पहले राऊंड में ‘पास’ हो गईं प्रियंका गांधी

Edited By ,Updated: 24 Mar, 2019 04:36 AM

priyanka gandhi becomes  close  in first round

टी.वी. वालों की भाषा में कहें तो ‘आईबाल कैचिंग’ अर्थात दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ  बनाए रखने में प्रियंका गांधी सफल रही हैं। उत्तर प्रदेश, जहां कांग्रेस ने उन्हें पूर्वी हिस्से का महासचिव बनाया है, की अपनी पहली यात्रा के समय भी, अहमदाबाद के अधिवेशन...

टी.वी. वालों की भाषा में कहें तो ‘आईबाल कैचिंग’ अर्थात दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ  बनाए रखने में प्रियंका गांधी सफल रही हैं। उत्तर प्रदेश, जहां कांग्रेस ने उन्हें पूर्वी हिस्से का महासचिव बनाया है, की अपनी पहली यात्रा के समय भी, अहमदाबाद के अधिवेशन में भी, दलित नेता चंद्रशेखर से मिलने के समय भी और प्रयाग से वाराणसी की गंगा यात्रा में भी। आईबाल कैङ्क्षचग का व्यावहारिक अर्थ है टी.आर.पी. बटोरना। टी.आर.पी. बटोरने का टी.वी. वालों के लिए मतलब है विज्ञापन और कमाई, पर हमारे-आपके लिए इसका मतलब है कि प्रियंका लोगों का ध्यान खींच रही हैं, उनकी अभी तक की राजनीतिक गतिविधियों को पसंद किया जा रहा है। 

उनके राजनीति में उतरने को लेकर जो अटकलें लग रही थीं वह उनकी राजनीति के प्रति उत्सुकता भी थी। जिस टी.वी. पर मोदी का ‘कब्जा’ माना जाता था और जिसका ‘आरोप’ भी लगता था, वह भी प्रियंका गांधी को लगातार आठ घंटे और फिर चार दिन लगातार दिखाता रहा। कभी कहा जाता था, टी.वी. वालों में ही, कि मोदी और योगी को छोड़कर किसी से टी.आर.पी. नहीं आती, राहुल गांधी के लिए तो एकदम नहीं,  वहीं टी.वी. अगर प्रियंका और एक हद तक राहुल के सहारे भी टी.आर.पी. बढ़ाने लगे तो इसे सिर्फ   टी.वी. का खेल न मान कर राजनीतिक हलचल का संकेत भी मानना चाहिए। 

बदलाव लोगों में भी 
प्रियंका के आने का बदलाव सिर्फ टी.वी. वालों पर नहीं दिखता, लोगों पर भी दिखता है। जिस उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास सिर्फ  नेता बचे थे,  उसमें अचानक कार्यकत्र्ता और समर्थक दिखने लगे हैं। भाजपा के निवर्तमान सांसद से लेकर सपा/बसपा के पूर्व सांसद-विधायक आकॢषत होने लगे हैं तो कोई बदलाव है जरूर। अब यह बदलाव किसी जाति या सम्प्रदाय का नया आधार जुटाने वाला भी नहीं दिखता और न ही किसी जनाधार वाले दल के आने का। जाहिर है कुछ बदलाव है जो हमें अभी ठोस नहीं दिखता, ज्यादा समझ नहीं आता। चुनावी नतीजे बताएंगे कि वह क्या है, पर अभी दिख रहा समर्थन या उत्सुकता वोट में बदले, यह जरूरी नहीं है। इसके लिए जो पार्टी मशीनरी चाहिए वह कांग्रेस के पास कमजोर है या नहीं है। 

एक बड़ा समुदाय बिना ऐसे तंत्र के भी कांग्रेस की राजनीति को आधार देता दिख रहा है जो अल्पसंख्यकों का है। वह भाजपा को समर्थन नहीं देगा लेकिन सपा-बसपा द्वारा कांग्रेस को बाहर रखने और मायावती के पुराने रिकार्ड  से लेकर अब के व्यवहार के चलते भाजपा विरोधी गठबंधन को पूरा विश्वसनीय नहीं बनने दे रहा है। इसलिए जरा भी राजनीति समझने वाले को लग जाता है कि जहां भी सपा/बसपा का उम्मीदवार कमजोर पड़ा, मुसलमान कांग्रेस की तरफ जाना पसंद करेंगे। प्रियंका जिसे राहुल कांग्रेस की चार सौ चालीस वोल्ट की अपनी ताकत कह कर ले आए हैं, की सक्रियता और असर का साफ प्रमाण विरोधी दलों और नेताओं की प्रतिक्रिया है। अभी भी यह साफ  नहीं है कि उनके आने से दिख रहा कांग्रेसी समर्थन असल में किस दल के आधार को खिसका कर बन रहा है, पर बेचैनी सभी तरफ  दिख रही है। भाजपा के नेता तो अमर्यादित टिप्पणियां भी करने से नहीं चूके क्योंकि प्रियंका सीधे मोदी के गढ़ माने जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश में घुसी हैं और अचानक कांग्रेस में जान दिखने लगी है। 

कई राजनीतिक पंडित मानते हैं कि भाजपा और कांग्रेस का आधार एक ही है। अगर कांग्रेस जिंदा हो रही है तो भाजपा कमजोर होगी ही। पर मुसलमान वोट या भाजपा विरोधी वोट में कांग्रेस की हिस्सेदारी सपा/बसपा गठबंधन को कमजोर करेगी। पूर्वांचल में गठबंधन पश्चिम की तुलना में कमजोर भी है। इसीलिए हम देखते हैं कि मायावती से शुरू होकर प्रियंका विरोध अखिलेश यादव तक आ गया है और कल तक महागठबंधन की जो बात थी वह अब असंभव लगती है। और जब प्रियंका बीमार दलित नेता चंद्रशेखर से मिलने गईं और उनके वाराणसी से उम्मीदवार बनने की चर्चा उड़ी तो भाजपा और मायावती दोनों ही बौखलाए से दिखे। मायावती को अपना दलित और उसमें भी जाटव आधार खिसकता लगा।

कांग्रेस के लिए नई शुरूआत 
अभी तक प्रियंका ने जो किया है और जो बोला है उससे भी उनका कद बढ़ा है। एक तो उनके कार्यक्रमों का चुनाव महत्वपूर्ण है। पहले दिन लखनऊ का रोड शो बहुत बड़ा और लम्बा था-करीब आठ घंटे चला। अगर लोग न होते तो फ्लाप शो में बदल जाता लेकिन प्रियंका के आकर्षण ने इसे हिट शो में बदला और कांग्रेस के लिए एक नई शुरूआत दिखती है। चुनाव में वक्त नहीं है, सो यह बदलाव कहां तक जाएगा और क्या होगा, यह कहना मुश्किल है। संगठन बनाना किसी और का काम नहीं है। 

राहुल-प्रियंका भी उसके लिए जिम्मेदार रहे हैं और रहेंगे, पर अभी एक मोमैंटम बना है, इसे आगे ले जाने से लाभ होगा। पर इससे भी ज्यादा होशियारी वाली प्लाङ्क्षनग प्रयाग से वाराणसी की नौका यात्रा में दिखी। गंगा में कम पानी होना, गाद भरने की परेशानी तो थी ही, योगी सरकार की परमिशन का भी चक्कर था,  पर जब एक बार यात्रा शुरू हुई तो नए इलाके, नए रूट के साथ ही विजुअली जबरदस्त दृश्य के चलते यह टी.वी. चैनलों की दुलारी बन गईं। मोदी-अमित शाह भी टी.वी. पर दिखने कम हो गए और फिर सबको उत्तराखंड से पश्चिम बंगाल तक की 80 संसदीय सीटें, मल्लाह, निषाद, कश्यप, धीमर आबादी की याद आने लगी जिसे कई जगह 13-14 फीसदी तक बताया गया। 

प्रियंका ने अभी तक लम्बी भाषणबाजी नहीं की है, पर जो बोला है वह बहुत हिसाब से बोला है। नाव यात्रा के समय ‘चौकीदार चोर’ बनाम ‘मैं भी चौकीदार’ विवाद पर उनके बयान पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया पर उन्होंने कहा कि इटावा के एक किसान ने मुझे बताया कि हमें तो चौकीदार की जरूरत नहीं है, चौकीदार तो अमीरों के होते हैं। क्या जबरदस्त बयान था। फिर पुलवामा हमले के समय अपनी प्रैस कांफ्रैंस को जिस तरह उन्होंने छोटी शोक सभा में बदल दिया वह भी कमाल था। अहमदाबाद में ज्ञान और कौशल को राष्ट्रवाद बताना भी कम होशियारी का बयान नहीं है। चन्द्रशेखर रावण के बीमार होने के बाद वहां पहुंच कर भाई संबोधन से शुरूआत करना स्वाभाविक भी लगता है और राजनीतिक होशियारी भी। बहुत लम्बे और उबाऊ भाषणबाजी के दौर में यह हवा का एक ताजा झोंका लगता है। यह कहां तक जाता है यह देखने की चीज होगी और इसका दारोमदार लोगों पर तो है ही, सबसे ज्यादा प्रियंका और कांग्रेस पर है।-अरविंद मोहन
        

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