‘अपंग’ हो चुकी हमारी अर्थव्यवस्था

Edited By ,Updated: 17 Nov, 2019 02:12 AM

our economy is  crippled

अपंग हो चुकी अर्थव्यवस्था के निरंतर बुरे समाचारों के बारे में बात हो रही है। राजनीति का सब पर प्रभाव है जैसा कि पहले भी था। मगर राजनीति के अलावा हमें अर्थव्यवस्था पर भी ध्यान देना होगा। राजनेता अपने पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं जबकि अर्थव्यवस्था...

अपंग हो चुकी अर्थव्यवस्था के निरंतर बुरे समाचारों के बारे में बात हो रही है। राजनीति का सब पर प्रभाव है जैसा कि पहले भी था। मगर राजनीति के अलावा हमें अर्थव्यवस्था पर भी ध्यान देना होगा। राजनेता अपने पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं जबकि अर्थव्यवस्था बिना किसी सचेत, योग्य ध्यान के पीड़ा सह रही है। सवाल यह पैदा होता है कि राजनीति की तरह अर्थव्यवस्था पर भी गौर हो रहा है या नहीं। इसका उत्तर न ही में मिलेगा। जैसा कि इसके धीमेपन के कारण दिखाई दे रहा है। 

अर्थव्यवस्था के बारे में कोई चिंतित नहीं
साधारण लोग केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निरंतर विदेशी दौरों के बारे में ही टिप्पणियां करते हैं मगर अर्थव्यवस्था के प्रति ङ्क्षचतित नहीं। आॢथक पटल पर मंदी बारे बुरा समाचार मिलता है मगर उसके उपाय स्पष्ट नहीं। जिस तरह हमारी अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही है उससे यह बात मुश्किल लगती है कि यह पांच प्रतिशत की मामूली विकास दर को छू सकेगी। औद्योगिक आऊटपुट में भी संकुचन देखा जा रहा है। लगातार दूसरे माह के लिए औद्योगिक उत्पादन का इंडैक्स कम होता दिखाई दे रहा है। यह गिरावट 4.3 प्रतिशत है जो आठ सालों में सबसे निचले स्तर की है। 2018-19 वित्तीय वर्ष में विकास दर 5.2 प्रतिशत के मुकाबले 1.3 रही। बाकी के वर्ष में यह कैसे बढ़ पाएगी, यह मुश्किल कार्य लगता है। स्पष्ट तौर पर उपभोक्ता पावर भी सिकुड़ कर रह गई है। लोगों के पास खर्चने के लिए बहुत निम्न निवेश हैं। दीवाली इसका उदाहरण था। लोगों का मूड भी गिरता हुआ दिखाई दे रहा है। 

मंदी के चिन्हों को नकारा नहीं जा सकता
रेटिंग एजैंसी ‘मूडीज’ ने भी भारत की क्रैडिट रेटिंग को कम आंका है। सरकार भले ही इसको दरकिनार करे या फिर असंगत माने मगर मंदी के चिन्हों को नकारा नहीं जा सकता। 2019-20 की पहली तिमाही में विकास दर गिर कर 5 प्रतिशत हो गई। दूसरी तिमाही में भी यही हाल रहा। मंदी की सुस्त रफ्तार को करों के कम संग्रह से भी जांचा जा सकता है। आयकर विभाग भी एक लाख करोड़ का विशालकाय टारगेट नहीं पा सका। वोडाफोन, आइडिया की दुर्दशा इस मामले में देखी जा सकती है। ब्रिटिश संचार समूह भारत में कर्ज में डूबा है जिससे यह बाहर जाने पर विचार कर रहा है। इसके लिए मुख्य दोष अनुकूल, स्थिर तथा बिजनैस पारदर्शी माहौल के कम होने को माना जा रहा है। 

आएं इसका सामना करें। अन्य संचार कम्पनियों की वित्तीय स्थिति भी बेहतर नहीं है। भारत विदेशी तथा घरेलू निवेशकों को गलत सिगनल नहीं देना चाहता। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस सैक्टर में मंदी से निपटने के लिए सरकार कुछ नहीं सुझा रही और इसके प्रति अपना रवैया नहीं दर्शा रही। वोडाफोन कम्पनी जोकि सबसे पहली तथा बड़ी विदेशी निवेशक थी, का औंधे मुंह गिरना सभी ओर बिजनैस भावनाओं को और गम्भीर कर रहा है। 

रैड्डी ने बंद कीं बड़ी परियोजनाएं
मगर ऐसा सबके साथ नहीं है। आंध्र सरकार विदेशी निवेश की क्षमता को खत्म करने के लिए सब कुछ कर रही है। राज्य के मुख्यमंत्री जगनमोहन रैड्डी ने अपने पूर्ववर्ती चंद्र बाबू नायडू से विरोधपूर्ण भावना रखते हुए उनके द्वारा शुरू की गई सभी परियोजनाओं को बंद कर डाला। नई राजधानी अमरावती के बहूद्देशीय प्रोजैक्ट को भी बंद कर दिया गया जिसमें सिंगापुर सरकार का बहुत बड़ा निवेश शामिल था। विदेशी तथा घरेलू निवेशक अपने बकाया को पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। रैड्डी सरकार ने हरित ऊर्जा समझौतों पर भी ग्रहण लगा दिया है। 

खाद्य पदार्थों की कीमतों में भी वृद्धि दर्शाई जा रही है। मंदी की यथास्थिति बनी हुई है। आर. बी.आई. इससे पार पाने में असफल दिखाई दे रहा है। चार लाख करोड़ के करीब के कर्जे का बैंकिंग सैक्टर शिकार हुआ है। दरों में बार-बार कटौती करने के बावजूद उधार में सुस्ती दिखाई दे रही है। प्रत्येक सैक्टर में सुस्ती का दौर चल रहा है। रियल एस्टेट, आटोमोबाइल, कैपीटल गुड्स इत्यादि निष्क्रिय दिखाई दे रही हैं। भूमि तथा श्रम बाजार को भी लचीला बनाना होगा। 2011-12 के मुकाबले 2017-18 में पर कैपिटा उपभोग में भी कमी आई है। 

हालांकि मोदी को प्रचंड बहुमत मिला है। उनके पास मौका है कि अपने दूसरे कार्यकाल के पहले वर्ष कुछ दृढ़ निर्णय लें ताकि अर्थव्यवस्था के विभिन्न सैक्टरों में उम्मीद जागे। उन्हें एक स्थिर, पारदर्शी तथा अनुकूल मौका मिला है। इससे वह सभी ईमानदार उद्यमियों के फलने-फूलने के लिए एक नीति बना सकते हैं। आर.सी.ई.पी. में शामिल न होना वास्तव में हमारे संशय को उजागर करता है। यह भी दर्शाता है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा को झेलने में हममें अभी कुछ खामियां हैं। जो बहादुरी दिखाते हुए आर.सी.ई.पी.से जुड़ेंगे, वे इससे फायदा पाएंगे। 

इस दौरान यह भी देखना होगा कि आर्थिक नीति बनाने में यदि विशेषज्ञों की मदद ली जाए तो अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर होगा। अरविंद पनगढिय़ा जैसे वित्त मंत्री भरोसे को पे्ररित करेंगे। यदि हमारे पास विदेश मंत्रालय में अच्छे लोग हैं तो फिर पनगढिय़ा जैसे वित्त मंत्रालय में क्यों नहीं। वित्त मंत्रालय में विशेषज्ञों की जरूरत है। सरकार में विशेषज्ञों को शामिल करना नेतृत्व में भरोसे का चिन्ह होता है। इसको कमजोरी नहीं समझना चाहिए। इस विश्व में ऐसा कोई भी नहीं जो सभी चीजों के बारे में सब कुछ जानता हो। यह बात प्रधानमंत्री तथा उनके मंत्रियों को भी दिमाग में रखनी होगी।-अंदर की बातें वीरेन्द्र कपूर
 

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