पाक की बौखलाहट व घाटी में अनदेखी बेचैनी

Edited By ,Updated: 10 Aug, 2019 12:32 AM

pak s fury and unseen restlessness in the valley

जम्मू -कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करना निश्चित रूप से नरेन्द्र मोदी सरकार का एक मास्टर स्ट्रोक है। जम्मू-कश्मीर में इतिहास के 70 वर्षों को पलटने के लिए काफी हिम्मत तथा राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। यद्यपि घाटी की पेचीदगियों को देखते हुए हम...

जम्मू -कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करना निश्चित रूप से नरेन्द्र मोदी सरकार का एक मास्टर स्ट्रोक है। जम्मू-कश्मीर में इतिहास के 70 वर्षों को पलटने के लिए काफी हिम्मत तथा राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। यद्यपि घाटी की पेचीदगियों को देखते हुए हम सुनिश्चित नहीं हो सकते कि भविष्य के गर्भ में क्या है। भारत के कदम पर पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। पत्रकार मित्रों की रिपोर्टों से पता चलता है कि घाटी में एक अनदेखी बेचैनी है। 

जैसा कि मैं समझता हूं, इतिहास घटनाक्रमों के रिकार्ड से कहीं अधिक है। यह एक ऐसा माध्यम है जो घटनाक्रमों पर नजर रखता है और उनकी समीक्षा करता है, भावी पीढ़ी के लिए उनका वर्गीकरण तथा विश्लेषण करता है। जो इतिहास से सबक लेते हैं वे इसे दोहराते नहीं। जो नहीं सीख पाते उनकी दोहराने के लिए आलोचना की जाती है। इसमें नई दिल्ली स्थित सत्ता अधिष्ठान की त्रासदी निहित है। जम्मू-कश्मीर में पेचीदा स्थिति को लेकर केन्द्रीय नेताओं द्वारा निर्णय लेने की प्रक्रिया की गुणवत्ता हमेशा ही एकतरफा रही है। इसलिए हम कभी भी वर्तमान की रोशनी में बीत चुके कल की घटनाओं का आकलन करने में सक्षम नहीं होते। 

कांग्रेस ने अतीत से सबक नहीं सीखा
प्रत्यक्ष तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को अलगाववादी राजनीति के लिए धार्मिक बाध्यताओं में नहीं बंधने दिया। प्रत्यक्ष तौर पर वह राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से निर्देशित थे और अलगाववादियों के राजनीतिक मंच पर रोक लगाते हुए उसे सर्वव्यापी कांग्रेस से परे कर दिया। विभिन्न कारकों के बीच, जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद तथा आतंकवाद के बीज किसी भी तरीके से राज्य को हड़पने की पाकिस्तानी मानसिकता के कारण बीजे गए थे। अफसोस की बात है कि कुछ कांग्रेसी नेताओं की भटकी हुई प्रतिक्रियाओं को देखते हुए ऐसा लगता है कि ऐतिहासिक पार्टी ने अपनी अतीत की भूलों से सबक नहीं सीखा है। 

कश्मीर की समस्या से निपटने के दौरान हमारे नेताओं ने कई गलतियां की हैं। एक था कश्मीर को भारत में मिलाने के प्रश्र पर जवाहर लाल नेहरू का देर से लिया गया निर्णय। इसी देरी ने पाकिस्तान को आक्रमण करने के सक्षम बनाया, जिसका परिणाम बाद में कश्मीर समस्या के रूप में निकला। नि:संदेह नेहरू एक महान व्यक्ति थे लेकिन सभी महान व्यक्तियों की तरह उनकी भी अपनी कमजोरियां थीं। शेख अब्दुल्ला के साथ उनकी नजदीकियों ने महाराजा हरि सिंह के मन में एक तरह का ‘डर’ पैदा कर दिया जो शेख द्वारा अपमानित नहीं होना चाहते थे। बहरहाल महाराजा ने तब तक प्रतीक्षा की, जब तक पाकिस्तान द्वारा  भेजे गए कबायलियों के हमले उनके दरवाजे तक नहीं पहुंच गए। इसके बाद रियासत को भारत में शामिल करने संबंधी समझौते पर हस्ताक्षर किए गए मगर एक कीमत पर क्योंकि नेहरू को उनके करीबी सहयोगियों ने गुमराह किया। 

सम्भवत: ‘कश्मीर का शेर’ शेख अब्दुल्ला सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष नहीं थे। उन्होंने जम्मू व लद्दाख या ङ्क्षहदू तथा बौद्धों की जरा भी परवाह नहीं की। उनकी चिंता मुख्य रूप से घाटी के मुसलमानों के लिए थी। उन्होंने भारत में शामिल होने का विकल्प इसलिए चुना क्योंकि उनके लिए पाकिस्तान में कोई जगह नहीं थी। उन्होंने जिन्ना तथा उस देश के अन्य नेताओं के साथ अपने संंबंधों को समाप्त कर दिया था। 

स्वायत्तता के नाम पर रियायतें 
यदि कश्मीर समस्या बना तो उसका कारण यह था कि भारतीय नेताओं ने एक काल्पनिक दुनिया में रहना चुना। हमें नहीं पता था कि कैसे एक ‘मुस्लिम बहुल’ राज्य के साथ निपटना है। हमने निजी कारकों को राष्ट्रीय मुद्दों का निर्धारण करने की इजाजत दी। हमने सोचा कि स्वायत्तता के नाम पर रियायतें ही रियायतें देकर कश्मीरी मुसलमानों की वफादारी खरीदी जाए। दो राष्ट्रों के सिद्धांत के कारण विभाजन के पश्चात भी हमने अनुच्छेद 370 लागू करके जम्मू-कश्मीर के ‘अलगाव’ को स्वीकार किया। यह एक बहुत बड़ी गलती थी। हम बहुत आगे चले गए। हमने गोवा, नागालैंड, मिजोरम तथा कुछ अन्य राज्यों को भी रियायतें दीं लेकिन केवल कश्मीर घाटी अतृप्य बनी रही। इसकी स्वायत्तता की मांग समय के साथ अलगाव के लिए मांग में बदल गई। शीर्ष नेताओं की यही गलती थी कि उन्होंने आवेश तथा पूर्वाग्रहों को राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर हावी होने दिया। अपनी अतीत की गलतियों के लिए हम पहले ही बहुत भारी कीमत चुका चुके हैं। 

शेख अब्दुल्ला पर अनावश्यक निर्भरता
कश्मीर में यह शेख पर अनावश्यक निर्भरता ही थी, जिसने हमें इस अप्रिय स्थिति में पहुंचा दिया। नि:संदेह शेख अपने लोगों में एक बड़े नेता थे। यह उन्हें ‘नायक’ बनाने का कोई कारण नहीं था। इसके बावजूद उन्होंने ‘भारतीय’ बुलाए जाने से इंकार कर दिया। विडम्बना देखिए कि आज उनके मकबरे में उनकी रक्षा एक भारतीय रैजीमैंट करती है। एक पूरे परिदृश्य में कश्मीर की स्थिति अत्यंत विस्फोटक है क्योंकि पाकिस्तान, जो अब हक्का-बक्का रह गया है, निरपवाद रूप से छद्म युद्ध के अपने पुराने खेल खेल रहा है और घाटी में सीमा पार से प्रशिक्षित आतंकवादियों को भेजने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहा है। 

भारतीय सत्ता अधिष्ठान को यह एहसास करने की जरूरत है कि इसे संदिग्ध राजनीतिज्ञों द्वारा निर्देशित नहीं किया जाना चाहिए, न ही ऐसी पाॢटयों द्वारा जो केवल साम्प्रदायिक सोच पर आधारित हैं, बल्कि हमारी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा से। दरअसल ऐसे राजनीतिज्ञों, जिन्हें आमतौर पर अधिकतर मामलों की जानकारी नहीं होती, ने न केवल लोगों को असमंजस में डाला है बल्कि समझौते, राजनीतिक तथा सामाजिक, की सामान्य प्रक्रिया को भी असम्भव बनाया है। वे प्रत्येक पेचीदा समस्या को सामान्य की तरह कमजोर बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। 

हमें अतीत के अनुभवों से सीखना होगा। हमें अपनी विरासत तथा सभ्यता के मूल्यों पर गर्व करना चाहिए। कश्मीर को लेकर भारत के स्टैंड के कुछ भी प्रतिकूल नहीं होना चाहिए। उन्हें भारत की उपलब्धियों, इसकी समझ तथा सहनशीलता को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए जो ‘इस्लाम को फलने-फूलने’ के लिए जगह उपलब्ध करवाती हैं। यहां तक कि एक पाकिस्तानी विद्वान डा. अकबर अहमद ने कहा था कि ‘यह भारत में था कि ङ्क्षहदू सभ्यता के साथ सम्पर्क में रहते हुए इस्लाम फला-फूला’। 

आगे देखते हुए, घाटी में लोगों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कोई शार्टकट नहीं हो सकता। पाक प्रायोजित आतंकवाद की बंदूकों को चुप कराने के लिए शांतिपूर्ण प्रक्रियाएं विकसित करनी होंगी। इस उद्देश्य के लिए एक कीमत तथा व्यक्तियों, मामलों तथा मुद्दों के प्रति एक दृढ़ निश्चय रवैया होना चाहिए। यही एक नया कश्मीर बनाने हेतु मोदी सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है।-हरि जयसिंह

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