‘पनामा पेपर्स’ का खुलासा शक्तिशाली लोगों के लिए ‘बिजली का झटका’ लगने जैसा

Edited By ,Updated: 16 Apr, 2016 01:15 AM

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जर्मनी के म्यूनिख शहर में आधारित खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय महासंघ आई.सी.जे. एवं इंडियन एक्सप्रैस इस बात के लिए शाबाश के हकदार हैं कि ...

(हरि जयसिंह): जर्मनी के म्यूनिख शहर में आधारित खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय महासंघ आई.सी.जे. एवं इंडियन एक्सप्रैस इस बात के लिए शाबाश के हकदार हैं कि उन्होंने टैक्स चोरों की शरणस्थली पनामा में विश्व भर के शक्तिशाली लोगों द्वारा जमा करवाई गई भारी-भरकम अवैध राशियों का खुलासा बहुत ही पराक्रम भरे प्रयास द्वारा किया है। 

 
वैसे यह भी कोई लुकी-छिपी बात नहीं कि विश्व भर में फैली टैक्स चोरों की ऐसी अनेक शरणस्थलियां हैं जो धनवान लोगों और व्यावसायिक संस्थानों को अवैध धन से कमाई गई उनकी दौलत जमा करने का सुरक्षित रास्ता उपलब्ध करवाती हैं और इस प्रकार उन्हें अपने-अपने देशों के टैक्स अधिकारियों और सरकारों के कोप से बचाती हैं। इन टैक्स शरणस्थलियों में पनामा हाल ही के वर्षों में पसंदीदा लक्ष्य के रूप में उभरा है जोकि व्लादिमीर पुतिन, डेविड कैमरन एवं नवाज शरीफ जैसे प्रसिद्ध वैश्विक नेताओं की कमाई की शरणगाह बन गया है। इस सूची में 500 से अधिक ऊंची पहुंच रखने वाले भारतीयों के नाम भी हैं।
 
वैसे ये खुलासे अपने-आप में कोई बहुत आश्चर्यजनक बात नहीं है लेकिन फिर भी हम इस बात से आत्म सांत्वना हासिल कर सकते हैं कि कभी दुनिया भर के क्रांतिकारियों के आदर्श रह चुके माओ त्से-तुंग के चीन के कम से कम 22 हजार नागरिकों का नाम भी पनामा के काले धन की सूची में शामिल है। इस सूची में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साले सहित पूर्व प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ का पुत्र और ली-पिंग की बेटी भी शामिल है। 
 
हमारी नजरों में तो ‘पनामा पेपर्स’ का सार्वजनिक होना हर प्रकार के शक्तिशाली लोगों को बिजली का झटका लगने जैसा है। पनामा में काले धन का प्रबंधन करने वाले लोग जानते हैं कि भारत जैसे देशों में चुनाव प्रक्रिया कितनी भारी मात्रा में काले धन का सृजन करती है। वे यह भी जानते हैं कि हमारी टैक्स प्रणाली कितनी असंतुलित है और इस देश की कार्य संस्कृति में ‘बेनामी’ और लालची तत्वों की कितनी गहरी घुसपैठ है तथा माफिया एवं कारोबारी जगत में कितनी गहरी नैटवर्किंग चलती है। 
 
भारत से बाहर जाने वाले काले धन का बहुत बड़ा हिस्सा पनामा के पाताल लोक में पहुंचता है। 90 के दशक में लंदन में स्वराजपाल ने मुझे बताया था, ‘‘एन.आर.आई. बैंक खातों के बारे में भूल जाएं। मेरे अध्ययन ने मुझे बताया है कि भारतीयों द्वारा विदेशी बैंकों में अवैध रूप में जो पैसा जमा करवाया गया है उससे 5 से लेकर 7 पांच वर्षीय योजनाओं का वित्त पोषण किया जा सकता है।’’
 
विकीलीक्स द्वारा एक पूर्व खुलासे से यह रहस्योद्घाटन हुआ है कि भारत से बाहर भेजे गए काले धन का आंकड़ा 462 अरब डालर (यानी कि  20 लाख करोड़ रुपए) तक पहुंच चुका है। यह राशि 1948 से लेकर 2008 के बीच अवैध रूप से भारत से बाहर भेजी गई। उस समय विशेषज्ञों ने कहा था कि यह राशि भारत की जी.डी.पी. के 40 प्रतिशत के बराबर बनती है। उसके बाद इस संबंध में कई अन्य शोध दलों ने भी काम किया। उसके बावजूद सब कुछ पहले की तरह जारी है। 
 
यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 वर्ष पूर्व वायदा किया था कि वह विदेशों से इतना काला धन वापस लाएंगे कि प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए आ जाएंगे। यह शेखचिली का सपना पता नहीं कब सच होगा या होगा भी कि नहीं? इसी बीच गलियों-नालियों में रेंग रही जिंदगी, घोर गरीबी और दरिद्रता, करोड़ों युवाओं की बेरोजगारी, जल संकट और अकाल, गांव-देहात से रोजगार के लिए किसान परिवारों का शहरों की ओर पलायन बिल्कुल पहले की तरह जारी है। लेकिन धन्ना सेठों की तड़क-भड़क भरी जिंदगी भी यथावत चल रही है। 
 
 जब दो वर्ष पूर्व नरेंद्र मोदी ने 7, रेसकोर्स रोड में ‘गृह प्रवेश’ किया था तो उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों से अलग प्रकार का शासन देने का वायदा किया था। तब हम लोगों ने उनके वायदों पर ऐतबार किया था क्योंकि हमारे सामने ऐतबार करने के लिए और कुछ था ही नहीं। तब भारत के लोगों को लगा था कि उन्हें कुछ कर दिखाने वाला नेता मिल गया है। 
 
एक आकलन के अनुसार भारत से बाहर जाने वाली अवैध कमाई प्रतिवर्ष 11.5 प्रतिशत की दर से बढ़ती जा रही है। जब काले धन की एक शरणस्थली बेनकाब होती है तो हमारे टैक्स चोर नई शरणस्थली का रुख कर लेते हैं। अनेक वर्षों से यह सिलसिला जारी है और इसके साथ ही काले धन पर अंकुश लगाने का शोर भी मचता रहता है। यह देखना बहुत दिलचस्पी भरा होगा कि इस मुकाबले में कौन किसको पटखनी देता है। 
 
विदेशों में जमा अवैध पूंजी का लगभग 50 प्रतिशत भाग 1991 के बाद ही गया है। इतनी भारी-भरकम राशियां केवल इसलिए देश की अर्थव्यवस्था में से गुम हो जाती हैं कि हमारी गवर्नैंस की प्रणाली एवं चुनाव प्रक्रिया में आधारभूत त्रुटियां हैं। इसके साथ ही संसदीय संस्थानों एवं न्यामिक संस्थाओं की नीतियों, आकलनों व कार्यान्वयन में भी गंभीर नुक्स हैं जिनके चलते अरबों-खरबों का काला धन सृजित होता है और अवैध रूप में देश से बाहर निकाला जाता है। ऐसा लगता है कि सभी नियामक एजैंसियां दंतविहीन बन कर रह गई हैं। जहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपनी विश्वसनीयता भी दाव पर लगी हुई है, जोकि गत कुछ समय से तेजी से नीचे खिसक रही है। 
 
इस वातावरण में भी वित्त मंत्री अरुण जेतली कुछ उम्मीद की किरण बंधाते लगते हैं क्योंकि उन्होंने इस बात को रेखांकित किया है कि पनामा में जमा काले धन की सूची में जिन 500 से अधिक भारतीयों के नाम शामिल हैं उनकी जांच-पड़ताल करने के लिए जिस बहु एजैंसी ग्रुप का वायदा किया गया है उसमें शामिल लोग भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। जेतली के दृष्टिकोण से अभी भी यह उम्मीद जगती है कि मोदी सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से अलग तरह की सिद्ध होगी।         
 
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