‘पाकिस्तान एक सुन्दर स्त्री है, जिसे स्वयं को सर्वाधिक कीमत देने वाले के पास बेचना चाहिए’

Edited By ,Updated: 09 Dec, 2020 04:47 AM

pakistan is a beautiful woman who should sell to the highest payer

‘‘लगभग एक साल बाद मैंने एक और लेख लिखा जिसका शीर्षक था, ‘अब्दुल्ला के कश्मीर में हांडी को पकने दीजिए’ (यह भी साजिश मामले के रिकार्ड में है) इस लेख में मैंने यह सलाह दी थी कि अब हम यू.एन. के आब्जर्वरों की मौजूदगी में जंगबंदी

‘‘लगभग एक साल बाद मैंने एक और लेख लिखा जिसका शीर्षक था, ‘अब्दुल्ला के कश्मीर में हांडी को पकने दीजिए’ (यह भी साजिश मामले के रिकार्ड में है) इस लेख में मैंने यह सलाह दी थी कि अब हम यू.एन. के आब्जर्वरों की मौजूदगी में जंगबंदी का उल्लंघन नहीं कर सकते, अब हमारे लिए सही और आवश्यक कार्यप्रणाली, मकबूजा कश्मीर में भारतीय कब्जे के खिलाफ उनकी अंदरूनी आजादी के आंदोलन को मजबूत बनाने और इसमें वृद्धि करने के लिए लोगों का सहयोग करना है। इस पर भी कोई कार्रवाई नहीं की गई और सत्तारूढ़ लोग यू.एन. के पास अपनी अर्जी को दोहराने तक ही संतुष्ट नजर आए।’’

‘‘लेकिन फिर एक बार यह बात किसी भी समझदार व्यक्ति के सामने यह स्पष्ट थी कि यदि स्थिति ज्यों की त्यों रहे तो यू.एन. कुछ नहीं कर सकेगा। जंगबंदी की संधि में यू.एन. ने भारत द्वारा रायशुमारी न करवाने पर किसी कार्रवाई का वायदा नहीं किया था, और इसके अतिरिक्त यू.एन. के लिए इससे अधिक करने के लिए कुछ बाकी ही नहीं था। भारत को इस बात पर खुशी थी कि मामला ज्यों का त्यों है क्योंकि उसे वह सब कुछ मिल गया था जिसकी उसे इच्छा थी। पाकिस्तान किसी भी तरीके से भारत को धमकी नहीं दे रहा था और कश्मीर में अंदरूनी आजादी के आंदोलन की सहायता न करते हुए अमन के लिए कहीं भी कोई खतरा नहीं था। अत: यू.एन. के दखल के लिए कोई औचित्य नहीं था।’’ 

‘‘इन मामलों में मेरा दृष्टिकोण अब तक काफी सामने आ चुका था। इन्हें छुपाने का कोई कारण नहीं था और मेरे लिए सही बात फौज को छोड़ना ही था। असल में मैंने दो बार अपनी जिस इच्छा को प्रकट किया तो मुझे बताया गया कि इस समय जो स्थिति थी, उस समय मैं ऐसा करूं तो मुझे गद्दार ठहराया जाएगा। फिर भी इस चीज ने मुझे त्याग पत्र देने से रोका था वह यह थी कि वह सेना से बाहर कश्मीर के मसले के लिए मेरे पास कुछ करने की संभावनाएं काफी कम थीं, कायद-ए-आजम का देहांत हो चुका था। वजीर-ए-आजम लियाकत अली खान उमंग पूर्ण और हमदर्द थे, लेकिन इनके आसपास मौजूद सलाहकार सावधानी और विलंब की वकालत करते थे।’’ 

‘‘दिसम्बर 1950 में मुझे तरक्की देकर मेजर बनाया गया और साथ ही मुझे जनरल हैडक्वार्टर पिंडी में चीफ ऑफ दी जनरल स्टाफ बना दिया गया। उस समय जनरल अयूब खान डिप्टी कमांडर इन चीफ और कुछ सप्ताहों में कमांडर इन चीफ के रूप में अपनी पदवी संभालने वाले थे। मैंने खुले तौर पर उनके सामने इस बात का उलेख किया कि न तो मेरी तरक्की और न ही चीफ आफ दी जनरल स्टाफ के रूप में मेरी नियुक्ति कश्मीर के मामले पर सरकार के साथ मेरे ज्ञात विभिन्न मत के कारण उचित है। 

उन्होंने कहा कि उन्होंने स्वयं मेरे लिए इसकी बेनती की थी इसलिए मुझे इस नियुक्ति को कबूल करना होगा। मुझे ऐसा लगा कि मैं कुछ नहीं कर सकूंगा। हालांकि दो विषयों के बारे में मुझे पूरा यकीन था। एक यह कि हर महीने के विलंब का मतलब कश्मीर के ताबूत में एक कील और ठोकना है और दूसरा यह कि न तो जनरल अयूब खान और न ही उस समय की सरकार इसके समाधान के लिए कुछ करने का इरादा रखती है। रूस की विस्तारवादी आशंका अधिक समझ में आती थी और यह मौजूद भी थी लेकिन उसका रुख ईरान की दिशा में था क्योंकि परम्परावादी रूस को अरब सागर में बसरे जैसी बंदरगाह की आवश्यकता थी और ईरान के अथाह तेल के भंडारों से पश्चिमी शक्तियों को वह वंचित रखना भी चाहता था।’’ 

‘‘असल में उस समय पश्चिमी ताकतों को सोवियत यूनियन और चीन को घेरे में लेने के लिए हवाई अड्डे के एक घेरे की आवश्यकता थी। पश्चिम में इस प्रकार के अड्डे हों या कि पश्चिमी यूरोप में। दूर पूर्व में जापान, फारमूसा और फिलीपींस ऐसा कर सकते हैं। लेकिन बीच में कोई और इलाका नहीं देखा गया। तुर्की और ईरान रूस की मार में आने वाली सीमा रखते हैं वह अधिक सुरक्षित नहीं हो सकते। अफगानिस्तान न तो इसका इच्छुक होगा और न ही उसके लिए सुरक्षित होगा। मिस्र (उस समय शाह फारूक के अधीन) बहुत दूर था। इस वजह से केवल भारत-पाक उपमहाद्वीप यहां पर हद और हिफाजत दोनों संभव थे, भारत ने पूर्व पश्चिम की शक्ति की लड़ाई में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया था और पाकिस्तान में जनता आमतौर पर विदेशी ताकतों से किसी जुड़ाव की आशा नहीं रखती थे।’’ 

‘‘मैंने ब्रिगेडियर हबीब उल्लाह (बाद में लैफ्टिनैंट जनरल) से यह ख्याल सुना था कि ‘पाकिस्तान एक सुन्दर स्त्री की तरह है जिसे अपने आप को सबसे ज्यादा कीमत देने वाले को बेचना चाहिए।’ आखिरकार अमरीका के साथ हमारे संबंध इस प्रकार के वक्तव्य से बहुत दूर नहीं थे। अधिक काबिले कबूल कारण जो धीरे-धीरे बढ़ता गया वह यह था कि कश्मीर को आजाद करने के लिए हमें भारत से अपनी रक्षा के लिए ताकत चाहिए। परन्तु 12 साल के कर्जों, सहायता, हथियारों और गोला-बारूद के ढेरों ने जनरल अयूब खान को 1965 में 17 दिनों से अधिक लडऩे के काबिल नहीं बनाया।’’ 

‘‘23 फरवरी 1951 मेरे घर पर आखिरी मीटिंग आयोजित हुई जो कि पिंडी साजिश केस के तौर पर मशहूर हुई। उस समय अन्य लोगों के साथ पाकिस्तान टाइम्स के एडीटर फैज अहमद फैज और मोहम्मद हसीब हता मौजूद थे। 7 घंटों के विचार-विमर्श के बाद इस मीटिंग में फैसला किया कि प्रस्तावित कार्रवाई को वापस नहीं लिया जाए।’’-पेशकश: ओम प्रकाश खेमकरणी
 

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