‘लोग ब्लेम गेम देखने की इच्छा नहीं रखते’

Edited By ,Updated: 19 Dec, 2020 04:54 AM

people don t want to watch the game

कानून एवं न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने लोकतंत्र की अवधारणा को बड़ी खूबसूरती से परिभाषित किया है। उन्होंने एक हालिया इंटरव्यू के दौरान कहा, ‘‘लोकतंत्र अंतत: संवाद है, लोकतंत्र अंतत: अनुनय है। लोकतंत्र अंतत: बाहर पहुंच रहा है।’’ इस संदर्भ में...

कानून एवं न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने लोकतंत्र की अवधारणा को बड़ी खूबसूरती से परिभाषित किया है। उन्होंने एक हालिया इंटरव्यू के दौरान कहा, ‘‘लोकतंत्र अंतत: संवाद है, लोकतंत्र अंतत: अनुनय है। लोकतंत्र अंतत: बाहर पहुंच रहा है।’’ इस संदर्भ में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का उल्लेख किया है। वह बोले, ‘‘सुनो और बोलो।’’ उन्होंने दावा किया कि पिछले 20 वर्षों के दौरान ऐसा ही चल रहा है। 

मैं निजी तौर पर रविशंकर प्रसाद को जानता हूं जब वह दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ थे। शंकर पूरी तरह से भाजपा की विचारधारा तथा उसकी नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध हैं। हालांकि वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान वह थोड़ा अलग थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियों के प्रति प्रसाद अधिक स्पष्ट हैं। इसीलिए वह मोदी के अधिक चहेते हैं। जिस तरह से उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किसानों के मुद्दे को समझाना चाहा है उसी से रविशंकर प्रसाद के बारे में स्पष्ट हो जाता है क्योंकि पहले भी मैं इसके बारे में अपने आलेख में चर्चा कर चुका हूं। इस कारण मैं इसके बारे में और चर्चा नहीं करना चाहता। मैं मोदी प्रशासन के अंतर्गत लोकतंत्र के कार्यों से निपटने की चर्चा करना चाहता हूं। मोदी प्रशासन के तहत मंत्रियों के शब्दों और जमीनी स्तर पर उनकी कार्रवाइयों में बहुत अंतर है। 

कहने का तात्पर्य यह है कि भाजपा नेतृत्व की गुणवत्ता को उजागर करना नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में मुख्य रूप से यह भारत के शासन का पैट्रन रहा है। यह सामान्यकृत कथन नहीं है लेकिन यह नजदीकी निगरानी पर आधारित है। पी.एम. मोदी के शासन में अफसोसजनक बात जमीनी स्तर की प्रतिक्रिया का अभाव होना है। किसानों का मुद्दा इसकी चकाचौंध उदाहरण है। यहां तक कि सुप्रीमकोर्ट ने भी 16 दिसम्बर को कहा कि केंद्र सरकार तथा किसानों में तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को लेकर जमीनी स्तर पर वार्ता काफी हद तक हुई है मगर फिर भी असफल होने के लिए बाध्य हुई है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि केंद्र तथा किसानों के संगठनों के प्रतिनिधियों की एक कमेटी का गठन हो और वह इस मुद्दे को सुलझाने का प्रयत्न करे। यह बात नेताओं की गुणवत्ता में गिरावट को रेखांकित करती है। एक विकासशील राजनीति के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि क्या हम इस प्रक्रिया को उलट सकते हैं? हां हम ऐसा कर सकते हैं। बशर्ते हम हिम्मत बटोर सकें और अवांछनीय पात्रों को सार्वजनिक क्षेत्र से बाहर रखने का साहस करें परन्तु यह एक आसान लक्ष्य नहीं है। मेरा मानना है कि विभिन्न त्रासदियों जो कुछ मानव निर्मित हैं और कुछ प्रकृति के प्रकोप का हिस्सा हैं, के बीच लोगों का चेहरा लचीलेपन वाला है। यह दुखद बात है कि राजनीतिक और प्रशासनिक प्रणाली लोगों की नंगी न्यूनतम अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सकी। यहां पर सवाल न्यूनतम सांझा प्रोग्राम का नहीं है जिसका उपयोग गरीब तथा दलित लोगों को लुभाने के लिए राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल हुआ है। 

यह वही पुरानी कहानी रही है। एक बार सत्ता की स्थिति तथा आज के शासक चाहे उनका राजनीतिक रंग कुछ भी हो, आमतौर पर अपने व्यक्तिगत एजैंडे में व्यस्त रहते हैं। वे निराशा, उथल-पुथल और अनिश्चितताओं के निशान को पीछे छोड़ जाते हैं। इस संदर्भ में मुझे प्रधानमंत्री के तरीके से अक्सर निराशा होती है। मोदी आज के कार्यों को छोड़ कर पीछे की ओर चले गए हैं। आर.एस.एस.- भाजपा के नेतृत्व से लोग क्या आशा रखते हैं, लोग एक तेज भावना और दूरदर्शी नेतृत्व चाहते हैं। लोग सत्ताधारी सरकार तथा विपक्ष के बीच में ‘ब्लेम गेम’ को देखने की इच्छा नहीं रखते। 

आजादी से पहले और उसके फौरन बाद विभिन्न राजनीतिक समूहों से संबंध रखने वाले नेता आम लोगों की जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित करते रहे। वे लोग सिद्धांतों तथा विचारों के व्यक्ति थे। आज वे सब मिट्टी में मिल गए हैं। पंडित मदन मोहन मालवीया, बाल गंगाधर तिलक, मोती लाल नेहरू, महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, आचार्य जे.बी. कृपलानी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल तथा अन्य प्रख्यात व्यक्ति आशाओं तथा अपेक्षाओं के साथ जीवित थे। इसी तरह से जयप्रकाश नारायण भी थे। 

समय के साथ-साथ अपना आप न्यौछावर कर देने वाले नेताओं की छवि नाटकीय रूप से बदल गई है। आजकल के वर्तमान नेता अपने सही रंग में दिखाई देते हैं। वे सत्ता की लालसा रखते हैं। शायद आज लोगों ने यह महसूस किया है कि यह सब रेत के पैरों पर खड़े हैं। क्या हम ऐसी स्थिति से पार पा लेंगे? मुझे आशा है कि हम ऐसा कर सकते हैं मगर इसे करने के लिए हमें अपनी उम्मीदें जीवित रखनी होंगी और हमें अपने आप को सिस्टम में डुबोना नहीं होगा। इस संदर्भ में मुझे कहना चाहिए कि आज के कुछ युवा नेताओं से हमें बहुत आशाएं हैं।-हरि जयसिंह 
 

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