Edited By Pardeep,Updated: 20 Apr, 2018 02:56 AM
धन ताकत से आता है और ताकत धन से मिलती है। यह भारत के लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली का एक कड़वा सच है। धन बोलता है। ऐसा ही ताकत अथवा सत्ता के मामले में भी होता है। कोई हैरानी की बात नहीं कि चुनाव आयोग के पास दाखिल की गई ऑडिट रिपोटर््स के अनुसार,...
धन ताकत से आता है और ताकत धन से मिलती है। यह भारत के लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली का एक कड़वा सच है। धन बोलता है। ऐसा ही ताकत अथवा सत्ता के मामले में भी होता है। कोई हैरानी की बात नहीं कि चुनाव आयोग के पास दाखिल की गई ऑडिट रिपोटस के अनुसार, सत्ताधारी भाजपा की आय 2015-16 में 570 करोड़ रुपए से बढ़कर 2016-17 में 1034 करोड़ हो गई।
भाजपा की आय सभी अन्य 6 राष्ट्रीय दलों (कांग्रेस, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, माकपा, भाकपा तथा राकांपा) की कुल आय 1559 करोड़ रुपए का लगभग दो-तिहाई है। यह यू.पी.ए. के 10 वर्षों के कार्यकाल के दौरान कांग्रेस की हिस्सेदारी से कहीं अधिक है। एसोसिएशन फार डैमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (ए.डी.आर.) द्वारा की गई समीक्षा के अनुसार, भाजपा द्वारा अनुदान, दान अथवा योगदान के रूप में मिले घोषित 997.12 करोड़ रुपए 2016-17 के दौरान पार्टी की कुल आय का 96.41 प्रतिशत हिस्सा बनते हैं। ए.डी.आर. की रिपोर्ट के अनुसार भाजपा को अमीर व्यक्तियों तथा वाणिज्यिक कम्पनियों से लिहाज रखने के एवज में बड़ी ‘सलामी’ के तौर पर करोड़ों रुपए मिलते हैं जो आज प्रशासन की कार्यशील प्रणाली का एक हिस्सा बन चुका है।
चाहे हम इसे पसंद करें अथवा नहीं, भारतीय लोकतंत्र के इस मूलभूत तथ्य से बचा नहीं जा सकता कि सत्ता में कोई भी दल हो, धन शक्ति तथा वोट साथ-साथ चलते हैं। निश्चित तौर पर इस आम प्रचलन के अपवाद भी हैं। उदाहरण के लिए, जब आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने जनता पार्टी को सत्ता गंवा दी थी। अन्यथा यह ‘दागी’ धन की वही कहानी है जो लोकतंत्र को ‘अनुचित कार्यों’ के अभ्यास में बदल रही है। चाहे हम मानें या नहीं, भारतीय प्रणाली आसानी से धन बनाने की भूख में विकसित हो चुकी है और यह ‘वोट बैंक्स’ के नाम पर फल-फूल रही है। औसत मतदाता सम्भवत: इसकी बाध्यताओं से परिचित नहीं होता। वह कर भी क्या सकता है जब वह उस प्रणाली का ‘कैदी’ बन जाता है, जो बहुत चतुराई से अथवा गोपनीय तरीके से कार्य करती है।
मैंने 2014 के चुनावों में नरेन्द्र मोदी की ऐतिहासिक विजय से यह बड़ी आशा पाल ली थी कि वह और उनकी पार्टी प्रशासन की प्रणाली को पारदर्शी तथा लोगों के लिए मैत्रीपूर्ण बनाएंगे। मगर मुझे झटका देते हुए नोटबंदी का बड़ा धमाका हो गया। भाजपा नेता बेशक इसे बड़ी सफलता कह सकते हैं मगर मैं ऐसा नहीं सोचता। कोई भी ऐसा उपाय सुधारवादी कैसे हो सकता है, जो लोगों को परेशानी में डाल दे, शहरी तथा ग्रामीण भारत दोनों जगहों पर, अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार दे तथा अनौपचारिक क्षेत्र में लाखों कर्मचारियों की नौकरियां छीन ले? मैं नहीं चाहता कि पुरानी कहानी दोहराई जाए। यद्यपि लगभग 4 वर्षों की मंदी की स्थिति के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हर साल युवाओं के लिए 2 करोड़ नौकरियां पैदा करने का वायदा पूरा न होने के कारण देश को अभी भी बेरोजगारी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
बड़े-बड़े वायदे अभी भी सम्भवत: मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को लुभा रहे हैं। मगर इन रिपोर्ट्स के बीच कि मानसून अच्छा रहेगा तथा प्रधानमंत्री का कम हो रहा करिश्मा एक बार फिर देश पर पकड़ बना रहा है, देश का सकल अार्थिक परिदृश्य विकट बना हुआ है। 2019 के महत्वपूर्ण चुनावों में अभी लगभग एक वर्ष बाकी है, क्या प्रधानमंत्री मोदी का ‘चिराग’ लोगों की खुशी के लिए काम करेगा? मैं इस बारे सुनिश्चित नहीं हूं। यह एक खुला खेल है यद्यपि विपक्षी दलों को अभी एक सर्वमान्य नेता ढूंढना है, जो प्रधानमंत्री मोदी के कद तथा विश्वास निर्माण की विशेषज्ञता की बराबरी कर सके।
मेरे जैसे संवेदनशील भारतीयों को सबसे अधिक परेशान करने वाली बात भारतीय राजनीतिक गतिविधियों में धन का बढ़ता बहाव है। आप चाहें तो इसे काला धन कह सकते हैं। मगर चुनाव सीधे अथवा परोक्ष रूप से अधिक से अधिक काला धन उत्पन्न करते हैं। मुझे याद है एक बार एक विशेषज्ञ ने बताया था कि 1980 के लोकसभा चुनावों में 170 करोड़ रुपए खर्च किए गए। बदले में इसने लगभग 400 करोड़ रुपए काला धन पैदा किया। वह एक बहुत उदार अनुमान था। यदि हम 16 जनवरी 1950 में भारत के गणतंत्र बनने से लेकर गत 16 केन्द्रीय चुनावों तथा कई राज्य विधानसभा चुनावों पर करीबी नजर डालें तो हम आसानी से अपने लोकतंत्र के हानिकारक पहलुओं का अनुमान लगा सकते हैं। सम्भवत: धन-संक्रमित इस प्रक्रिया को पलटने में बहुत देर हो चुकी है, जो गांधी के सपनों से एकदम विपरीत है।
आज खतरा काले धन की गतिविधियों से है, जो चुनाव आयोग द्वारा समय-समय पर की जाने वाली अच्छी कार्रवाइयों के बावजूद लोकतांत्रिक राजनीति का एक अभिन्न अंग बन रहा है। चुनावों में ‘धन की पाइपलाइन्स’ का करीब से अध्ययन करते हैं। उनके स्रोत लोगों की अंतर्रात्मा को शर्मसार कर देंगे। यह केवल मात्रा का प्रश्र नहीं है बल्कि इससे हो रही कार्रवाइयों के आयामों का भी है जो देश के महत्वपूर्ण हिस्सों को निगल रहे हैं और प्रणाली के मूल्यों, नैतिकता तथा पारदशर््िाता के आधारभूत प्रश्र को खड़ा कर रहे हैं। भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार को इन मुद्दों पर बहुत स्पष्टीकरण देना होगा।
इसी बीच अन्यथा गैर कार्यशील लोकसभा ने 1979 से प्राप्त विदेशी चंदों के मामलों में किसी प्रकार की जांच से राजनीतिक दलों को बचाने के लिए हाल ही में चुपचाप एक कानून में संशोधन कर दिया। यह उन 2008 संशोधनों में से महज एक था जिसे लोकसभा ने बिना किसी चर्चा के क्लीयर कर दिया। कितनी शर्म की बात है। विदेशी योगदान (नियामक) कानून 2010 द्वारा भारतीय राजनीतिक दलों के लिए विदेशी चंदों पर रोक लगाई गई थी, मगर अब पाॢटयों की गहरी जेबें किसी भी प्रकार की जांच से बच जाएंगी। इसका अर्थ यह हुआ कि गैर-कानूनी लेन-देन सहित ऐसे विदेशी फंडों के मामले में न तो कोई प्रश्र पूछा जाएगा और न ही उत्तर देना पड़ेगा।
दुख की बात यह है कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने विदेशी योगदान नियामक कानून (एफ.सी.आर.ए.) 1976 के अंतर्गत 2016 में 20,000 तथा 2017 में 4842 एन.जी.ओ. के लाइसैंस रद्द कर दिए थे। फिर भी भाजपा सरकार ने 2018 में स्पष्ट तौर पर खुद के लिए पारदर्शिता के पूर्णतया अलग मापदंड अपना लिए और उन्हें अन्य पाॢटयों तक भी पहुंचा दिया। प्रधानमंत्री मोदी के प्रणाली में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के चुनावी वायदे का क्या हुआ? अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या राजनीतिक दलों को विदेशी फंडिंग से भारत की चुनावी प्रक्रिया तथा रिवायतों पर बाहरी असर नहीं पड़ेगा? मैं ऐसी किसी संभावना से इंकार नहीं करता। खेद है कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने और अधिक पारदर्शिता लाने के लिए अपने वायदे के विपरीत राजनीतिक दलों के लिए कार्पोरेट फंडिंग को और अधिक गोपनीय बना दिया है।-हरि जयसिंह