वकीलों की फीस देने में ‘असमर्थ गरीब’ सड़ते हैं जेलों में

Edited By ,Updated: 15 Nov, 2019 12:31 AM

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हाल में हुए खुलासे के बाद व्हाट्सएप के जरिए फोन टैपिंग का मामला व्यक्तिगत आजादी और निजता का बड़ा उल्लंघन माना जा रहा है और संसद में भी इस पर विपक्ष हंगामा करने की योजना बना रहा है। सभ्य समाज और अभिजात्य वर्ग इस पर जार-जार रो रहा है कि निजता के...

हाल में हुए खुलासे के बाद व्हाट्सएप के जरिए फोन टैपिंग का मामला व्यक्तिगत आजादी और निजता का बड़ा उल्लंघन माना जा रहा है और संसद में भी इस पर विपक्ष हंगामा करने की योजना बना रहा है। सभ्य समाज और अभिजात्य वर्ग इस पर जार-जार रो रहा है कि निजता के अधिकार का हनन हो गया, मानो प्रजातंत्र का चीरहरण हो गया है।

भारत सरकार इस मुद्दे पर बगलें झांक रही है। परंतु क्या आपको मालूम है कि पिछले कई दशकों से या यूं कहें कि आजादी मिलने के बाद से ही भारत की जेलों में जो लोग बंद रहते हैं उनमें हर तीन में से दो (68.7 प्रतिशत) विचाराधीन कैदी होते हैं जबकि केवल एक ही सजायाफ्ता? क्या आपको यह भी मालूम है कि इनमें से अधिकांश ‘बेचारे’ विचाराधीन कैदी जेल में ‘अपने हर अधिकार से वंचित’ केवल सलाखों के पीछे इसलिए हैं क्योंकि इनके पास वकीलों को देने के लिए पैसे नहीं होते?

क्या आपको यह भी ज्ञात है कि महीनों और वर्षों जेल में पड़े रहने वाले इन विचाराधीन कैदियों में दो-तिहाई अदालत से निर्दोष करार दिए जाते हैं यानि उन्हें गांधी के इस आजाद, प्रजातांत्रिक और गणतांत्रिक व्यवस्था में मुल्क का सिस्टम बिना किसी कसूर के सारे अधिकारों से वंचित करता हुआ बंद सलाखोंं के पीछे के बाड़े में ठूंस देता है? और शायद आप यह भी न जानते हों कि इन्हें जेल में ठूंसने वाली पुलिस या सिस्टम में बैठे लोग हर दस साल में वेतन आयोग की सिफारिश से अपनी तनख्वाह तो बढ़ा लेते हैं लेकिन अपने इस घिनौने कृत्य के लिए कभी भी प्रताडि़त नहीं होते? 

बिहार में 7 व्यक्ति जेल में तो एक ही सजायाफ्ता
कहने की जरूरत नहीं कि इनमें सबसे खराब स्थिति बिहार की है जहां ‘सुशासन’ के नाम पर एक ही सत्ता 15 साल से काबिज है। इस राज्य में अगर सात व्यक्ति जेल में हैं तो केवल एक ही सजायाफ्ता है, बाकी 6 विचाराधीन कैदी। इसकी एक व्याख्या यह हो सकती है कि बिहार की पुलिस बेहद सक्षम है और अपराध करने वाले को करने से पहले ही (पुलिसिया जुबान में ‘योजना बनाते’) पकड़ लेती है या अपराध के तत्काल बाद लेकिन यही तत्परता चार्जशीट दाखिल करने में या अभियोजन की गुणवत्ता बेहतर करने में गायब हो जाती है। 

इसका सबूत है उसी सरकारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) की रिपोर्ट जिसके अनुसार इस बदहाल राज्य में सजा की दर मात्र 9 प्रतिशत है यानि जो लोग पकड़े जाते हैं और महीनों जेल में विचाराधीन कैदी बन कर सड़ते हैं उनमें भी हर 10 में से केवल एक ही अदालत द्वारा दोषी पाया जाता है। इसके ठीक उलट समुन्नत केरल में कोई भी शासन-कांग्रेस का हो या फिर कम्युनिस्ट का-बगैर किसी ‘सुशासन’ के दावे के मानवाधिकार और विकास के हर पैरामीटर पर अव्वल है। अगर केरल पुलिस ने 10 लोगों को अभियुक्त या बंदी बनाया है तो उनमें से 9 को सजा मिलनी तय है क्योंकि ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार वहां सजा की दर 89 प्रतिशत है। 

निर्दोषों को पुलिस सारे अधिकारों से वंचित करती है 
वैसे तो भारत के संविधान के एकदम पहले 4 शब्द हैं ‘हम भारत के लोग’ लेकिन इन आंकड़ों से दिखाई देता है कि ‘गरीब हम’ जो वकील को फीस दे कर अपनी जमानत नहीं करा सकता, लिहाजा महीनों और सालों जेल में रहता है और ‘अमीर हम’ जो अपने फोन के संदेश दूसरे द्वारा ज्ञात होने को प्रजातंत्र का चीरहरण बताता है और संसद चिंतित हो जाती है, में विभेद है। संसद तो इस गरीब के वोट से बनती है और उसी से प्रजातंत्र का भव्य मंदिर चलता है लेकिन उस निर्दोष गरीब को पुलिस सारे अधिकारों से वंचित करते हुए ‘चंद पैसों’ के लिए जेल में बंद कर देती है तो प्रजातंत्र का चक्र कतई नहीं रुकता। अच्छे शासन या ‘सुशासन’ बेहतर कानून व्यवस्था और न्याय की पहली और अपरिहार्य शर्त है-विचाराधीन कैदियों के प्रतिशत में व्यापक कमी और सजा की दर में जबरदस्त वृद्धि। 

वैश्विक स्तर पर भी जो देश आर्थिक और प्रशासनिक रूप से पिछड़े हैं उनके यहां विचाराधीन कैदियों का प्रतिशत कुल कैदियों में लगभग बिहार जैसा ही है। उदाहरण के लिए सर्वाधिक विचाराधीन कैदी (प्रतिशत में) लीबिया में (90), सान मरीनो (83.3), बंगलादेश (81.3), पराग्वे (77.9) और बेनिन (75.8) हैं जबकि ब्रिटेन, स्पेन, रूस, स्कॉटलैंड, अमरीका और जर्मनी में क्रमश: 11.1, 14. 9, 18.4, 20.2, 21.6 और 21.9 प्रतिशत कैदी ही विचाराधीन की श्रेणी वाले होते हैं। इन संपन्न मुल्कों में सजा की दर भी 80 से 99.9 प्रतिशत रहती है (चीन में 99.9 प्रतिशत है)। 

चिंता यह नहीं है कि बेगुनाह गरीब आजाद भारत में भी गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं, बल्कि सोचने वाली बात यह है कि संविधान में 69 साल पहले किए गए वायदे, सबके लिए समान कानून और तथाकथित समुन्नत प्रजातंत्र (भारत को सबसे बड़ा प्रजातंत्र बताने वाले लोग) के बावजूद कैसे पुलिसिया राज किसी भी गरीब को जेल भेज कर मुकद्दमा चला देता है और कैसे अदालत से निर्दोष सिद्ध होने के बावजूद इस गरीब की जिंदगी, परिवार और उसके बच्चों का भविष्य बर्बाद करने वाला पुलिस या न्यायतंत्र चैन की नींद सोता हुआ अगले दिन फिर किसी गरीब के साथ वही सब कुछ करता है। 

केवल पुलिस की आलोचना करना गलत होगा
लेकिन यहां केवल पुलिस की आलोचना करना गलत होगा। वकील अधिकांश दिन कोई न कोई कारण बता कर तारीखों पर उपस्थित नहीं होते, चूंकि उनका मजबूत संगठन है, लिहाजा अदालतें रोजाना के बवाल से बचने के लिए उनसे टकराव नहीं लेतीं। जमानत के लिए गरीब पैसे के अभाव में वकील नहीं कर पाता और अदालतों में ऐसे मामले महीनों लंबित इसलिए रहते हैं क्योंकि देश में हर एक लाख की आबादी पर मात्र 2 जज हैं जबकि कम से कम 5 जज अपेक्षित होते हैं। फिर भारत में सत्ता के सामंती चरित्र का आज भी बने रहना, गरीबों में व्याप्त अशिक्षा से कानून की जानकारी न होना और पुलिस-सम्पन्न वर्ग की सांठ-गांठ से भी निर्दोषों को फंसाने का कुचक्र चलते रहना है।

उधर सिस्टम फंसाने वाले को सजा नहीं करता यानी पुलिस वाला बंद करके बच जाता है और उसके बाद पैसे ले कर साक्ष्य कमजोर करके दोषियों को बचा भी लेता है यानी दोनों हाथ में लड्डू। देश में प्रजातंत्र के अलमबरदारों को अपनी निजता के साथ इन गरीबों की त्रासदी पर भी उसी बुलंदी से आवाज उठानी चाहिए जिससे वे संभ्रांत वर्ग के मानवाधिकार हनन का या व्हाट्सएप खुलासे को लेकर उठा रहे हैं।-एन.के. सिंह
 

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