‘...अब जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र बहाली की तैयारी’

Edited By ,Updated: 08 Dec, 2020 04:10 AM

now preparations for restoration of democracy in jammu and kashmir

चार चरणों के मतदान के साथ जम्मू-कश्मीर में पहली बार हो रहे जिला विकास परिषद चुनाव की प्रक्रिया ने अपना आधा सफर पूरा कर लिया है। इन चुनावों के आठवें एवं अंतिम चरण के लिए 19 दिसम्बर को मतदान होगा। सुरक्षा बलों की मुस्तैदी

चार चरणों के मतदान के साथ जम्मू-कश्मीर में पहली बार हो रहे जिला विकास परिषद चुनाव की प्रक्रिया ने अपना आधा सफर पूरा कर लिया है। इन चुनावों के आठवें एवं अंतिम चरण के लिए 19 दिसम्बर को मतदान होगा। सुरक्षा बलों की मुस्तैदी के चलते तमाम आशंकाओं के विपरीत अब तक हुआ मतदान न केवल अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न हुआ, बल्कि केंद्र शासित प्रदेश में अनेक स्थानों पर बर्फबारी और कड़ाके की ठंड के बावजूद लगभग 50 प्रतिशत लोगों ने मताधिकार का प्रयोग करके यह भी साबित कर दिया कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में उन्हें दृढ़ विश्वास है। 

जिला विकास परिषद के चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के विवादित प्रावधानों एवं 35-ए हटने के बाद केंद्र शासित प्रदेश के लोग पहली बार चुनावी प्रक्रिया में भाग ले रहे हैं। खासकर, विशेष दर्जा होने के कारण पिछले कई दशकों से वोट डालने से वंचित रहे वैस्ट पाकिस्तानी रिफ्यूजी, वर्ष 1957 में पंजाब से आकर बसे वाल्मीकि परिवार और कई अन्य वर्गों के लोग पहली बार किसी स्थानीय इकाई के चुनाव में भाग ले रहे हैं। शायद यही कारण है कि जिला विकास परिषद के ये चुनाव जनहित से जुड़े मुद्दों से दूर छिटककर 370 हटाने अथवा उसे बहाल करने, राष्ट्रवाद अथवा स्थानीय पहचान जैसे भावनात्मक मुद्दों के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गए हैं। 

पुरानी कहावत है कि राजनीति में कोई स्थायी शत्रु या स्थायी मित्र नहीं होता, लेकिन आधुनिक युग में देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पाॢटयों भाजपा और कांग्रेस ने इस कहावत में थोड़ी-सी तबदीली यह की है कि कोई एक पार्टी एक ही समय में राजनीतिक शत्रु भी हो सकती है और मित्र भी। नवगठित केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में तो यही हो रहा है क्योंकि जम्मू-कश्मीर में नैशनल कान्फ्रैंस भाजपा की शत्रु है और कांग्रेस की मित्र, जबकि लद्दाख के कारगिल जिले में नैकां भाजपा की मित्र है और कांग्रेस की शत्रु। 

दिलचस्प बात तो यह है कि नैशनल कान्फ्रैंस के अध्यक्ष डा. फारूक अब्दुल्ला एवं पी.डी.पी. अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व में गठित जिस पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डैक्लेरेशन (पी.ए.जी.डी.) के साथ जम्मू-कश्मीर के आगामी जिला विकास परिषद चुनावों में सीटों के तालमेल पर भाजपा के हर छोटे-बड़े नेता से लेकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह तक ‘गुपकार गैंग’ में शामिल होने का आरोप जड़ते हुए कांग्रेस को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे, उसी गुपकार अलायंस के प्रमुख घटक नैशनल कान्फ्रैंस को कारगिल में समर्थन जारी रखने का ऐलान खुद भाजपा के लद्दाख अध्यक्ष एवं सांसद जमयांग शेरिंग नमगयाल ने स्पष्ट तौर पर किया है। ऐसे में, लोगों में भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है कि भाजपा नैशनल कान्फ्रैंस के खिलाफ खड़ी है अथवा उनके समर्थन में डटी है। 

लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद की लेह और कारगिल जिलों में दो इकाइयां हैं जिनमें 26-26 निर्वासित एवं 4-4 मनोनीत कार्यकारी पार्षदों समेत 30-30 कार्यकारी पार्षद होते हैं। वर्ष 2018 में लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, कारगिल के 26 सदस्यों के लिए हुए चुनाव में नैशनल कान्फ्रैंस को 10, कांग्रेस को 8, पी.डी.पी. को 2, भाजपा को एक सीट मिली, जबकि 5 कार्यकारी पार्षद निर्दलीय के तौर पर निर्वाचित हुए। पहले नैशनल कान्फ्रैंस और कांग्रेस का गठबंधन हुआ, लेकिन 2019 में यह गठबंधन टूट गया। 

इसके बाद त्रिशंकु पहाड़ी विकास परिषद में चार निर्दलीयों के साथ-साथ पी.डी.पी. के जिन दो कार्यकारी पार्षदों ने समर्थन देकर नैशनल कान्फ्रैंस के कार्यकारी पार्षद फिरोज अहमद खान को मुख्य कार्यकारी पार्षद बनाने में अहम भूमिका निभाई, वे दोनों बाद में भाजपा में शामिल हो गए। दिलचस्प यह रहा कि कांग्रेस को कारगिल की स्थानीय इकाई की सत्ता से बाहर रखने के लिए भाजपा पार्षदों ने नैशनल कान्फ्रैंस को समर्थन देना जारी रखा। यदि गुपकार अलायंस की घोषणा होते ही भाजपा कारगिल में नैशनल कान्फ्रैंस से समर्थन वापस ले लेती तो देशभर में अच्छा संकेत जाता और गुपकार अलायंस से जुड़े नेताओं को घेरने की उसकी रणनीति और मजबूत होती, लेकिन कारगिल जैसे अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र पर सत्ता में भागीदार बनने के चक्कर में नैशनल कान्फ्रैंस को समर्थन जारी रखकर भाजपा ने यह मौका गंवा दिया। 

जहां तक, कांग्रेस का सवाल है तो कारगिल में उसे सत्ता से दूर रखने वाली नैशनल कान्फ्रैंस के साथ जम्मू-कश्मीर में एवं राष्ट्रीय स्तर पर उसका ‘लचीला रिश्ता’ बेहद पुराना है। ताजा मामले में, डा. फारूक अब्दुल्ला के विवादास्पद बयानों के चलते गठित होने से पहले ही देशभर में बदनाम हुए गुपकार अलायंस में कांग्रेस सीधे तौर पर तो शामिल नहीं हुई, लेकिन जिला विकास परिषद चुनावों के लिए सीटों का तालमेल कर लिया। 

यदि कांग्रेस नेतृत्व गुपकार अलायंस से दूरी बनाकर खुलकर पूरी गंभीरता के साथ चुनाव मैदान में उतरता और स्थानीय मुद्दों एवं कारगिल में भाजपा-नैकां गठजोड़ को आधार बनाकर भाजपा तथा गुपकार अलायंस समेत तमाम दलों पर तीखे हमले करता तो चुनावी समीकरण निश्चित तौर पर अलग होते। बहरहाल, दोनों राष्ट्रीय दलों की यह सियासी भूल भविष्य में जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख में होने वाले चुनावों में भी याद की जाती रहेगी। कुछ भी हो, 370 के बाद जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली शुभ संकेत कही जा सकती है।-बलराम सैनी
 

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