Edited By Punjab Kesari,Updated: 17 Jul, 2018 12:43 AM
कोलकाता भीषण गर्मी से बचने के लिए बारिश की आस लगाए बैठा है तो मंगलूरू में बाढ़ आई हुई है और मुम्बई 2005 के बाद फिर से अभूतपूर्व बारिश और बाढ़ का सामना कर रही है। यह हमारे शहरों में कंक्रीट के जंगल बनने और वर्षा के पैटर्न में बदलाव का परिणाम है। इस...
कोलकाता भीषण गर्मी से बचने के लिए बारिश की आस लगाए बैठा है तो मंगलूरू में बाढ़ आई हुई है और मुम्बई 2005 के बाद फिर से अभूतपूर्व बारिश और बाढ़ का सामना कर रही है। यह हमारे शहरों में कंक्रीट के जंगल बनने और वर्षा के पैटर्न में बदलाव का परिणाम है। इस स्थिति को लेकर जनता में आक्रोश है और लोग सरकार को कोस रहे हैं। वर्ष दर वर्ष यही स्थिति देखने को मिलती है। भगवान इन्द्र हमारी समस्याएं बढ़ा देते हैं। पश्चिमी और दक्षिणी भारत भीषण बाढ़ की चपेट में है। पानी घरों तक पहुंच गया है, स्कूल और कालेज बंद हैं, वायु और रेल सेवाएं बाधित हैं और सैंकड़ों यात्री फंसे हुए हैं जबकि पूरे देश में 9 प्रतिशत और पूर्वी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में 10 प्रतिशत कम वर्षा हुई है।
प्रश्न उठता है कि हमारे नेता केवल संकट के समय बाढ़ को प्राथमिकता क्यों देते हैं? वे बुनियादी सुझावों को लागू क्यों नहीं करते? हर वर्ष आने वाली इस समस्या के समाधान के लिए वे दीर्घकालीन उपाय क्यों नहीं करते? बाढ़, भूस्खलन और चक्रवात मेरे भारत महान में हर वर्ष अपना प्रकोप करते हैं। इस बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है किंतु इसका किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। सरकार का दृष्टिकोण आपराधिक उदासीनता और कामचलाऊ है। वह तब कदम उठाती है जब जनजीवन ठप्प हो जाता है या लोगों की जानें चली जाती हैं।
मानसून के दौरान हमारे नागरिक निकायों की इस संकट से उबरने के लिए तैयारियां न किए जाने के बारे में जितना कम कहा जाए अच्छा है। नालों की सफाई नहीं की जाती है, पेड़ों की छंटाई नहीं की जाती है, सड़कें खुदी हुई होती हैं, नहरों की गाद नहीं निकाली जाती है, भीषण वर्षा को ईश्वर की कृपा कहा जाता है किंतु इसके कारण हुआ नुक्सान मानव निर्मित है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारी नीतियां खराब भू-प्रबंधन पर आधारित हैंं और बाढ़ नियंत्रण उपाय अदूरदर्शी हैं। आपदा प्रबंधन के बारे में संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार देश का 67.4 प्रतिशत भाग बाढ़, साइक्लोन, तूफान आदि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का संभावित क्षेत्र है किंतु सरकार इस दिशा में कदम नहीं उठाती है और उसका दृष्टिकोण ‘की फरक पैंदा है’ वाला है।
हमारे राजनेता यह क्यों समझते हैं कि करोड़ों रुपए मंजूर करने से समस्या का समाधान हो जाएगा। वे यह नहीं समझते कि बाढ़ से निपटने के लिए दी गई राशि का उपयोग अधिकतर राज्य सरकारें लोगों की सहायता करने और आपदा प्रबंधन की बजाय अन्यत्र खर्च करती हैं। नगर निकायों के अधिकारी अपनी जेब भरते हैं। विभिन्न निकायों के बीच समन्वय का अभाव है। दिल्ली में 5 स्वतंत्र नगर निकाय हैं। लोक निर्माण विभाग राज्य सरकार के अधीन है तो पुलिस बल केन्द्र सरकार के अधीन है। इसके चलते दिल्ली में वर्ष भर समस्याएं पैदा होती रहती हैं।
हम सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में भारी बदलाव आ रहा है, किंतु हमारे शहर इन बदलावों के लिए तैयार नहीं हैं। विकास कार्यों के कारण हरियाली नष्ट हो गई है। मैंग्रोव वन नष्ट हो रहे हैं जिसके चलते हमारी जल प्रवाह प्रणाली प्रभावित हो रही है। शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व को कम करने और जलवायु परिवर्तन के कारण जन-धन की हानि को कम करने के लिए कोई उपाय नहीं किए गए हैं। अति वर्षा के कारण शहरों में आॢथक जोखिम भी पैदा हो गए हैं। 2015 में चेन्नई में आई बाढ़ के कारण 21381 करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ। राजस्थान, हिमाचल, केरल और मणिपुर सहित 15 राज्यों में अगस्त 2016 तक बाढ़ भविष्यवाणी प्रणाली नहीं थी और अधिकतर टेलीमैट्री स्टेशन ठप्प पड़े हुए हैं। देश में स्थित 37 टेलीमैट्री स्टेशनों में से 222 कार्य नहीं कर रहे हैं।
यदि बार-बार अति वर्षा होती है तो बाढ़ प्रवण शहरों को उससे निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए किंतु ऐसा नहीं है। शहरी जल प्रवाह प्रणाली या तो ठप्प पड़ी है या पर्याप्त नहीं है। इन नालों में सीवरेज का पानी भी छोड़ा जाता है जबकि इसके लिए अलग व्यवस्था होनी चाहिए। वर्षा जल और सीवरेज जल के मिलने से इस पानी को स्थानीय झीलों में नहीं डाला जा सकता है। नालों में कूड़ा भी पहुंच जाता है। शहरी भूमि उपयोग में बदलाव और पेड़ों की कटाई के कारण वर्षा जल भूमि में नहीं पहुंच पाता है। चारों तरफ कंक्रीट के जंगल बने हुए हैं जिसके चलते बाढ़ भीषण रूप ले लेती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा दिशा-निर्देश निर्धारित करने के बावजूद शहरी योजनाकार और प्रबंधक लागत कम करने के लिए डिजाइन में बदलाव नहीं करते हैं।
समय आ गया है कि इस समस्या से निपटने के लिए विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की सहायता ली जाए और उन्हें निर्णय लेने और नीति निर्माण में शामिल किया जाए। बढ़ती जनसंख्या के कारण उत्पन्न समस्याओं और स्थानीय पारितंत्र पर इसके प्रभाव पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। यदि शहरी क्षेत्रों में पेड़ पौधे और खुला क्षेत्र होगा तो वर्षा जल उसमें समा जाएगा और यदि हम कंक्रीट का जंगल बनाते जाएंगे तो बाढ़ तो आएगी ही और उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। देश में कहीं सूखा और कहीं बारिश जैसी राष्ट्रीय आपदाओं से निपटने के लिए करोड़ों रुपए की आवश्यकता होगी। यदि देश का तेजी से विकास करना है तो मानसून के दौरान शहर ठप्प नहीं होने चाहिएं। यह सच है कि भारी वर्षा के कारण शहरी जीवन की गति धीमी होगी, किंतु बेहतर योजना और तैयारियों से यह सुनिश्चित होगा कि मानसून के दौरान शहरों को भारी आर्थिक नुक्सान नहीं उठाना पड़ेगा।
सरकार स्मार्ट सिटी बना रही है किंतु हमें अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करनी होंगी तथा आवश्यकतानुसार नीतियां बनानी होंगी और समाधान ढूंढने होंगे। पर्यावरण को बचाने हेतु अवसंरचना निर्माण, सेवा प्रदाय नीति अनुसंधान और सेवाओं में समन्वय स्थापित करने के लिए हमें अपनी रणनीतियों और दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। हमारे राजनेताओं को अल्पकालिक योजना की बजाय दीर्घकालिक योजनाओं पर ध्यान केन्द्रित करना होगा और वोट बैंक की राजनीति से दूर रहना होगा। निर्णायक अनिर्णय की स्थिति से काम नहींं चलेगा। इससे मुसीबतें और बढेंग़ी और बुरी खबरें सुर्खियों में छाई रहेंगी और सरकार से लोग उपचारात्मक कदम उठाने की मांग करते रहेंगे। समय आ गया है कि सरकार सब्जबाग दिखाना बंद करे और इस दृष्टिकोण को छोड़ दे कि यह केवल जीवन ही तो है। -पूनम आई कौशिश