वृद्धावस्था एक ‘अभिशाप’ भी है

Edited By ,Updated: 22 Aug, 2020 03:08 AM

old age is also a  curse

अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने 19 अगस्त 1988 को संयुक्त राष्ट्र में यह प्रस्ताव किया कि बुजुर्गों की समर्पण भावना, उनकी उपलब्धियों और जीवन भर की सेवाआें के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए हर साल 21 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय स्तर

अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने 19 अगस्त 1988 को संयुक्त राष्ट्र में यह प्रस्ताव किया कि बुजुर्गों की समर्पण भावना, उनकी उपलब्धियों और जीवन भर की सेवाआें के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए हर साल 21 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व बुजुर्ग अर्थात सीनियर सिटीजन दिवस मनाया जाए। 
अच्छी और सुलभ चिकित्सा, बीमारियों की रोकथाम और स्वस्थ जीवन शैली या लाइफस्टाइल अपनाने से अब रोगों से लडऩे की क्षमता बढऩे से पिछले पचास सालों में औसत आयु 18 साल बढ़ी है। अनुमान है कि कोई भी व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा 120 साल तक जीवित रह सकता है, उससे ऊपर की उम्र के उदाहरण विरले ही होंगे। 

उम्र के तकाजे या अपेक्षाएं
मशहूर शायर बशीर बद्र ने लिखा है ;
होंठों पे मुहब्बत के फसाने नहीं आते
साहिल पे समंदर के खजाने नहीं आते
पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आंखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते 

कुछ लोग कहते हैं कि उम्र बस एक संख्या के अतिरिक्त और कुछ नहीं, कुछ के लिए बोझ भी है और कई लोग इसे मजबूरी का जीना मानते होंगे और बहुत से निदा फाजली की तरह यह गुनगुनाते मिलेंगे
हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं जमाने के लिए
घर के बाहर की फिजा हंसने हंसाने के लिए
यूं लुटाते न फिरो मोतियों वाले मौसम
ये नगीने तो हैं रातों को सजाने के लिए
मेज पर ताश के पत्तों सी सजी है दुनिया
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए 

जब उम्र बढऩे लगती है और उसका एहसास होने को होता है तो यह तसल्ली देना बहुत भाता है कि बुढ़ापा तो अभी कोसों दूर है। मगर घर से बाहर निकलते ही गुलजार साहब की तरह कुछ एेसा नजर आता है!
शहर यह बुजुर्ग लगता है
फैलने लगा है अब
जैसे बूढ़े लोगों का पेट बढऩे लगता है
जुबां के जायके वही
लिबास के सलीके भी,
पतली पतली गलियां धीरे-धीरे चलती रहती हैं
और रगों में खून बहता रहता है
खुश्की बढ़ गई है जिस्म पर कवेरी सूखी रहती है
शाम को भी जल्दी नींद आने लगती है इसे
बूढ़ा तो नहीं मगर
शहर ये बुजुर्ग लगता है!
उम्र पर संगत का असर 

यह एक हकीकत है कि हमारी सोच, काम करने के तरीके और कोई भी फैसला करने में हमारी जो सोहबत है, जिनके साथ रोजाना का उठना बैठना होता है और हम किसी भी मसले पर जिनसे सलाह मशविरा करते हैं, उनकी बात पर न केवल गौर करते हैं, बल्कि मानते भी हैं, अब उसका नतीजा चाहे अच्छा हो या बुरा, बस मन को तसल्ली रहती है कि जो किया सोच समझकर किया, इसके आगे जो भाग्य में लिखा है, वही होगा जिस पर किसी का कोई वश नहीं । 

बुढ़ापे और जवानी का संगम
देखा गया है कि वरिष्ठ नागरिक या बुजुर्ग बनने की दहलीज पर, अक्सर उन लोगों के साथ वक्त बिताना, उनसे अपनी हर बात कहना, जो अपने से आधी उम्र तक के होते हैं, अच्छा लगता है। यह बात और है कि वे आपको किस दृष्टि से देखते हैं लेकिन आप उन्हें अपना राजदार समझने लगते हैं। 

70 से 90 साल से ज्यादा के लोग भी अपनी आयु वालों से कम और काफी कम उम्र के लोगों के साथ ज्यादा उठना बैठना और वक्त बिताना पसंद करते हैं। उनके उम्रदराज होने का उनकी इस आदत का बहुत बड़ा योगदान होता है, चाहे इससे उनकी बदनामी या फजीहत ही क्यों न हो। बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम, बुढ़ापे में मस्ती सूझना, उम्र का लिहाज करने जैसे वाक्यों का सामना भी करना पड़ सकता है लेकिन एेसे लोगों पर कोई असर नहीं होता, वे इसे अपनी जिंदादिली मानते हुए उम्र को सही मायने में एक नंबर की तरह लेते हुए जीते रहते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अगर लंबी उम्र लिखवा कर लाए हैं तो उसे अपने युवा दोस्तों, परिवार के सदस्यों और अपनी जवानी के साथियों के साथ ही गुजारना बेहतर है। 

बढ़ती उम्र में दिमाग का आकार सिकुडऩे लगता है
हमारे देश में जैसी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था है, स्वास्थ्य सेवाआें की जो हालत है और आर्थिक रूप से या तो सरकार की पैंशन, अगर मिलती हो, बुजुर्ग होना अक्सर एक अभिशाप बन जाता है। इसीलिए ज्यादातर लोगों में आमतौर पर हरेक चीज की इच्छा हो सकती है लेकिन उम्र बढऩे की नहीं। जो काम करता रहा, वह तब तक देता रहा जब तक उसने काम करना बंद नहीं किया पर उसके बाद क्या, यह प्रश्न सामने आने पर उसकी मानसिकता एेसी हो जाती है कि जीने को मन नहीं करता और बढ़ती उम्र बोझ लगने लगती है और जीवन एक अभिशाप की तरह गुजरने लगता है। 

वरिष्ठ नागरिकों के लिए कहने को तो सरकार अनेक योजनाएं और सुविधाएं गढ़ती रहती है लेकिन आज तक रेल में चढऩा हो या सीढिय़ां उतरना हो या फिर अपने किसी अधिकार के लिए लडऩा हो तो उस समय उन्हें जितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है, इसके एक दो नहीं हजारों उदाहरण मिल जाएंगे। यह सरकार और समाज की कमी ही तो है कि बूढ़े होने पर कोई बीमा कंपनी उसका बीमा नहीं करती, अगर अकेला रहता हो और बीमार पड़ जाए तो उसे डाक्टर और अस्पताल निराश्रित और बेसहारा मानकर दुर्गति करने से नहीं चूकते। 

बढ़ती उम्र में चिकित्सा विज्ञान के अनुसार हमारे दिमाग का आकार सिकुडऩे लगता है, फेफड़ों का लचीलापन कम होते जाने से सांस लेने और छोडऩे में कष्ट होता है, हृदय कोशिकाआें में रुकावट पैदा होने से खून का प्रवाह ठीक से नहीं हो पाता, सिर से लेकर पैर तक किसी न किसी अंग में दर्द रहने लगता है और चलने फिरने में तकलीफ होती है, एेसे में अगर रुपए पैसे की परेशानी हो जाए तो फिर दुखों के अंबार लगने में समय नहीं लगता, इसलिए हमेशा अपने बुढ़ापे के लिए एक अच्छी खासी रकम बचा कर रखने में ही समझदारी है। 

अंत में यह बात कही जा सकती है कि अगर किसी को छड़ी लेकर चलते देखो तो यह मत समझ लेना कि वह बेसहारा है, मोहताज है, बल्कि वह आत्मनिर्भर है। उसने किसी के कंधे का सहारा नहीं लिया, आश्रित नहीं बना, उसके चेहरे और हाथों की झुर्रियों का मतलब यह है कि यहां कभी मुस्कान रहती थी। अगर किसी एेसे व्यक्ति को हंसा सको तो समझना कि ईश्वर के दर्शन हो गए।-पूरन चंद सरीन
 

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