अब क्या ‘मध्य प्रदेश’ की बारी

Edited By ,Updated: 24 Jul, 2019 01:48 AM

now what s the turn of  madhya pradesh

संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार बनाने के लिए किसी पार्टी के लिए बहुमत हासिल करना कतई जरूरी नहीं है। कई बार अल्पमत की सरकारें भी बाहरी समर्थन से चलती हैं। मिली-जुली सरकारें भी बनती हैं। वैसे किसी भी चुनाव के नतीजों में जब त्रिशंकु सदन की स्थिति...

संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार बनाने के लिए किसी पार्टी के लिए बहुमत हासिल करना कतई जरूरी नहीं है। कई बार अल्पमत की सरकारें भी बाहरी समर्थन से चलती हैं। मिली-जुली सरकारें भी बनती हैं। वैसे किसी भी चुनाव के नतीजों में जब त्रिशंकु सदन की स्थिति उभरती है और मिली-जुली सरकारें बनती हैं तो राजनीतिक अस्थिरता पैदा होने का अंदेशा भी हमेशा बना रहता है। ऐसी स्थिति में सरकार चलाना राजनीतिक प्रबंधन और चतुराई पर निर्भर करता है लेकिन ऐसी सरकारों को बनाने, बचाने और गिराने के खेल में अक्सर राजनीति अपने निकृष्टतम रूप में सामने आती है। 

कई राज्यों पर तलवार
ज्यादातर मामलों में यह स्थिति सदन भंग होने या राष्ट्रपति शासन लागू होने तक जारी रहती है। ऐसा कई बार हुआ है और अभी भी हो रहा है। इस समय भी देश के कई राज्यों में मिली-जुली या बाहरी समर्थन से अल्पमत वाली सरकारें चल रही हैं, जिन पर अस्थिरता की तलवार लटक रही है। मध्य प्रदेश भी ऐसे राज्यों में शुमार है, जहां कांग्रेस की सरकार कुछ छोटी पाॢटयों और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से चल रही है और जिसे गिराने की कोशिशें राज्य में मुख्य विपक्षी दल भाजपा की ओर से फिलहाल तो स्थगित हैं, मगर जल्दी ही शुरू होकर परवान चढ़ सकती हैं। 

दरअसल, मध्य प्रदेश में लगातार 15 सालों तक सत्ता में रही भाजपा की ओर से जिस तरह लोकसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले ही पांच महीने पुरानी कांग्रेस की सरकार के अल्पमत में होने का दावा करते हुए उसकी विदाई  का गीत गुनगुनाया जा रहा था, वह जरा भी हैरान करने वाला नहीं था। लोकसभा चुनाव के एग्जिट पोल्स के अनुमानों के आधार पर ही भाजपा ने कांग्रेस सरकार के अल्पमत में होने का दावा करते हुए राज्यपाल से विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने और मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने का निर्देश देने की मांग कर दी थी। हालांकि मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भाजपा की इस मांग की खिल्ली उड़ाते हुए कहा था कि उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं है और भाजपा नेताओं को किसी भी तरह के सपने देखने का पूरा हक है। 

कर्नाटक को प्राथमिकता
चुनाव नतीजे भाजपा की अपेक्षाओं के अनुरूप आने और केंद्र में भारी बहुमत के साथ दोबारा मोदी सरकार बनने के बाद अंदाजा लगाया जा रहा था कि राज्य के भाजपा नेता अपने दावों और सपनों को हकीकत में बदलने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। मगर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से इस सिलसिले में कर्नाटक को प्राथमिकता पर रखा गया। वहां भाजपा अपनी हिकमत अमली में कांग्रेस और जनता दल (सैक्यूलर) की सांझा सरकार के बहुमत को अल्पमत में तबदील करने में कामयाब हो गई और एच.डी. कुमारस्वामी की सरकार अंतत: गिर गई। अब कर्नाटक में भाजपा सरकार बनाएगी। गोवा में भी सत्तारूढ़ भाजपा ने कांग्रेस विधायकों से दलबदल करा कर अपने अल्पमत को बहुमत में बदल लिया है। इसलिए अंदाजा लगाया जा रहा है कि अब गैर-भाजपा सरकार पर मंडरा रहे खतरे के बादल मध्य प्रदेश की ओर प्रस्थान करेंगे, जहां बहुत ही सूक्ष्म बहुमत के सहारे कांग्रेस सत्ता में बनी हुई है। 

दरअसल, मध्य प्रदेश की पांच महीने पुरानी कांग्रेस सरकार पर खतरे के बादल तो उसी दिन से मंडराने लगे थे, जिस दिन कमलनाथ ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। दिसम्बर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में राज्य की 230 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 114 सीटें हासिल हुई थीं, जो बहुमत के आंकड़े से दो कम थीं। दूसरी ओर, भाजपा को 109 सीटें मिली  थीं। चुनाव नतीजे आते ही बहुजन समाज पार्टी के दो, समाजवादी पार्टी के एक और चार निर्दलीय विधायकों ने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को अपना समर्थन देने का ऐलान कर दिया था। इस प्रकार कांग्रेस कुल 121 विधायकों के समर्थन के बूते सरकार बनाने में कामयाब रही थी। 

ऐसा नहीं है कि भाजपा ने अपना बहुमत न होते हुए भी उस वक्त सरकार बनाने की कोशिश न की हो। उसकी ओर से न सिर्फ निर्दलीय विधायकों को साधने की कोशिशें की गई थीं, बल्कि कांग्रेस के भी कुछ विधायकों से संपर्क किया गया था। योजना यह थी कि निर्दलीय विधायकों का समर्थन हासिल कर और कांग्रेस के कुछ विधायकों से इस्तीफा दिलवा कर विधानसभा की कुल प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर अपने बहुमत का इंतजाम कर लिया जाए। उस समय भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की भोपाल यात्रा को भी इसी सिलसिले में देखा गया था लेकिन भाजपा के रणनीतिकार अपनी किसी भी हिकमत को अमलीजामा नहीं पहना सके थे। 

भाजपा नेताओं का बड़बोलापन
प्रदेश में अपनी सरकार बनाने की योजना में नाकाम रहने के बाद भी भाजपा नेता चुप नहीं बैठे। छह महीने पहले जनवरी में भी जब कर्नाटक में जनता दल (सैक्यूलर) और कांग्रेस की सांझा सरकार को गिराने की कवायदें जोरों पर थीं, उस वक्त भी भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने इंदौर में एक बयान जारी कर कहा था-‘जिस दिन भी बॉस का इशारा मिल जाएगा, हम एक सप्ताह में सरकार गिरा देंगे।’ यही नहीं, केंद्रीय मंत्री और प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर ने तो विजयवर्गीय से भी एक कदम आगे बढ़ते हुए दावा किया कि कई कांग्रेसी और अन्य विधायक हमारे संपर्क में हैं और हम जब चाहेंगे, सरकार गिरा देंगे।

सरकार के बहुमत का परीक्षण करने के लिए विधानसभा का सत्र बुलाने की मांग करते हुए राज्यपाल को पत्र लिख चुके नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने तो और भी साफ शब्दों में कहा था कि लोकसभा चुनाव के नतीजे आने और केंद्र में दोबारा भाजपा की सरकार बनते ही कमलनाथ सरकार की विदाई हो जाएगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि भाजपा नेताओं के इन सारे बयानों को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की सहमति प्राप्त है क्योंकि खुद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी एक से अधिक बार कह चुके हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक की सरकारें किसी भी दिन गिर जाएंगी। 

बहरहाल, अपनी सरकार को लेकर कमलनाथ बेफिक्र हैं। कहते हैं कि सात महीने के भीतर दो मौकों पर विधानसभा में वह अपना बहुमत साबित कर चुके हैं। कमलनाथ के इस आत्मविश्वास भरे बयान को थोड़ा स्पष्ट स्वर देते हुए राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी का कहना है कि जहां भाजपा की सोच खत्म होती है, वहां से कमलनाथ की सोच शुरू होती है, लिहाजा भाजपा नेता किसी गलतफहमी में न रहें। दरअसल, कमलनाथ सरकार को गिराने की जिस योजना पर भाजपा नेताओं ने लोकसभा चुनाव से पहले काम किया था, उसी से मिलती-जुलती योजना के तहत कमलनाथ ने भी अपनी सरकार बचाए रखने की तैयारी कर ली थी। भाजपा के करीब 7-8 विधायक उनके संपर्क में थे, जो मौका आने पर विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा का खेल बिगाडऩे को तैयार थे। 

बहरहाल, लोकसभा चुनाव में भाजपा को राज्य में मिली ऐतिहासिक सफलता से भाजपा नेताओं के हौसले सातवें आसमान पर हैं। मुख्यमंत्री कमलनाथ और उनके मंत्री अपनी सरकार को लेकर चाहे जितना आश्वस्त हों, मगर कर्नाटक के घटनाक्रम को देखते हुए उनकी सरकार पर मंडरा रहे खतरे के बादल और ज्यादा गहराने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। मणिपुर-गोवा की मिसालें याद रखी जानी चाहिएं। यहां भाजपा का बहुमत या सबसे बड़ी पार्टी न होते हुए भी उसकी अगुवाई में सरकार बनाने के लिए जिस तरह संवैधानिक प्रावधानों व मान्य परंपराओं की अनदेखी हुई, विधायकों की कथित तौर पर खरीद-फरोख्त की गई और राज्यपालों ने जिस तरह की भूमिका निभाई, उसे देखते हुए कुछ भी मुमकिन है।-ए. जैन

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!