प्राइवेट-पब्लिक स्कूल और भारतीय लोकतंत्र का भविष्य

Edited By ,Updated: 18 Apr, 2017 11:46 PM

pvt public school and the future of indian democracy

स्कूलों ने पब्लिक स्कूल का नाम धर कर अभिभावकों का अनगिनत तरीके से ...

स्कूलों ने पब्लिक स्कूल का नाम धर कर अभिभावकों का अनगिनत तरीके से शोषण शुरू कर दिया है। पढ़े-लिखे माता-पिता जो खुद को जागरूक समझते हैं, इन स्कूलों के आगे लाचार हैं। हार मानकर बैठ गए हैं। यही माता-पिता जब चुनाव आता है तो खासे सक्रिय दिखते हैं। इनकी बातों से लगता नहीं कि वे किसी नेता के खिलाफ या समर्थन में बोलने से डरते हैं। मगर ऐसा क्या होता है कि वे उसी नेता के स्कूल में चल रहे घोटाले के खिलाफ नहीं बोलते हैं। दो-चार माता-पिता लडऩे की हिम्मत तो दिखाते हैं मगर स्कूल वाले उनके बच्चों को निकाल देते हैं। फर्जी मुकद्दमे करवा देते हैं। फिर भी ज्यादातर माता-पिता सामने नहीं आते। एक-दूसरे की मदद नहीं करते।

 

अगर पब्लिक स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले माता-पिता का मूल्यांकन करेंगे तो भारतीय लोकतंत्र का भविष्य बहुत कमजोर नजर आता है। हो सकता है कि बहुत से माता-पिता को अधिक फीस देने में कोई फर्क नहीं पड़ता हो लेकिन नाजायज तरीके से फीस देने का विरोध तो होना ही चाहिए। पिछले कई दिनों में देश भर में फैले अभिभावक संगठनों से बात करते हुए ऐसा लगा कि स्कूलों के जरिए भारत में नई प्रकार की दास प्रथा लागू हो गई है। माता-पिता ने खुशी-खुशी स्कूलों की दासता स्वीकार कर ली है।

 

स्कूलों ने कमाई के कई अवैध तरीके विकसित कर लिए हैं। क्या किसी के.जी. के बच्चे की परीक्षा फीस सालाना कुछ हजार हो सकती है। क्या किसी के.जी. के बच्चे से मैजिक ओरल पैन के 1790 रुपए लिए जा सकते हैं। क्या किसी बच्चे को ब्रांडिड जूते पहनने के लिए बाध्य किया जा सकता है जिनकी कीमत 1500 से 2500 रुपए हो। अगर स्कूलों के दबाव में मां-बाप खरीद रहे हैं तो वे अपने बच्चों का भविष्य नहीं संवार रहे बल्कि आजाद भारत में अपने बच्चों को गुलामी की ट्रेङ्क्षनग दे रहे हैं। ऐसे मां-बाप बच्चों के लिए कम, देश के लिए ज़्यादा खतरनाक साबित हो सकते हैं। इनसे कोई भी समझौता करा सकता है। आखिर जब स्कूलों ने यूनीफार्म के बटन पर अपना ब्रांड लिखा और टूटने पर स्कूल से ही खरीदने पर मजबूर किया तब देश भर के मां-बाप सड़क पर क्यों नहीं उतरे।

 

स्कूल यूनीफार्म के नाम पर डकैती कर रहे हैं। हर दिन के लिए अलग यूनीफार्म से बच्चे की शैक्षिक क्षमता में वृद्धि होती है, इसके प्रमाण क्या हैं। हर दिन अलग यूनीफार्म से क्या बच्चा न्यूटन जैसा प्रतिभाशाली हो जाता है। क्या तुलसीदास और कबीर जैसा प्रखर चिन्तनशील हो जाता है। इन दिनों भारतीय संस्कृति का बहुत बोलबाला है। हमारे देश में करोड़ों बच्चे रोज सुबह टाई पहन कर स्कूल जाते हैं। टाई का प्रतिभा से क्या संबंध है। स्कूल के बाद तो वैसे भी टाई की जरूरत नहीं होती है। यही नहीं, हर साल यूनीफार्म क्यों बदली जाती है, स्कूल क्यों मजबूर करते हैं कि उसी के यहां या उसकी बताई दुकान से ही यूनीफार्म खरीदी जाए, वह भी बाजार की दर से अधिक दाम पर। मां-बाप बिना पूछे पैसे दिए जा रहे हैं। जो मां-बाप सवाल करते हैं, स्कूल वाले उन्हें प्रताडि़त करते हैं। अगर समाज हर छोटी बात के लिए आगे आने लगे तो किसी की लड़ाई अकेले की नहीं रह जाएगी। किसी को लडऩे में डर नहीं लगेगा।

 

पिछले 20 वर्षों में स्कूलों का मालिकाना स्वरूप बदला है। अब समाजसेवी या शिक्षाविद् की संख्या कम होती जा रही है। स्कूल चलाने में नेता, मीडिया और कार्पोरेट घराने के लोग आ रहे हैं। इन सबका एक ही काम है मुनाफे से भी कई गुना मुनाफा कमाना। मीडिया घरानों के स्कूलों में भी वही हाल है। तरह-तरह के मदों में मां-बाप से पैसा लूटो। एक लाख महीना कमाने वाले के पास कितना बचता होगा। हम आसानी से हिसाब लगा सकते हैं लेकिन अगर उसे अपने 2 बच्चों के लिए साल की अढ़ाई लाख रुपए फीस देनी पड़े तो उसकी कमर टूट जाएगी। यही हालत 40 से 50 हजार प्रतिमाह कमाने वाले अभिभावकों की है। उनकी सिसकियों को कोई सुनने वाला नहीं है।

 

स्कूल अभिभावकों से हलफनामा लिखवा रहे हैं कि मीडिया से बात नहीं करेंगे। शोषण भी और ऊपर से न बोलने की शर्त भी। ये गुलामी नहीं तो और क्या है। देश के कई शहरों से मां-बाप ने मुझे ई-मेल किया है। सबकी व्यथा पढ़कर लग रहा है कि भारत में सही अर्थों में लोकतंत्र नहीं आया है। कम से कम नागरिक बोलने का साहस तो जुटा सके। जिस लोकतंत्र में सामान्य नागरिक बोलने का साहस नहीं जुटा सके, वह अंदर से कमज़ोर ही होता है। स्कूलों ने बच्चों के जरिए मां-बाप की लोकतांत्रिकता को खत्म कर दिया है। मां-बाप को इससे मुक्ति पाने के लिए आज न कल संघर्ष करना ही होगा वरना वे अपनी आजादी हमेशा के लिए खो देंगे।

 

आज देश के कई शहरों में अभिभावक संघ हैं। शुरूआत अकेले की लड़ाई से हुई थी मगर अब धीरे-धीरे लोग इन संगठनों के पीछे जमा हो रहे हैं। ऐसे-ऐसे योद्धा हैं जो अकेले कई साल से स्कूलों के खिलाफ लड़ रहे हैं। उनके पास मुकद्दमे की फाइल मोटी हो गई है। ये वे योद्धा हैं जो हमारे और हमारे बच्चों के भविष्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनकी कहीं भीहीरो जैसी पहचान नहीं है। इन अभिभावक संघों की लड़ाई रंग भी ला रही है। मजबूर होकर सरकारों को फीस नियमन के लिए कानून बनाने पड़े हैं। यह उनकी पहली जीत है। दूसरी जीत तब होगी जब ये कानून लागू होने लगेंगे। कहीं-कहीं कुछ हद तक लागू हो रहे हैं मगर पूरे देश में इनका सख्ती से लागू होना बहुत जरूरी है।

 

पानीपत में मां-बाप ने अपनी लड़ाई को काफी मजबूत किया है। कई बार स्कूलों के बाहर प्रदर्शन हुए हैं। रांची में भी अभिभावक संघ के कारण बस फीस तय हुई है। पूरी तरह से लागू नहीं है मगर जहां लागू है वहां अभिभावकों को काफी राहत है। राजस्थान सरकार ने आदेश दिया है कि स्कूल खुद कापी-किताब नहीं बेचेंगे। बाहर के बाजार में कम से कम 3 दुकानों का विकल्प देंगे। एक दुकान से खरीदने के लिए मजबूर नहीं करेंगे। ये सब फैसले बता रहे हैं कि आने वाले दिनों में कामयाबी मिलनी ही है। भारत का नागरिक स्कूलों का गुलाम नहीं है। अगर स्कूल मजबूर करेंगे तो उनके खिलाफ जनांदोलन को कोई नहीं रोक सकता है बल्कि जनांदोलन होने लगे हैं।
 

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