अब लोकसभा सीटों के लिए संघर्ष

Edited By Pardeep,Updated: 03 Jan, 2019 05:01 AM

now the struggle for the lok sabha seats

जहां राजनीतिक दल चुनावों से पहले गठबंधनों की बात कर रहे हैं, वहीं सीटों के लिए उम्मीदवार तलाशने का काम शुरू हो गया है, जिसमें ‘बड़े भाइयों’ को लाभ मिल रहा है। सीटों के बंटवारे को अंतिम रूप देने से पहले भाजपा को पहले अपने बिहार के सांझीदारों जद (यू)...

जहां राजनीतिक दल चुनावों से पहले गठबंधनों की बात कर रहे हैं, वहीं सीटों के लिए उम्मीदवार तलाशने का काम शुरू हो गया है, जिसमें ‘बड़े भाइयों’ को लाभ मिल रहा है। सीटों के बंटवारे को अंतिम रूप देने से पहले भाजपा को पहले अपने बिहार के सांझीदारों जद (यू) तथा लोजपा से परेशानियों का सामना करना पड़ा और अब उत्तर प्रदेश में अपना दल की बारी है। 

सपा-बसपा को लुभाने का प्रयास
सपा तथा बसपा को मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में जगह न दे पाने के बाद कांग्रेस अब उन्हें लुभाने का प्रयास कर रही है। कोई हैरानी की बात नहीं कि सपा-बसपा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सीट बंटवारे संबंधी वार्ता से बाहर रखे हुए हैं। स्पष्ट तौर पर राष्ट्रीय महागठबंधन में अपनी ऊर्जा लगाने की बजाय वे राज्यों में गठबंधन बनाने पर ध्यान दे रहे हैं।  सपा के एकमात्र विधायक को मध्यप्रदेश के मंत्रिमंडल से बाहर रखे जाने को लेकर अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ अपनी नाखुशी जाहिर की है। उत्तर प्रदेश में गठबंधन का ढांचा कांग्रेस के लिए ङ्क्षचता का सबब बना हुआ है, विशेषकर यदि सपा तथा बसपा कांग्रेस को पूछे बिना सीटों को अंतिम रूप दे देती हैं। कर्नाटक में आक्रामक जद (एस) 2014 में मात्र दो सीटें जीतने के बावजूद 2019 के लिए 12 सीटों की मांग कर रही है। दिलचस्प बात यह है कि यहां मध्यस्थता करने के लिए कांग्रेस ने शरद पवार, एन. चन्द्रबाबू नायडू तथा फारूक अब्दुल्ला से सम्पर्क किया है। 

राहुल गांधी के मिजाज की परख
यह देखते हुए कि सहयोगियों का प्रबंधन करना अपनी पार्टी के नेताओं से निपटने से अलग है, ये घटनाक्रम राहुल गांधी के मिजाज का परीक्षण करेंगे। इनमें से बहुत-सी पाॢटयां अभी हाल ही तक अपनी राजनीति को कांग्रेस विरोधी बनाए हुए थीं और इसकी आलोचना करने से नहीं रुक पाती थीं। यद्यपि ये राज्य स्तरीय गठबंधन राष्ट्रीय स्तर की एकता तथा सांझा न्यूनतम कार्यक्रम के प्रश्र से अधिक लम्बे समय तक बच नहीं सकते। यदि एक-दूसरे पर छींटाकशी नहीं रुकती तो प्रधानमंत्री मोदी को इस भाजपा विरोधी मोर्चे को ‘अपवित्र गठबंधन’ साबित करने के लिए बारूद मिल जाएगा। फिलहाल राहतों की परवाह न करते हुए हर कोई अपने राजनीतिक क्षेत्र को अधिकतम करने का प्रयास कर रहा है। इसका स्पष्ट उदाहरण हाल ही में समाप्त चुनावों में कांग्रेस की सपा तथा बसपा के साथ बातचीत का टूटना तथा सपा-बसपा की उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जगह देने में हिचकिचाहट है। मगर उन्हें भाजपा के बिहार में खेल से सबक लेना चाहिए जहां इसने अपनी सहयोगी जद (यू) के लिए अपनी 5 सीटें छोड़ दी हैं। 

भाजपा का ‘बलिदान’
भाजपा का व्यवहारवाद तथा सत्ता में वापसी के लिए उसका मजबूत इरादा उसके ‘बलिदान’ में दिखाई देता है। यहां तक कि कर्नाटक में जद (एस)-कांग्रेस के बीच असंगत गठबंधन, जिसने भाजपा को सत्ता से बाहर रखा, राष्ट्रीय घटनाक्रमों के कारण ही पैदा हुआ था। जहां कोई भी पार्टी प्रभुत्व की स्थिति में नहीं है तथा हर पार्टी सहयोगियों के साथ बातचीत में संलग्र है, आने वाले चुनावों में कांग्रेस तथा भाजपा के गठबंधन सबकी नजर में होंगे।

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