केवल मोदी को निशाना बनाने से काम नहीं चलेगा

Edited By ,Updated: 24 Jan, 2019 04:23 AM

only targeting modi will not work

आने वाले एक-दो महीनों में आम चुनावों की घोषणा होने की सम्भावना के चलते सभी राजनीतिक दलों के साथ-साथ सरकार भी अब चुनावी मोड में आ गई है। बड़ा प्रश्र यह है कि क्या राजग सरकार वापसी करेगी या महागठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे गैर-भाजपा दलों का समूह सत्ता...

आने वाले एक-दो महीनों में आम चुनावों की घोषणा होने की सम्भावना के चलते सभी राजनीतिक दलों के साथ-साथ सरकार भी अब चुनावी मोड में आ गई है। बड़ा प्रश्र यह है कि क्या राजग सरकार वापसी करेगी या महागठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे गैर-भाजपा दलों का समूह सत्ता में आएगा? 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी द्वारा हाल ही में कोलकाता में आयोजित विशाल रैली ने महागठबंधन के लिए बिगुल बजा दिया, जिसमें कई क्षेत्रीय दलों सहित 23 राजनीतिक दलों ने अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा अन्य वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने यह कह कर प्रतिक्रिया दी कि रैली में कम से कम 8 ऐसे नेता थे जो प्रधानमंत्री पद के चाहवान हैं और यह दावा किया कि गठबंधन बनने की कोई सम्भावना नहीं है। 

भाजपा नेता चाहे इन राजनीतिक दलों के एक-दूसरे का हाथ थामने के प्रयासों को खारिज करते हों, यह तथ्य है कि जिस तरह से ये दल मुख्य रूप से प्रधानमंत्री मोदी को निशाना बना रहे हैं, वे सम्भवत: वही नादानी कर रहे हैं जो मोदी ने पहले कांग्रेस मुक्त भारत का आह्वान करके की थी। 

गत कुछ वर्षों के दौरान भाजपा ने एक के बाद एक विजय प्राप्त की और वह लगभग उन सभी राज्यों में कांग्रेस को गद्दी से उतारने में सफल रही जहां वह सत्ता में थी। यद्यपि, जैसे कि हालिया चुनाव परिणाम दिखाते हैं, पार्टी वापसी की ओर अग्रसर है तथा कांग्रेस मुक्त भारत का सपना भाजपा को सताने लगा है। 2014 के आम चुनावों के दौरान तथा बाद में भाजपा के प्रचार का मुख्य जोर कांग्रेस को उखाड़ फैंकने पर था और यह काफी हद तक इसमें सफल भी हुई लेकिन अब वही नारा उस पर उलटा पड़ता दिखाई दे रहा है क्योंकि सरकार के पास अपनी उपलब्धियों के तौर पर दिखाने के लिए कुछ खास नहीं है। 

मोदी सरकार की सम्भावनाओं से इंकार नहीं
इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी सरकार की लोकप्रियता में गिरावट आई है और सत्ता विरोधी लहर के भी संकेत हैं लेकिन आने वाले आम चुनावों में इसकी सम्भावना को यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता। महागठबंधन के सदस्य एक बड़ी गलती करेंगे यदि वे यह सोचते हैं कि मोदी मुक्त भारत कह कर केवल मोदी को निशाना बनाने से उन्हें लाभ होगा। उन्हें जरूरत है एक न्यूनतम सांझा कार्यक्रम के साथ आगे आने की जिसमें उन कदमों को सूचीबद्ध किया जाए जिन्हें वे गैर-भाजपा सरकार के सत्ता में आने की सूरत में उठाएंगे। 

एक आकांक्षावान देश तथा इसके युवा, जिनकी संख्या अब मध्यम आयु तथा बुजुर्ग लोगों से कहीं अधिक है, जानना चाहेंगे कि रोजगार पैदा करने अथवा उद्योगों को प्रोत्साहित करने तथा कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए आने वाली सरकार की क्या योजनाएं हैं। केवल वायदे करना भी लोगों को स्वीकार्य नहीं होगा। वे देश के लिए एक समयबद्ध तथा विश्वसनीय रूपरेखा चाहेंगे। उन्हें यह विश्वास दिलाने की जरूरत होगी कि विपक्षी नेता केवल मोदी को हटाने अथवा सत्ता प्राप्ति के एकमात्र उद्देश्य को लेकर नहीं बल्कि देश को प्रगति के मार्ग पर ले जाने के लिए साथ आ रहे हैं। 

राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं व विरोधाभास
नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के अतिरिक्त महागठबंधन के लिए आंतरिक विरोधाभासों से निपटना भी आसान नहीं होगा। उदाहरण के तौर पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के लिए वाम दलों के साथ गठबंधन करना कठिन होगा, जो पश्चिम बंगाल में इसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं। इसी तरह समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में गठजोड़ कर लिया है, जिसमें कांग्रेस को बाहर रखा गया है। कांग्रेस ने घोषणा की है कि वह उत्तर प्रदेश में सभी संसदीय सीटों पर चुनाव लड़ेगी जिससे देश के सबसे बड़े राज्य में त्रिकोणीय लड़ाई यकीनी बन गई है, जो संसद में 80 सदस्यों का योगदान डालता है। आम आदमी पार्टी ने भी दिल्ली तथा पंजाब में अकेले चुनाव लडऩे का निर्णय किया है और कांग्रेस के साथ किसी भी गठजोड़ से इंकार किया है। 

जहां यह सच है कि हमारी सरकार संसदीय प्रणाली की है न कि राष्ट्रपति प्रणाली की जैसी कि अमरीका में है लेकिन जहां तक चुनावों का संबंध है, हम बड़ी तेजी से राष्ट्रपति प्रणाली की ओर झुक रहे हैं। यही कारण है कि भाजपा मोदी बनाम राहुल गांधी प्रतिस्पर्धा पर ध्यान दे रही है क्योंकि वह जानती है कि आमने-सामने की लड़ाई में कांग्रेस अध्यक्ष अभी भी मोदी के अनुभव तथा वाकपटुता का मुकाबला नहीं कर सकते।

संभावित प्रधानमंत्री को लेकर संदेह
बेशक पार्टियां यह रुख अपना रही हैं कि संसदीय प्रणाली के अंतर्गत चुने हुए प्रतिनिधि अपना नेता चुनेंगे, मतदाताओं को सम्भावित प्रधानमंत्री को लेकर संदेह है। एक तरह से यह सही भी है क्योंकि आने वाले चुनावों में किसी विशेष पार्टी के पक्ष में स्पष्ट जनादेश की सम्भावना नहीं है तथा दोनों ही मामलों में ऐसी आशा है कि गठबंधन सांझीदारों की लेन-देन की ताकत अगले प्रधानमंत्री का निर्णय करेगी। इसलिए महागठबंधन को यह सोचने से कहीं अधिक करना होगा कि चुनाव गणित का खेल है या पुराने आंकड़ों को देखते हुए बसपा-सपा मिलकर भाजपा से अधिक वोट हासिल कर लेंगी। गणित तथा भौतिक विज्ञान से अधिक, यह नेताओं तथा गठबंधनों के बीच की कैमिस्ट्री है, जो नजदीकी भविष्य में देश के राजनीतिक भाग्य का फैसला करेगी।-विपिन पब्बी

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