमंत्री होने का मतलब यह है कि पार्टी के मामलों में उनकी रुचि कम हुई लगती है। सच्चाई यह है कि जे.पी. नड्डा नामित भाजपा अध्यक्ष हैं मगर चुनाव जीतने की उनकी योग्यता को अभी परखा जाना बाकी है। अमित शाह पार्टी के लिए तो उपलब्ध हैं और गृहमंत्री होते हुए वह सभी मंत्रालयों को निर्देश देते हैं मगरपार्टी के मामलों की तरफ उनका ध्यान कम हो गया है। 

भाजपा की चुनावी किस्मत पड़ी मद्धम 
हमें यह नहीं मानना चाहिए कि भाजपा की चुनावी किस्मत मद्धम पड़ गई है क्योंकि मोदी-शाह की जोड़ी अपनी पूरी ऊर्जा को सरकार पर लगाए हुए है। पांच सालों के बाद मतदाताओं का सत्ता में रही किसी भी पार्टी  से मोहभंग हो ही जाता है। समय के साथ-साथ नेताओं का अपने पार्टी कार्यकत्र्ताओं की तरफ आकर्षण कम हो जाता है। 1971 में संसदीय चुनावों के दौरान दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तीन-चौथाई बहुमत हासिल किया था। 1974 तक वह उन्हीं लोगों के लिए नफरत की मूॢत बन गई थीं जिन्होंने तीन साल पहले उनको वोट दिया था। ऐसी परिस्थितियों में महाराष्ट्र में सत्ता से बेदखल होना भगवा पार्टी के लिए एक चेतावनी है। जिंदगी और राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं। बिना किसी शक के मोदी बहुचॢचत राष्ट्रीय नेता हैं और विपक्ष का कोई भी ऐसा नेता उनके मुकाबले नहीं खड़ा है जैसे धीरे-धीरे वह गुजरात से निकल कर शक्तिशाली कांग्रेस को सत्ता से बाहर फैंक पाए।यह कहा नहीं जा सकता कि उनको भी चुनौती देने वाला कब राजनीति के पटल पर उभर कर आएगा क्योंकि अर्थव्यवस्था का स्तर धीरे-धीरे गिरता जा रहा है। 

मनमोहन की मात्र आधी सच्चाई
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सच्चाई हमेशा से ही लचीली रही है। यह उनके स्वार्थी हित पर निर्भर करता है। ईमानदारी का प्रत्यक्ष अपमान देखने को मिला। दिवंगत प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल के स्मरणीय कार्यक्रम पर बोलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने 1984 सिख विरोधी दंगों का पूरा दोष तत्कालीन गृहमंत्री दिवंगत नरसिम्हा राव पर मढ़ दिया। उन्होंने कहा कि गुजराल द्वारा सेना को लगाने के निवेदन को राव ने सिरे से नकार दिया और कत्लेआम होने दिया। मनमोहन को इससे क्या मतलब था,  राव ही उनको रिटायरमैंट के बाद राजनीति में लाए और उनको वित्त मंत्री बनाया। राव की इस बदनामी से मनमोहन को बचना चाहिए। क्योंकि राव अब इस दुनिया में नहीं हैं तो मनमोहन अपने उन कांग्रेसी नेताओं को खुश करना चाहते हैं जिन्होंने उनको प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर बिठाया था। 

यही कारण है कि मनमोहन यह नहीं कहना चाहते कि राव ने ही तत्कालीन प्रधानमंत्री दिवंगत राजीव गांधी से आदेश प्राप्त किया था और राजीव के आदेशों के बिना वह सेना को कैसे बुला सकते थे। क्योंकि राजीव गांधी तथा उनकी नेता मंडली सिखों को एक सबक सिखाना चाहती थी जिस कारण 40 हजार सिख मारे गए। उस समय मनमोहन सिंह वित्त मंत्रालय में सचिव पद पर थे। रिजाइन करने की बात तो दूर, उन्होंने अपने सिख भाइयों की बर्बादी करने वालों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला था।-अंदर की बातेंवीरेन्द्र कपूर
 

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