वक्ती तौर पर ही सही, कर्नाटक में बच गया ‘लोकतंत्र’

Edited By Pardeep,Updated: 20 May, 2018 03:47 AM

obviously the democracy was saved in karnataka

इससे पहले कि दूसरे लोग मुझे याद करवाएं, मैं स्वयं ही खुद को वे शब्द याद करवाता हूं जो मैंने 19 मार्च 2017 को लिखे थे। उस समय उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनावों के नतीजे आ चुके थे। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा को जीत...

इससे पहले कि दूसरे लोग मुझे याद करवाएं, मैं स्वयं ही खुद को वे शब्द याद करवाता हूं जो मैंने 19 मार्च 2017 को लिखे थे। उस समय उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनावों के नतीजे आ चुके थे। 

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा को जीत मिली थी जबकि पंजाब में कांग्रेस विजयी हुई थी। शेष दो राज्यों में उल्लेख करते हुए मैंने लिखा था : ‘‘गोवा और मणिपुर में पराजित होने वाले ही चुनाव को चुरा कर ले गए हैं।’’ मेरी यह टिप्पणी निम्न तथ्यों पर आधारित थी : 

‘‘जिस पार्टी को सबसे अधिक सीटें हासिल होंगी उसे ही सर्वप्रथम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाएगा...इस नियम या परिपाटी के अनुसार गोवा और मणिपुर में कांग्रेस को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए था क्योंकि इन दोनों राज्यों में उसने क्रमश: 40 में से 17 और 60 में से 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी।’’ राज्यपाल द्वारा एक व्यक्ति को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के बाद सिद्धांतों को लेकर विवाद पैदा हो गया। किसी भी पार्टी को निर्णायक बहुमत न मिलने की स्थिति में क्या राज्यपाल को सबसे बड़ी पार्टी या चुनाव के बाद बने सबसे बड़े गठबंधन (जिसके पास प्रथम दृष्टया बहुमत हो) को आमंत्रित करना चाहिए? 

कानून का नवीनतम बयान 
इस सवाल को अतीत में भी खंगाला जाता रहा है और इस मामले में कई फैसलों के संबंध में अदालती टिप्पणियां मौजूद हैं। गोवा ने एक ठोस उदाहरण प्रस्तुत किया। चंद्रकांत कावलेकर बनाम यूनियन आफ इंडिया के प्रकरण में अपने 14 मार्च 2017 के आदेश में  सुप्रीम कोर्ट ने रूलग दी : 

‘‘गोवा विधानसभा 40 निर्वाचित सदस्यों पर आधारित है। जिस पार्टी को कम से कम 21 निर्वाचित सदस्यों का समर्थन हासिल हो उसके पास स्पष्ट रूप में बहुमत होगा। अनुशिष्ट-बी से खुलासा होता है कि भाजपा की ओर से निर्वाचित 13 विधायकों के अलावा महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के तीन और गोवा फारवर्ड पार्टी के तीन सदस्यों ने भाजपा के लिए समर्थन व्यक्त किया है। इन सदस्यों के अलावा 2 निर्दलीय विधायकों ने भी राज्यपाल को भेजे अपने-अपने पत्र में भाजपा के लिए अपने समर्थन का उल्लेख किया है इसलिए भाजपा विधायक दल को व्यावहारिक रूप में 21 विधायकों का समर्र्थन हासिल है।’’ 

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को न्यायसंगत ठहराया और श्री मनोहर पाॢरकर (जिन्होंने चुनाव नहीं लड़ा था) को अपना बहुमत सिद्ध करने की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन साथ ही यह निर्देश दिया कि यह काम वह दो दिन के अंदर यानी 16 मार्च 2017 तक पूरा करेंगे। इस तरह कानून के मामले में मेरी राय गलत सिद्ध हुई और अरुण जेतली द्वारा अपने प्रसिद्ध ब्लाक में व्यक्त की गई अवधारणा सही सिद्ध हुई। 

राज्यपाल ने उड़ाया अदालत का उपहास
गोवा के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की धारा 141 के अंतर्गत कानून संगत घोषित किया। धारा 144 के अंतर्गत सभी प्राधिकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अनुपालन करने के पाबंद हैं। गोवा प्रकरण बिल्कुल एक पाठ्य पुस्तकीय उदाहरण था और राज्यपाल को इसका अनुसरण करना चाहिए था क्योंकि इस विषय के संबंध में सुप्रीम कोर्ट की यह अंतिम और ताजातरीन  उद्घोषणा थी लेकिन राज्यपाल वजुभाई वाला ने ऐसा नहीं किया और यह उनकी कारगुजारी पर एक कलंक सिद्ध होगा। वह भारत के संविधान की बजाय आर.एस.एस./भाजपा के वफादार बने रहे। 

एक बार जब शीर्ष नेतृत्व की ओर से हरी झंडी मिल गई तो कर्नाटक में घटनाक्रम का बहुत तेजी से अनावरण हुआ। येद्दियुरप्पा को सरकार बनाने और 15 दिन के अंदर बहुमत सिद्ध करने का पत्र 16 मई की शाम को ही भेज दिया गया था। उस दिन की मध्य रात्रि से ऐन कुछ ही समय पूर्व कांग्रेस और जद (एस) ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और आधी रात गुजरने के बाद तीन जजों की पीठ द्वारा सुनवाई शुरू हुई। जिसने नोटिस  तथा कुछ अंतरिम निर्देश तो जारी कर दिए लेकिन शपथ ग्रहण समारोह पर कोई स्थगनादेश जारी नहीं किया। फलस्वरूप येद्दियुरप्पा को शपथ दिलाई गई जबकि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस मामले पर सुनवाई 18 मई को हुई। 

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और इसके द्वारा जारी किए गए निर्देश भाजपा के मंसूबों पर वज्रपात सिद्ध हुए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में केवल एक ही त्रुटि निकाली जा सकती है : जब सुप्रीम कोर्ट ने येद्दियुरप्पा से मांग की कि सरकार गठित करने के अपने दावे के संबंध में राज्यपाल को लिखा गया पत्र प्रस्तुत करें तो यह पत्र उपलब्ध होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अवश्य ही यह संज्ञान लिया होगा कि येद्दियुरप्पा ने कहीं भी यह दावा नहीं किया था कि उन्हें निर्वाचित सदस्यों के  बहुमत का समर्थन हासिल है। राज्यपाल द्वारा उन्हें सरकार गठित करने के लिए दिए गए आमंत्रण में कहीं भी सदस्यों की संख्या का उल्लेख नहीं। केवल इसी एक बिंदू पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा येद्दियुरप्पा की मुख्यमंत्री की नियुक्ति को रद्द करना और राज्यपाल को नए सिरे से फैसला लेने को कहना न्यायसंगत था लेकिन शीर्षस्थ अदालत ने ये दोनों काम ही नहीं किए। 

अदालत के 18 मई के आदेश में अन्य सभी बातें किसी भी तरह एतराज योग्य नहीं: 
* यानी कि 19 मई 4 बजे सायं तक विश्वासमत हासिल करना होगा।
* मतदान गोपनीय नहीं होगा।
* फिलहाल किसी भी एंग्लो-इंडियन सदस्य की नियुक्ति नहीं की जाएगी। 
* जब तक येद्दियुरप्पा विश्वासमत हासिल नहीं कर लेते तब तक कोई महत्वपूर्ण प्रशासकीय निर्णय नहीं लेंगे।

मैं सुप्रीम कोर्ट का अभिवादन करता हूं कि इसकी बदौलत कर्नाटक विधानसभा की कार्रवाई का सीधा प्रसारण देख रहा प्रत्येक नागरिक एक तरह से मानद विधानसभा अध्यक्ष बन गया। खुद को शाश्वत शॄमदगी में लथपथ करने के बाद और विश्वासमत से पूर्व ही भाजपा ने हाथ खड़े कर दिए। 75 वर्षीय दावेदार ने त्यागपत्र पेश कर दिया और इस तमाशे की कठपुतलियां न जाने कहां गायब हो गईं। बेशक वक्ती तौर पर ही सही, कर्नाटक में लोकतंत्र को बचा लिया गया है।-पी. चिदम्बरम 

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