डंडा घुमाती पुलिस, ‘थरथराती’ प्रजा

Edited By ,Updated: 08 Apr, 2020 02:47 AM

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एक तस्वीर में एक लड़के को पुलिस वाला मार रहा है। लड़के के हाथ में टिफिन है और वह कह रहा है कि वह अपने मां-बाप के लिए खाना लेकर जा रहा है, जो खेत में काम कर रहे हैं। कोरोना लॉकडाऊन के बीच इस तरह के कई सारे वीडियो और चित्र आते रहे  हैं। कहीं पुलिस के...

एक तस्वीर में एक लड़के को पुलिस वाला मार रहा है। लड़के के हाथ में टिफिन है और वह कह रहा है कि वह अपने मां-बाप के लिए खाना लेकर जा रहा है, जो खेत में काम कर रहे हैं। कोरोना लॉकडाऊन के बीच इस तरह के कई सारे वीडियो और चित्र आते रहे  हैं। कहीं पुलिस के लोग दिल्ली के आनंद विहार के पास अपने-अपने गांव को जाने वाली भीड़ पर डंडा चला रहे हैं, कहीं वे उनसे कान पकड़ कर उठक-बैठक करवाते हुए माफी मंगवा रहे हैं। एक जगह पर स्कूटर से अस्पताल जा रहे डाक्टर पर पुलिस वाला डंडा चला देता है और यह बताने पर कि वह डाक्टर है और ड्यूटी करने अस्पताल जा रहा है, उसे डांट कर कहता है कि पहले क्यों नहीं बताया। कोई डिलीवरी ब्वॉय है जिस पर पुलिस का हाथ छूट रहा है। 

कोरोना के समय यह काफी बढ़ा हुआ लगता है, पर पहले भी था। ऐसा कौन-सा आम आदमी है जो बहुत खुश होकर, बहुत उम्मीद और बहुत यकीन के साथ भारत के पुलिस थाने, सरकारी अस्पताल और अदालतों में जाता है। जिन्हें डंडे पड़ रहे हैं, वे अपराधी नहीं हैं। इन तस्वीरों में देखा जा सकता है कि वे लोग गरीब, असहाय, थके हुए, हारे हुए, परेशान और शायद भूखे भी हैं। कई तो अपने परिवार के साथ हैं, छोटे बच्चे, बूढ़ी मां और पत्नी। ये उन लोगों में से हैं, जिन्हें गांधी ‘कतार का आखिरी’ कहते थे। वे किसी शौक से और शायद जानबूझ कर कानून नहीं तोड़ रहे हैं। उन्हें न तो शायद कानून पता होता है, न उन्हें कोई बताता है, न उसके बीच जीने, रहने, बचने का रास्ता दिखाता है। जिनके हाथ में डंडे हैं और जो उन्हें चला रहे हैं, वे भी हम में से यानी जनता में से ही निकलकर वहां पहुंचे हैं। हमारे मोहल्लों, बिरादरी, इलाकों से ही आए हैं। हमारे साथ ही पढ़ते थे और हर मौके पर उनका बर्ताव ऐसा हो, यह भी जरूरी नहीं है। कई जगह पुलिस के लोग ही घर-घर राशन भी पहुंचा रहे हैं। कई जगह लोगों की मदद भी कर रहे हैं। कई जगह वे अकेले रह रहे बुजुर्गों का हाल-चाल भी पूछ रहे हैं। 

अपने-पराए का भेद
कई जगह पुलिस नागरिक और जनता को अपना मान रही है। बहुत जगह नहीं मान रही। किसी पर डंडा घुमाने से पहले शायद यही सोच होती होगी कि सामने वाले के साथ दुश्मनों की तरह पेश आओ। क्या कोई अपने घर-परिवार वालों, दोस्तों के घर वालों पर भी ऐसे ही हालात में डंडा चलाने लगेगा। डंडा कोई अपनेपन और प्यार में नहीं घुमाता। वह सामने वाले को पराया और दूसरा मानता है और एक तरह की नफरत और दुश्मनी भी रखता है। वह उनको औकात और हद में रखने के लिए ताकत का इस्तेमाल सही मानता है। हम कैसे किसी को दूसरा, पराया या अन्य मानना शुरू कर देते हैं। शायद तब जब हम अपने सामने मौजूद इंसान को वह दर्जा न दें, जो हमने खुद को दिया है। जब हम उससे बातचीत न कर सकें और उसे समझने की कोशिश न करें। हिंसा बातचीत के ब्रेक डाऊन से शुरू होती है। 

यह कैसे तय होता है कि मैं धरती और देश के लिए बिल्कुल वाजिब और सही हूं, जबकि सामने खड़ा इंसान, उसके बच्चे, उसके बूढ़े मां-बाप बोझ। उन बच्चों के बारे में नहीं सोचा गया जिन्होंने अपने मां-पिता पर पुलिस को अपना गुस्सा निकालते, गालियां देते और डंडे चलाते देखा। भारत में पुलिस क्योंकि अंग्रेजों की विरासत है इसलिए जनता उनके सामने हमेशा शक के घेरे में है, एक कटघरे में खड़ी हुई है, जिस पर भय और डंडे का राज कायम रहना सरकार को चलाने के लिए जरूरी है। यह टैम्पलेट (प्रारूप) बदला नहीं गया है। 

पुलिस खुद तनाव और दबाव की शिकार
निचले तबके की पुलिस खासी खीझ, गुस्से और थकान का भी शिकार होती है। जितनी हिंसा हम उन्हें लोगों पर निकालते देखते हैं, शायद वे खुद भी उसका शिकार होते हैं। उन पर काम का बोझ ज्यादा है। भारत में पुलिस की स्थिति पर एक रिपोर्ट कॉमन कॉज और सैंटर फार स्टडी आफ डिवैङ्क्षल्पग सोसाइटीज (सी.एस.डी.एस.) ने 2019 में जारी की थी। इसके मुताबिक भारत का पुलिस बल दुनिया में सबसे कमजोर है। जितनी संख्या पुलिस बल की होनी चाहिए, वह उससे 77 फीसदी ही है, यानी जरूरत का सिर्फ तीन चौथाई। 

हर दो में से एक पुलिस कर्मी ओवरटाइम कर रहा होता है, और दस में से आठ को ओवरटाइम का भुगतान नहीं मिलता। नागालैंड को छोड़कर बाकी राज्यों में उनके ड्यूटी आवर्स बहुत ज्यादा हैं। हर पांच में से तीन कर्मी सरकारी आवास सुविधा से नाखुश हैं। हर चार में से तीन कर्मियों को लगता है कि काम के बोझ से उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ रहा है। हर चार में से एक कर्मी की शिकायत है कि उनसे उनके अफसर घर के काम करवाते हैं। यह शिकायत अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के कर्मियों की तरफ से ज्यादा है। हर दो में से एक कर्मी कहता है कि उसे वीकली आफ नहीं मिलता। हर पांच में से दो कर्मियों का कहना है कि उनके अफसर उनके लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं। 

आरक्षित वर्ग के पदों की कई भॢतयां हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में खासी बकाया हैं। जबकि उनकी खुद की गरिमा, सहूलियतें और आश्वस्तिबोध मुश्किल में हो तो उनसे यह उम्मीद करना कि वे कानून की जद में रहकर व्यवस्था को तसल्लीबख्श तरीके से लागू कर पाएंगे, उनके साथ ज्यादती है। हालांकि यह भी सही है कि बीट कांस्टेबल जनता से कैसे पेश आएगा, यह उसके अफसर से तय होता है। वह अच्छा होगा तो नीचे का स्टाफ भी अच्छा होगा। उसके डंडे चलाने के पीछे उसके अफसरों की सूझ भी है। डंडा चलाने से पहले अगर वह सामने खड़े शख्स को अपने ही संविधान द्वारा संरक्षित नागरिक और इसी देश के प्यारे देशवासी की तरह देख ले तो शायद ऐसी जरूरत न पड़े। पहले पता नहीं चलता था पर अब कहीं न कहीं से कोई मोबाइल पर रिकार्ड कर ही लेता है। मनुष्य होने की जरूरत पुलिस वालों को बहुत ज्यादा है। थोड़ा खुद के साथ और जनता के साथ तो बहुत ही ज्यादा।-निधीश त्यागी
 

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