पुलिस में सुधार की तुरंत जरूरत

Edited By ,Updated: 24 Sep, 2021 04:10 AM

police reform urgently needed

बड़े राज्य महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री तथा राज्य की राजधानी मुम्बई के पूर्व पुलिस आयुक्त कानून के रखवालों को ‘वांटेड’ हैं। मजेदार बात यह है कि उन्हें खोजना नहीं है। वे फरार हैं। किसी भी अन्य मौके पर यह एक सनसनीखेज खबर होती लेकिन आज के भारत में लोग...

बड़े राज्य महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री तथा राज्य की राजधानी मुम्बई के पूर्व पुलिस आयुक्त कानून के रखवालों को ‘वांटेड’ हैं। मजेदार बात यह है कि उन्हें खोजना नहीं है। वे फरार हैं। किसी भी अन्य मौके पर यह एक सनसनीखेज खबर होती लेकिन आज के भारत में लोग इतनी परवाह नहीं करते। ऐसा क्यों? पुलिस पदानुक्रम में एक महत्वपूर्ण पद पर बैठे एक वरिष्ठ आई.पी.एस. अधिकारी तथा उसके राजनीतिक बॉस के बीच शक्ति प्रदर्शन बारे कुछ वर्ष पहले तक सोचा भी नहीं जा सकता था मगर समय बहुत तेजी से बदला है। केंद्र तथा राज्यों में प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दल अपने विपक्षियों को पद से हटाने या महज परेशान करने के लिए अपने नियंत्रण में पुलिस का दुरुपयोग करने के लिए जाने जाते हैं और ऐसे महत्वाकांक्षी पुलिस अधिकारियों की कभी कमी नहीं होती जो उन्हें उपकृत करने को तैयार रहते हैं। 

बदले में लोगों को परेशानी झेलनी पड़ती है। इस तरह की सोच वाले राजनीतिज्ञ तथा पुलिस अधिकारी लोगों की परवाह करते नहीं दिखते।  लोग अपने जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा के अधिकारी हैं। क्या उन्हें वह मिलती है? क्या वह एक ऐसे वातावरण में सुरक्षित महसूस करते हैं जहां शीर्ष राजनीतिज्ञ, जिन पर सुरक्षित माहौल उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी होती है तथा पुलिस प्रशासन के प्रमुख होते हैं। उन पर कानूनों को ताक पर रखने के आरोप लगते हैं, जो अपने पद को लेकर झगड़ों में व्यस्त रहते हैं तथा सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं। हम ऐसी स्थिति में कैसे पहुंचे? उत्तर साधारण है। कुछ दशकों के दौरान हमारे ब्रांड के कार्यशील लोकतंत्र ने धन शक्ति को यह निर्णय लेने की इजाजत दी है कि कौन शासन करेगा? राजनीति का अपराधीकरण हो गया है और इसके साथ ही पुलिस का राजनीतिकरण। इस जटिल समस्या को हल करने के लिए राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने की प्रक्रिया से पहले पुलिस का गैर-राजनीतिकरण करने की जरूरत है। 

पुलिस एक एजैंसी है जिसे कानून द्वारा अपराध रोकने तथा अपराधियों को न्याय के अंतर्गत लाने का काम सौंपा गया है। जब पुलिस अधिकारी भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के साथ मिल जाते हैं तो इस अपवित्र गठजोड़ के परिणाम  बारे भविष्यवाणी करना आसान है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण मुम्बई शहर में आपकी आंखों के सामने है। वह व्यक्ति जो मुम्बई के पुलिस आयुक्त की कुर्सी पर बैठा था और उसे उस समय अपने पद से हटा दिया गया था जब उसके एक करीबी पुलिसकर्मी, सहायक पुलिस इंस्पैक्टर, को देश के प्रमुख उद्योगपति मुकेश अंबानी के आवास के बाहर जिलेटिन की 20 छड़ों से लदी एक कार रखने का दोषी पाया गया। यह अपने करीबी या पालतू अधिकारियों की कार्रवाइयों पर नियंत्रण करने की अक्षमता का एक प्रत्यक्ष सबूत है जो सुपरवाइजरों के विभिन्न स्तरों को नजरअंदाज करते हुए सीधे उसे रिपोर्ट करता था। 

मगर जब उसे पद से हटाया गया, अपमानित शीर्ष पुलिस अधिकारी को खुशी नहीं हुई। स्वाभाविक है कि जो सौदा उसने अपने राजनीतिक बॉस के साथ किया था उसे उसके कनिष्ठ ने तोड़ दिया था और उसने वह किया जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। उसने राजनीतिज्ञों तथा पुलिस के बीच गठजोड़ का पर्दाफाश करने का फैसला किया। उसने मुख्यमंत्री को लिखे पत्र, जिसे प्रैस को जारी किया गया, में खुले तौर पर आरोप लगाया  कि गृहमंत्री ने सहायक इंस्पैक्टर को अपने आवास पर बुलाया तथा उसे हर महीने पार्टी खजाने को भरने के लिए डांस बार मालिकों से 100 करोड़ रुपए एकत्र करने का आदेश सुनाया था। यह पत्र समाचार पत्रों की सुर्खियों में छा गया। राजनीतिज्ञ-पुलिस-अपराधियों का गठजोड़ खुलकर सामने आ गया। तब तक इसका जिक्र केवल पूर्व अत्यंत सम्मानित केंद्रीय गृह सचिव एन.एन. वोहरा द्वारा तैयार ‘अत्यंत गोपनीय’ रिपोर्टों तथा सोसाइटी सर्कलों में ड्राइंग रूम चर्चाओं में किया जाता था। 

यदि लोगों को सुख की सांस लेनी है तो राजनीतिज्ञ, पुलिस, अपराधी गठजोड़ तोडऩा होगा। ऐसे गठजोड़ तब कमजोर हो जाते हैं जब पुलिस अधिकारी उच्च निष्ठा का तथा सक्षम हो। पुलिस अधिकारी राजनीतिज्ञों पर  कोई प्रभाव नहीं डाल सकते लेकिन वे अपने लोगों को अपराधियों पर नियंत्रण रखने के लिए दबाव डाल सकते हैं। ऐसे में अपराधी अपना महत्व दिखाना बंद कर देते हैं तथा जनता को राहत मिलती है। मुम्बई सिटी पुलिस का भाग्य अच्छा है कि इसके आयुक्तालय में मुख्यत: अच्छे अधिकारी रहे हैं। अधिक समय नहीं हुआ कि दत्ता पडसालगीकर (अब 3 डिप्टी एन.एस.ए. में से एक) तथा सुबोध जायसवाल (अब सी.बी.आई. निदेशक) जैसे अधिकारी इसमें थे। मगर क्यों शहर के लोगों को इस तरह के निष्ठावान लोगों का पक्ष नहीं लेने दिया जाता? निश्चित तौर पर आई.पी.एस. अधिकारियों की कोई कमी नहीं है। संभवत: कुछ राजनीतिक दलों की चुनावी बांड मनी तक बहुत कम अथवा बिल्कुल ही पहुंच नहीं है और उन्हें अपराधों तथा अपराधियों से भी धन इकट्ठा करना पड़ता है। 

एक सेवानिवृत्त नागरिक धर्मवीर की अध्यक्षता में 1977 के नैशनल पुलिस कमीशन ने इस स्थिति का समाधान करने के लिए कुछ सुझाव दिए थे। सुप्रीमकोर्ट ने अपने 2006 के प्रकाश सिंह मामले के निर्णय में आयोग के सुझावों से सहमति जताई थी तथा केंद्र व राज्यों को उन्हें लागू करने के निर्देश दिए। इसमें केंद्रीय सुझाव सही व्यक्तियों को चुन कर पुलिस का गैर-राजनीतिकरण करना था। यदि राजनीतिज्ञ और यहां तक कि नौकरशाह खुद अपने भविष्य बारे निर्णय लेने लगें, जैसा कि वर्तमान में है, दुविधा की स्थिति बनी रहेगी। 

कोई भी राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार पुलिस तथा विभिन्न इकाइयों जैसे कि सी.बी.आई. तथा एन.आई.ए. पर अपनी पकड़ नहीं छोड़ना चाहता। वह उनका इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए विपक्षी सरकारों को गिराने या कम से कम परेशान करने के लिए करना चाहते हैं। इससे पहले कि और अधिक नुक्सान हो जाए इसे रोकना होगा। राजनीतिक वर्ग तभी इस बारे सुनेगा यदि उनके चुनावी अवसरों को कोई नुक्सान पहुंचता हो। यदि लोग ऐसी पार्टियों को वोट नहीं देने की धमकी दें जो पुलिस को काम करने की स्वतंत्रता नहीं देते तो राजनीतिज्ञों का दिमाग सही हो जाएगा।-जूलियो रिबैरो पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)
 

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