‘एक देश एक चुनाव’ : कदम फूंक-फूंक कर रखना बेहतर

Edited By ,Updated: 27 Jun, 2019 03:14 AM

one country one election  it is better to have fun

प्रधानमंत्री  नरेन्द्र मोदी की घोषणा कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रस्ताव की समीक्षा करने तथा सुझाव देने के लिए उनकी सरकार एक समिति का गठन करेगी, ने कांग्रेस तथा कुछ अन्य विपक्षी दलों के बीच एक चर्चा छेड़ दी है जो सीधे तौर पर इस प्रस्ताव का विरोध कर...

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोषणा कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रस्ताव की समीक्षा करने तथा सुझाव देने के लिए उनकी सरकार एक समिति का गठन करेगी, ने कांग्रेस तथा कुछ अन्य विपक्षी दलों के बीच एक चर्चा छेड़ दी है जो सीधे तौर पर इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। इस विषय पर चर्चा तथा एक सर्वसम्मति पर पहुंचने की जरूरत है। 

यह एक ऐसा प्रस्ताव है जिसे यदि लागू कर दिया गया तो देश की राजनीतिक प्रणाली में बहुत बदलाव आएगा तथा इसके लिए संविधान में संशोधनों की जरूरत होगी। महत्वपूर्ण प्रश्र यह है कि क्या एक ऐसे देश के लिए ऐसी राजनीतिक प्रणाली की ओर जाना वांछित है, जो विभिन्नता में एकता के लिए खुद पर गर्व महसूस करती है तथा क्या इसके लाभ देश की लोकतांत्रिक प्रणाली की हानियों से अधिक होंगे? यह विचार अपने आप में नया नहीं है। वास्तव में इस बाबत सबसे पहला सुझाव चुनाव आयोग की ओर से आया था जिसने 1983 में सुझाव दिया था कि एक ऐसी प्रणाली पर काम किया जाए। इसके बाद जस्टिस बी.पी. जीवन रैड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने 1999 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ‘हमें अवश्य एक ऐसी स्थिति की ओर लौटना चाहिए, जहां लोकसभा तथा सभी विधानसभाओं के लिए चुनाव एक साथ करवाए जाएं।’ 

पक्ष और विरोध में तर्क
एक साथ चुनाव करवाने के पक्ष तथा विरोध में दोनों तरह के तर्क हैं। जो लोग लोकसभा तथा विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव करवाने के पक्ष में हैं, वे तर्क देते हैं कि इससे उस खर्च में अत्यधिक कमी आएगी, जो अलग-अलग चुनाव करवाने में होता है। वे यह भी तर्क देते हैं कि लगातार चुनाव होने पर उस दौरान आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण नीति पंगुता आ जाती है और सामान्य प्रशासन प्रभावित होता है क्योंकि सरकारें चुनावी मोड में आ जाती हैं तथा विकास परियोजनाएं रुक जाती हैं। 

जो लोग इस विचार के खिलाफ हैं वे ऐसी कार्रवाई की पेचीदगियों की ओर संकेत करते हैं जिनमें इसे लागू करने की व्यावहारिकता शामिल है। उनका मानना है कि ऐसा उपाय केन्द्र में सत्ताधारी पार्टी की क्षेत्रीय दलों की कीमत पर मदद करेगा। सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह है कि क्या होगा यदि राज्य सरकारें गिर जाएं अथवा कानून व्यवस्था बनाए रखने में असफल होने पर ऐसी सरकारों को बर्खास्त कर दिया जाए? मान लो यदि ऐसा चुनावों के एक वर्ष के भीतर हो जाए। क्या इसका अर्थ यह होगा कि वह राज्य केन्द्रीय शासन के अंतर्गत आ जाएगा व अगले 4 वर्षों तक यही स्थिति बनी रहेगी? इससे भी बुरी स्थिति तब होगी यदि किसी कारण केन्द्र सरकार गिर जाए और उसका कोई विकल्प न हो। तो क्या अगले चुनाव होने तक देश में राष्ट्रपति शासन लागू रहेगा? 

आखिरकार 1952 से लेकर अब तक 17 लोकसभाओं में से 7 निर्धारित समय से पहले-1971, 1980, 1984, 1991, 1998, 1999 तथा 2004 में भंग हो गईं। केवल दो लोकसभा चुनाव (1952 तथा 1957 में) ऐसे थे जब लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव करवाए गए। 2019 के हालिया चुनावों में लोकसभा चुनावों के साथ केवल 4 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हुए। वे थे आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश तथा सिक्किम। 

संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन
फिर कुछ संवैधानिक प्रावधान भी हैं, जिनमें संशोधन की जरूरत है। जस्टिस बी.एस. चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने 2012 में व्यवस्था दी थी कि संविधान के मौजूदा ढांचे के भीतर एक साथ चुनाव नहीं करवाए जा सकते। ‘यह संविधान, जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 तथा लोकसभा व राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में उचित संशोधनों के माध्यम से’ किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक होगा कि कम से कम 50 प्रतिशत राज्य संवैधानिक संशोधनों की पुष्टि करें। सम्भावना है कि कांग्रेस सहित विपक्षी दल इस प्रस्ताव के विरोध में रहेंगे। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को ‘अव्यावहारिक’ तथा ‘असाध्य’ बताया। तृणमूल ने घोषणा की है कि यह ‘लोकतंत्र विरोधी तथा असंवैधानिक’ है, जबकि वाम दलों ने भी प्रस्ताव के व्यावहारिक पहलुओं पर प्रश्र उठाए हैं। यदि सरकार इस प्रस्ताव पर अड़ी रहती है तो इसे तब तक इंतजार करना होगा जब तक आवश्यक संशोधन करने के लिए राज्यसभा में इसके पास संख्या न हो जाए। 

राष्ट्रीय सर्वसम्मति
यद्यपि समझदारी इसी में होगी कि सरकार इसका गहराई से अध्ययन करे और एक राष्ट्रीय सर्वसम्मति बनाने का प्रयास करे। इसे प्रावधानों में किसी भी अस्पष्टता के बगैर एक ठोस मामले के साथ सामने आना तथा विभिन्न राजनीतिक दलों व नागरिकों के डरों का निराकरण करना होगा। एक रास्ता विधि आयोग द्वारा गत वर्ष अपनी मसौदा रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को स्वीकार करना हो सकता है कि एक कैलेंडर वर्ष में होने वाले सभी चुनावों को एक साथ आयोजित करवाया जाए। अभी तक चुनाव आयोग के पास उन राज्यों में चुनाव के आदेश देने की शक्तियां हैं जहां विधानसभा चुनाव अगले 6 महीनों में होने हैं। एक समय पर एक कदम एक बेहतर विचार होगा।-विपिन पब्बी
 

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