पुलिस के कठोर जीवन के प्रति लोगों की ‘सहानुभूति’ भी होनी चाहिए

Edited By ,Updated: 12 Sep, 2020 04:26 AM

people should also have  sympathy  for the harsh life of the police

12 अगस्त को एक एन.जी.ओ. प्रजा के संस्थापक तथा चेयरमैन व मेरे युवा दोस्त नितई मेहता ने कोविड लॉकडाऊन के दौरान पुलिस की भूमिका पर एक वैबीनार में शामिल होने के लिए मुझे आमंत्रित किया। क्या पुलिस की भूमिका महामारी के नियंत्रण

12 अगस्त को एक एन.जी.ओ. प्रजा के संस्थापक तथा चेयरमैन व मेरे युवा दोस्त नितई मेहता ने कोविड लॉकडाऊन के दौरान पुलिस की भूमिका पर एक वैबीनार में शामिल होने के लिए मुझे आमंत्रित किया। क्या पुलिस की भूमिका महामारी के नियंत्रण के बाद बदलेगी? मेरे अलावा नितई ने एक कार्यरत पुलिस अधिकारी नवल बजाज जोकि ज्वाइंट सी.पी. (प्रशासन) मुम्बई को भी आमंत्रित किया गया। बजाज को पूरा सम्मान मिला। उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से बात की जिसका कुछ मकसद था। नितई ने कई वैबीनार का आयोजन किया जो 11 अगस्त से शुरू हुए और इनकी समाप्ति स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पूर्व हो गई। वहां पर अर्बन प्लॉनर शिरीष पटेल की बात भी सुनी गई जिससे पाठकों को भी अवगत करवाना चाहूंगा। साधारण तौर पर यह बेहद शानदार थी। 

इसी विषय पर एक अन्य वैबीनार को एक निजी संगठन ने 29 अगस्त को आयोजित किया। इसमें डी.जी.पी. बिहार, छत्तीसगढ़, केरल, सिक्किम तथा आर.पी.एफ. ने भाग लिया। केरल के पुलिस प्रमुख बहरा ने महामारी के ऐसे मौके पर एक आम बात का समर्थन किया तथा छत्तीसगढ़ के डी.जी.पी. अवस्थी ने मानवीय मन को भीतर बसाने वाली पुलिस पर जोर दिया और कहा कि लॉकडाऊन नियमों को लागू करने के लिए कभी भी लाठी का प्रयोग न किया जाए। 

महामारी के दौरान पुलिस जिसकी भूमिका गैर-निजी होने की होती है उसने लोगों की ओर अपने झुकाव का एक बेहतरीन उदाहरण दिया। इस दौरान नितई ने फोन पर लोगों से पुलिस के बारे में कहा कि क्या वह जरूरी वस्तुएं जैसे चावल, आटा, दाल, चीनी, नमक, तेल तथा चाय को उन लोगों में वितरित कर सकती है जिन परिवारों ने अपना रोजगार खो दिया तथा विकल्प के तौर पर कोई दूसरा रोजगार चुन लिया। मेरे को-ट्रस्टी संजीव दयाल ने पुलिस में अपने सम्पर्क वाले लोगों से बात की। तत्काल ही हैडक्वार्टर ने एक डिप्टी कमिश्रर, जिसे कि बजाज ने नियुक्त किया था, राशन वितरण के लिए कहा। 

ऐसे मौकों पर पुलिस ने वाकई जरूरतमंद परिवारों तथा व्यक्तियों की मदद की। इस कार्य में 90 के करीब पुलिस स्टेशन जुड़े हुए थे। अधिकारियों को इस टास्क को पूरा करने के लिए विशेष हिदायतें दी गईं। नितई के लोगों ने एक करियाना स्टोर से खाद्य पदार्थों को जुटाया। 24 घंटों पूरे पुलिस प्रशासन ने सक्रियता दिखाई। सभी हिस्सेदारों ने लोगों का मन जीता। पुलिस द्वारा जो लोग भूख से बचाए गए उन सबने पुलिस की भूमिका की प्रशंसा की। 

यह एक मुम्बई ही नहीं थी जहां पर पुलिस ने मौके पर साहस दिखाया बल्कि पंजाब में भी मैंने एक समाचार पत्र के संपादक से बातें सुनीं कि पुलिस कर्मियों ने महिलाओं तक पका हुआ खाना उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी निभाई। इसके अलावा प्रवासियों को सूखा राशन तथा अन्य वस्तुएं वितरित कीं। महामारी के दौरान भूखे परिवार खाने को तरस रहे थे।  मैंने डी.जी.पी. दिनकर गुप्ता से पूछा कि क्या जो मैं सुन रहा हूं वह सही है? उन्होंने आंकड़े बताए जिसके बारे में वह निजी तौर पर एकत्रित कर रहे थे। 

पुलिस बल जिसका डर अच्छे दिनों में लोगों में समाया होता है, उसने अचानक ही लोगों को बचाने का कार्य किया। क्या इसे किसी महामारी या अन्य आपदा की जरूरत है कि यह कानून को लागू करने के लिए अपना मानवीय पक्ष दिखाए? महामारी के बाद पुलिसकर्मी फिर से अपनी साधारण ड्यूटियों को निभाने के लिए वापस भेजे जाएंगे जिसमें अपराध को रोकना तथा उसको जांचना, ट्रैफिक नियमों की पालना करवाना तथा सड़कों, गलियों पर कानून-व्यवस्था कायम करना शामिल है। उन्हें अपराधियों पर अंकुश भी लगाना पड़ेगा। ऐसे कार्यों को सरकार के किसी अन्य विभाग को सौंपा नहीं जा सकता। 

यहां तक कि लॉकडाऊन के दौरान भी नियमों तथा निर्देशों की पालना करवाना पुलिस का ही काम था। कुछ पुलिसकर्मी कड़े रुख वाले थे और कई बार तो नियम तोडऩे वालों के खिलाफ बेहद सख्त दिखाई दिए। ऐसे मौकों पर अपनी कार्य प्रणाली में बदलाव लाने के लिए उच्चाधिकारियों को अपने कर्मियों को प्रशिक्षित करना होगा ताकि ऐसे मौकों पर वह अपना नर्म रवैया अपनाएं। मैं पुलिसकर्मी के जीवन के एक पहलू को छूने की कोशिश करूंगा जिसने अपनी योग्यता के आधार पर ध्यान आकॢषत नहीं किया। महाराष्ट्र में 170 से ज्यादा पुलिसकर्मी जोकि मुम्बई शहर की गिनती के आधे हैं, वायरस के कारण पिछले 5 महीनों के दौरान मौत की नींद सो गए। 

जहां तक पुलिस वालों के कार्य करने के घंटों का सवाल है उनका जीवन वास्तव में ही अमानवीय है। दिमागी तथा शारीरिक तौर पर उनके पास प्रतिकूल परिस्थिति है। पुलिसकर्मी के कठोर जीवन के प्रति लोगों के पास कुछ तो सहानुभूति होनी ही चाहिए। हम उनसे भी यही आस रखते हैं कि दूसरों के प्रति वह भी सहानुभूति रखें। यदि सरकार यह विचार नहीं करती कि उसकी प्राथमिकता पुलिसकर्मी की दिनचर्या पर सर्वे करने की हो तो प्रजा जैसे जागरूक एन.जी.ओ. या फिर पी.सी.जी.टी. को इस तरह का शोध प्रारंभ करना होगा।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी) 
 

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