सिर्फ ‘राहत पैकेजों’ से हल नहीं होंगी किसानों की समस्याएं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 09 Jun, 2018 03:48 AM

only relief packages will not solve farmers problems

1 से 10 जून तक देशव्यापी कृषि आंदोलन भाजपा नीत राजग सरकार को किसानों और उनके परिवारों की भयावह स्थिति से अवगत करवाने का एक नया गंभीर प्रयास है। यहां तक कि पश्चिमी यू.पी. की गन्ना बैल्ट भी गहरे संकट में है इसीलिए कैराना उपचुनाव में मतदाताओं ने भाजपा...

1 से 10 जून तक देशव्यापी कृषि आंदोलन भाजपा नीत राजग सरकार को किसानों और उनके परिवारों की भयावह स्थिति से अवगत करवाने का एक नया गंभीर प्रयास है। 

यहां तक कि पश्चिमी यू.पी. की गन्ना बैल्ट भी गहरे संकट में है इसीलिए कैराना उपचुनाव में मतदाताओं ने भाजपा को जबरदस्त झटका दिया है। यह नींद से जागने की एक चेतावनी थी और इसी के कारण केन्द्र को चीनी उद्योग के लिए 8000 करोड़ रुपए के राहत पैकेज की व्यवस्था करनी पड़ी ताकि गन्ना किसानों के बकाए का भुगतान हो सके। मुझे नहीं लगता कि कर्ज में आकंठ डूठे किसानों की समस्याएं इस राहत पैकेज से हल हो सकेंगी। 

वैसे दुनिया भर में भ्रमण करने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के चुनावी घोषणा पत्रों में वायदों की कोई कमी नहीं। लेकिन अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों की तरह अधिकतर चुनावी वायदे भी केवल कागजों तक सीमित रह गए हैं। ऐसा कहने का मेरा अभिप्राय: यह नहीं कि कृषि अर्थव्यवस्था की सभी बीमारियों के लिए भाजपा सरकार ही जिम्मेदार है। कांग्रेस और अन्य पार्टियां भी अनेक वर्षों दौरान किसानों को घेरने वाली दुख-तकलीफों के लिए बराबर की जिम्मेदार हैं। ऐसा मुख्य तौर पर इसलिए हुआ कि कामचलाऊ नीतियां और पैंतरे अपनाए गए लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से  संकट प्रबंधन के लिए कोई सर्वांगीण एवं समन्वित प्रयास नहीं किए गए। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं कि एक संकट दूसरे का मार्ग प्रशस्त करता गया। शृंखलाबद्ध कामचलाऊ नीतियों ने तदर्थवाद को ही प्रबंधन शैली बनाकर रख दिया। 

कर्ज माफियां इसका बहुत प्रचंड उदाहरण हैं। चूंकि हमारा समाज मूल रूप में कृषि आधारित है इसलिए हमें अपनी कृषि नीति और कार्यक्रमों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की बहुत बुरी तरह जरूरत है। राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट कृषि नीतियों के न होने के कारण गत काफी समय से ग्रामीण क्षेत्रों से आ रहे बेचैनी के संकेत शानदार फसल और भारी स्टॉक के बावजूद न्यूनतम लाभप्रद मूल्यों के मामले में आने वाले भारी उतार-चढ़ावों के मद्देनजर अधिक तीखे होते जा रहे हैं। लेकिन परवाह किसे है? वास्तविक मुद्दों को संबोधित होने की बजाय केन्द्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने किसानों के रोष प्रदर्शन को ‘मीडिया की नौटंकी’ तथा खबरों में बने रहने का ‘अजब-गजब तरीका’ करार दिया। क्या यह शर्म की बात नहीं? इस तरह के घमंडी मंत्रियों के लिए हमारे पास तत्काल कोई उत्तर नहीं है। यहां सवाल इस आंदोलन में सक्रिय रूप में हिस्सा लेने वाले किसानों का नहीं। यह स्मरण रखने की जरूरत है कि इस देश में महिलाओं और पुरुषों के लिए कृषि ही महत्वपूर्ण धंधा है। डीजल और पैट्रोल कीमतों में उबाल सहित किसानों को आज हर प्रकार की समस्याएं दरपेश हैं। कृषि मूल्य संकट के लिए केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने ग्लोबल मार्कीट के सिर ठीकरा फोड़ा है। 

ऐसा क्यों है? समस्याग्रस्त क्षेत्र कौन-कौन से हैं और वरीयताएं क्या हैं? हमारे पास किसानों की आधारभूत समस्याओं का तैयार-बर-तैयार जवाब नहीं है। यहां मैं विश्व बैंक की 1999 की रिपोर्ट के एक खंड का स्मरण कराना चाहूंगा जो विशेष रूप में भारत की नुक्सदार मार्कीट नीतियों का उल्लेख करता था। इसमें कहा गया था : ‘‘सरकारी नीतियां और उनका कार्यान्वयन भी आर्थिक वृद्धि और आधुनिकीकरण का गला घोंट रहा है जिसके फलस्वरूप ढेर सारा धन बर्बाद हो जाता है। समूची व्यवस्था के स्तर पर सोचा जाए तो हर वर्ष हर प्रकार के खाद्यान्न की 1.2 टन से लेकर 1.6 करोड़ टन तक मात्रा बर्बाद हो जाती है। यह बर्बाद अन्न 7 से 10 करोड़ लोगों का पेट भरने के लिए काफी है।’’ 

ऐसा इसलिए होता है कि भारत की कृषि नीतियां किसान और उपभोक्ता हितैषी होने की बजाय सरकारी और गैर सरकारी दोनों स्तरों पर बिचौलियों, जुगाड़बाजों और दलालों के हितों की ज्यादा चिंता करती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यह सोचना सरासर पाखंडपूर्ण है कि राहत पैकेजों से कोई समस्या हल हो सकती है। वैसे समय-समय पर किसानों को फसलों में विभिन्नता लाने तथा गेहूं और धान से दूर हट कर अन्य नकदी फसलों की खेती करने की भी सलाह दी जाती है। यदि उन्हें अच्छे मूल्य मिलें तो वे इस सलाह का अनुसरण करते हैं लेकिन भरोसेमंद मार्कीट ढांचा और समर्थन न होने के कारण उनके प्रयासों का मुश्किल से ही लाभदायक मोल मिलता है। आखिरकार परिणाम यह होता है कि बेचारे किसान को छोड़ कर अन्य सभी लाभान्वित हो जाते हैं और किसान अपनी किस्मत को कोस कर ही खुद को तसल्ली दे लेता है। 

फिर भी आज के किसान बेहतर जानकारी रखते हैं और अपने अधिकारों पर अधिक दावेदारी ठोंकते हैं। यह भी भले की ही बात है क्योंकि देश को कृषि क्षेत्र सहित राष्ट्रीय जीवन के हर आयाम पर राजनीतिज्ञ-नौकरशाह जकड़ तोडऩे के लिए सही उत्तर तलाश करने हैं। हमारे देश में समस्या यह है कि नौकरशाह नए दौर के लाट साहिब बन गए हैं। वे रिमोट कंट्रोल से अपने आदेशों का कार्यान्वयन करते हैं। जिसका नतीजा यह होता है कि किसानों और सरकारी मशीनरी के बीच संचार की खाई बढ़ती जाती है। एक अन्य क्षेत्र जिसे विशेष परवरिश की जरूरत है वह है कृषि मशीनरी का समयानुकूलन करना और इसे स्थानीय परिस्थितियों तथा खास तौर पर छोटे और मंझोले किसानों के हितों के अनुकूल बनाना। यह करने के लिए जरूरतों पर आधारित खेती अनुसंधान के लिए वित्तपोषण की उपलब्धता की जरूरत है। 

यह भी याद रखने योग्य बात है कि घटिया बीज, घटिया टैक्नालोजी, घटिया निगरानी और घटिया मार्कीटिंग मिलकर कभी अच्छे नतीजे नहीं दे सकते। हमें बाजार अधोसंरचना को अपग्रेड करने के साथ-साथ मंडी सुविधाओं, दूरसंचार, बाजार सूचना प्रणालियों, सड़कों तथा खाद्यान्न की गे्रडिंग प्रणाली को समय और परिस्थिति के अनुकूल बनाना होगा। यह भी कोई कम जरूरी नहीं कि किसी नीति को जनसंख्या से जोडऩे का मुद्दा राष्ट्रीय ध्यानाकर्षण का केन्द्र बने। कुछ भी हो, प्रधानमंत्री महोदय, खतरे के संकेत तो पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। दुर्भाग्यवश संबंधित अधिकारी बापू के तीन बंदरों जैसा व्यवहार करते हैं। उन्हें न तो कोई समस्या दिखाई देती है, न सुनाई देती है और न ही वे वास्तविक समस्या के बारे में बात करना चाहते हैं, ऐसे में यदि कर्ज के बोझ तले किसान विषादग्रस्त होते हैं तो यह कोई हैरानी की बात नहीं। 

अभी भी यह महसूस करने का समय हाथ से निकला नहीं है कि सामाजिक प्रगति, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सांस्कृतिक एवं आत्मिक सम्पूर्णता, सही टैक्नालोजी, सुधरी हुई कृषि उत्पादकता, तेज गति आॢथक वृद्धि, बेहतर रोजगार अवसर तथा गरीबी उन्मूलन जैसे सभी मुद्दे अंतरनिर्भर हैं। अभी भी समय है कि जिम्मेदार व्यक्ति अपने स्वप्नलोक तथा झूठे वायदों में से नीचे उतरें और हकीकतों के धरातल पर आएं।-से 10 जून तक देशव्यापी कृषि आंदोलन भाजपा नीत राजग सरकार को किसानों और उनके परिवारों की भयावह स्थिति से अवगत करवाने का एक नया गंभीर प्रयास है। यहां तक कि पश्चिमी यू.पी. की गन्ना बैल्ट भी गहरे संकट में है इसीलिए कैराना उपचुनाव में मतदाताओं ने भाजपा को जबरदस्त झटका दिया है। यह नींद से जागने की एक चेतावनी थी और इसी के कारण केन्द्र को चीनी उद्योग  के लिए 8000 करोड़ रुपए के राहत पैकेज की व्यवस्था करनी पड़ी ताकि गन्ना किसानों के बकाए का भुगतान हो सके। मुझे नहीं लगता कि कर्ज में आकंठ डूठे किसानों की समस्याएं इस राहत पैकेज से हल हो सकेंगी। वैसे दुनिया भर में भ्रमण करने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के चुनावी घोषणा पत्रों में वायदों की कोई कमी नहीं। लेकिन अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों की तरह अधिकतर चुनावी वायदे भी केवल कागजों तक सीमित रह गए हैं।

ऐसा कहने का मेरा अभिप्राय: यह नहीं कि कृषि अर्थव्यवस्था की सभी बीमारियों के लिए भाजपा सरकार ही जिम्मेदार है। कांग्रेस और अन्य पाॢटयां भी अनेक वर्षों दौरान किसानों को घेरने वाली दुख-तकलीफों के लिए बराबर की जिम्मेदार हैं। ऐसा मुख्य तौर पर इसलिए हुआ कि कामचलाऊ नीतियां और पैंतरे अपनाए गए लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से  संकट प्रबंधन के लिए कोई सर्वांगीण एवं समन्वित प्रयास नहीं किए गए। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं कि एक संकट दूसरे का मार्ग प्रशस्त करता गया। शृंखलाबद्ध कामचलाऊ नीतियों ने तदर्थवाद को ही प्रबंधन शैली बनाकर रख दिया। 

कर्ज माफियां इसका बहुत प्रचंड उदाहरण हैं। चूंकि हमारा समाज मूल रूप में कृषि आधारित है इसलिए हमें अपनी कृषि नीति और कार्यक्रमों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की बहुत बुरी तरह जरूरत है। राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट कृषि नीतियों के न होने के कारण गत काफी समय से ग्रामीण क्षेत्रों से आ रहे बेचैनी के संकेत शानदार फसल और भारी स्टॉक के बावजूद न्यूनतम लाभप्रद मूल्यों के मामले में आने वाले भारी उतार-चढ़ावों के मद्देनजर अधिक तीखे होते जा रहे हैं। लेकिन परवाह किसे है? वास्तविक मुद्दों को संबोधित होने की बजाय केन्द्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने किसानों के रोष  प्रदर्शन को ‘मीडिया की नौटंकी’ तथा खबरों में बने रहने का ‘अजब-गजब तरीका’ करार दिया। क्या यह शर्म की बात नहीं? इस तरह के घमंडी मंत्रियों के लिए हमारे पास तत्काल कोई उत्तर नहीं है। 

यहां सवाल इस आंदोलन में सक्रिय रूप में हिस्सा लेने वाले किसानों का नहीं। यह स्मरण रखने की जरूरत है कि इस देश में महिलाओं और पुरुषों के लिए कृषि ही महत्वपूर्ण धंधा है। डीजल और पैट्रोल कीमतों में उबाल सहित  किसानों को आज हर प्रकार की समस्याएं दरपेश हैं। कृषि मूल्य संकट  के लिए केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने ग्लोबल मार्कीट के सिर ठीकरा फोड़ा है। ऐसा क्यों है? समस्याग्रस्त क्षेत्र कौन-कौन से हैं और वरीयताएं क्या हैं? हमारे पास किसानों की आधारभूत समस्याओं का तैयार-बर-तैयार जवाब नहीं है। यहां मैं विश्व बैंक की 1999 की रिपोर्ट के एक खंड का स्मरण कराना चाहूंगा जो विशेष रूप में भारत की नुक्सदार मार्कीट नीतियों का उल्लेख करता था। 

इसमें कहा गया था : ‘‘सरकारी नीतियां और उनका कार्यान्वयन भी आॢथक वृद्धि और आधुनिकीकरण का गला घोंट रहा है जिसके फलस्वरूप ढेर सारा धन बर्बाद हो जाता है। समूची व्यवस्था के स्तर पर सोचा जाए तो हर वर्ष हर प्रकार के खाद्यान्न की 1.2 टन से लेकर 1.6 करोड़ टन तक मात्रा बर्बाद हो जाती है। यह बर्बाद अन्न 7 से 10 करोड़ लोगों का पेट भरने के लिए काफी है।’’ ऐसा इसलिए होता है कि भारत की कृषि नीतियां किसान और उपभोक्ता हितैषी होने की बजाय सरकारी और गैर सरकारी दोनों स्तरों पर बिचौलियों, जुगाड़बाजों और दलालों के हितों की ज्यादा चिंता करती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यह सोचना सरासर पाखंडपूर्ण है कि राहत पैकेजों से कोई समस्या हल हो सकती है। वैसे समय-समय पर किसानों को फसलों में विभिन्नता लाने तथा गेहूं और धान से दूर हट कर अन्य नकदी फसलों की खेती करने की भी सलाह दी जाती है। यदि उन्हें अच्छे मूल्य मिलें तो वे इस सलाह का अनुसरण करते हैं लेकिन भरोसेमंद मार्कीट ढांचा और समर्थन न होने के कारण उनके प्रयासों का मुश्किल से ही लाभदायक मोल मिलता है। आखिरकार परिणाम यह होता है कि बेचारे किसान को छोड़ कर अन्य सभी लाभान्वित हो जाते हैं और किसान अपनी किस्मत को कोस कर ही खुद को तसल्ली दे लेता है। 

फिर भी आज के किसान बेहतर जानकारी रखते हैं और अपने अधिकारों पर अधिक दावेदारी ठोंकते हैं। यह भी भले की ही बात है क्योंकि देश को कृषि क्षेत्र सहित राष्ट्रीय जीवन के हर आयाम पर राजनीतिज्ञ-नौकरशाह जकड़ तोडऩे के लिए सही उत्तर तलाश करने हैं। हमारे देश में समस्या यह है कि नौकरशाह नए दौर के लाट साहिब बन गए हैं। वे रिमोट कंट्रोल से अपने आदेशों का कार्यान्वयन करते हैं। जिसका नतीजा यह होता है कि किसानों और सरकारी मशीनरी के बीच संचार की खाई बढ़ती जाती है। एक अन्य क्षेत्र जिसे विशेष परवरिश की जरूरत है वह है कृषि मशीनरी का समयानुकूलन करना और इसे स्थानीय परिस्थितियों तथा खास तौर पर छोटे और मंझोले किसानों के हितों के अनुकूल बनाना। यह करने के लिए जरूरतों पर आधारित खेती अनुसंधान के लिए वित्तपोषण की उपलब्धता की जरूरत है। 

यह भी याद रखने योग्य बात है कि घटिया बीज, घटिया टैक्नालोजी, घटिया निगरानी और घटिया मार्कीटिंग मिलकर कभी अच्छे नतीजे नहीं दे सकते। हमें बाजार अधोसंरचना को अपग्रेड करने के साथ-साथ मंडी सुविधाओं, दूरसंचार, बाजार सूचना प्रणालियों, सड़कों तथा खाद्यान्न की गे्रडिंग प्रणाली को समय और परिस्थिति के अनुकूल बनाना होगा। यह भी कोई कम जरूरी नहीं कि किसी नीति को जनसंख्या से जोडऩे का मुद्दा राष्ट्रीय ध्यानाकर्षण का केन्द्र बने। कुछ भी हो, प्रधानमंत्री महोदय, खतरे के संकेत तो पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। दुर्भाग्यवश संबंधित अधिकारी बापू के तीन बंदरों जैसा व्यवहार करते हैं। उन्हें न तो कोई समस्या दिखाई देती है, न सुनाई देती है और न ही वे वास्तविक समस्या के बारे में बात करना चाहते हैं, ऐसे में यदि कर्ज के बोझ तले किसान विषादग्रस्त होते हैं तो यह कोई हैरानी की बात नहीं। 

अभी भी यह महसूस करने का समय हाथ से निकला नहीं है कि सामाजिक प्रगति, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सांस्कृतिक एवं आत्मिक सम्पूर्णता, सही टैक्नालोजी, सुधरी हुई कृषि उत्पादकता, तेज गति आर्थिक वृद्धि, बेहतर रोजगार अवसर तथा गरीबी उन्मूलन जैसे सभी मुद्दे अंतरनिर्भर हैं। अभी भी समय है कि जिम्मेदार व्यक्ति अपने स्वप्नलोक तथा झूठे वायदों में से नीचे उतरें और हकीकतों के धरातल पर आएं।-हरि जयसिंह 
 

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