राहुल ने उड़ाई ‘भाजपा की नींद’

Edited By ,Updated: 29 Jan, 2019 03:45 AM

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लगभग डेढ़ महीने पहले तक जब हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव परिणाम नहीं आए थे, अन्य के मुकाबले मोदी को उच्च सम्भावना अंक देना प्रशंसनीय था कि वह केन्द्र में अगली गठबंधन सरकार का नेतृत्व करेंगे, मगर स्थिति वैसी नहीं रही।....

लगभग डेढ़ महीने पहले तक जब हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव परिणाम नहीं आए थे, अन्य के मुकाबले मोदी को उच्च सम्भावना अंक देना प्रशंसनीय था कि वह केन्द्र में अगली गठबंधन सरकार का नेतृत्व करेंगे, मगर स्थिति वैसी नहीं रही। 

हम गठबंधनों की दुनिया में हैं 
गलतफहमी से बचने के लिए यह जानना जरूरी है कि हम पहले ही मजबूती से गठबंधनों की दुनिया में हैं। यहां तक कि वर्तमान सरकार भी कई पार्टियों का गठबंधन है, एक राजनीतिक खिचड़ी जिसका नेतृत्व भाजपा कर रही है। 2014 में यदि भाजपा अकेले चुनाव लड़ती तो इसके 31 प्रतिशत राष्ट्रीय वोट जीतने की सम्भावना नहीं थी (और न ही अपने बूते पर बहुमत के लिए पर्याप्त संसदीय सीटें जीतने की)। विशेष तौर पर वर्तमान सरकार का अधिक चमकदार रिकार्ड न होने के कारण कोई संदेह नहीं कि अगली सरकार भी गठबंधन की होगी। भाजपा के जनक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कह दिया है कि वर्तमान स्थिति में त्रिशंकु संसद की सम्भावना सर्वाधिक है, जिसने भाजपा के उन दावों की हवा निकाल दी है कि वह बहुमत जीत लेगी। 

किस नेता को संसद में सर्वाधिक समर्थन मिलेगा
और तो और, सभी संबंधित पक्ष बहुत करीब से इस बात पर नजर रखेंगे कि भाजपा अथवा इसके विरोधियों में से किस नेता द्वारा एक त्रिशंकु संसद में सर्वाधिक समर्थन आकॢषत करने की सम्भावना है। दोनों पक्षों में इस शीर्ष पद के कई दावेदार हैं लेकिन उनके नाम खुले अनुमानों के विषय हैं। पदधारी नेता होने के नाते मोदी निश्चित तौर पर भाजपा-संघ की ओर से सर्वश्रेष्ठ दावेदार हैं। लोगों को आकर्षित करने की उनकी क्षमता कभी भी संदेह में नहीं रही मगर उनकी सरकार प्रत्येक चरण पर किए गए जोरदार प्रचार के अनुसार परिणाम नहीं दे सकी, जिसने न केवल विरोधी दलों की आशाओं को बढ़ाया है बल्कि (संघ के आशीर्वाद से) भगवा खेमे में भी कुछ की आशाओं को हवा दी है। 

तारबंदी के दूसरी ओर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दो थकाऊ वर्षों के दौरान धीरे-धीरे दावेदारी की ओर कदम बढ़ाए हैं। चुनावों के बाद शीर्ष पद के लिए धर्मनिरपेक्ष खेमे के उनके तथाकथित प्रतिद्वंद्वियों, मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तथा बसपा सुप्रीमो मायावती, वास्तविक की बजाय आभासी अधिक दिखाई देती हैं। दरअसल ऐसा दिखाई देता है कि उन्होंने अपना यह दर्जा (अपनी आकांक्षाओं के अतिरिक्त) खुद बना लिया है। उन्हें किसी भी तरह का खिंचाव तब मिलेगा यदि या तो राहुल गांधी की कांग्रेस भाजपा से अधिक सांसद बना ले या संसदीय संख्या में भाजपा से जरा-सी पीछे रह जाए लेकिन तब नहीं यदि यह एक निश्चित सीमा रेखा से निराशाजनक तौर पर पीछे रह जाए। 

संक्षेप में, यदि कांग्रेस घटिया कारगुजारी दिखाती है तो गैर-कांग्रेसी धर्मनिरपेक्ष खेमे के सिंहासन के दावेदार, जो इन दिनों इतना अधिक भाजपा विरोधी शोर मचा रहे हैं, इतिहास से मिटा दिए जाएंगे। क्या वितरिकाएं मुख्यधारा से बड़ी हो सकती हैं, यह मायने नहीं रखता कि वे कितना वेग  पैदा करती हैं। दरअसल राहुल गांधी का मामला अनुदेश कारक है। जनता के अनुमान में उनका कद (और राजनीतिक हस्ती के तौर पर स्वीकार्यता) 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान बढ़ा जब उनकी पार्टी ने राज्य में भाजपा-संघ से जीत लगभग छीन ही ली थी। हालांकि काफी लम्बे समय तक वह कम प्रभावशाली बने रहे और व्यावहारिक तौर पर इसके पहले के दो दशकों तक गुजरात की चुनावी गणनाओं से अनुपस्थित रहे।

अथक स्टार प्रचारक
नेहरू-गांधी परिवार के वंशज अपने पक्ष के लिए अथक स्टार प्रचारक थे। उन्होंने पहले राज्य की बंटी हुई पार्टी का एकीकरण किया और उसे युद्ध के लिए तैयार किया। जब उन्होंने हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर जैसे तेज-तर्रार गैर-पार्टी युवाओं को अपने पक्ष की ओर से लड़ाई लडऩे के लिए तैयार किया तो उन्होंने अपने धैर्य तथा बातचीत के कौशल को प्रदर्शित किया। युवा गांधी ने अत्यंत शंकालु जनता के संदेहों को भी दूर किया। जब हम उस समय को याद करते हैं तो यह तर्क देना सम्भव हो जाता है कि यदि प्रधानमंत्री मोदी गुजरात से नहीं होते तथा यदि उन्होंने मतदाताओं से उनकी सहायता के लिए आने की याचना नहीं की होती तो सम्भवत: उनकी पार्टी दूसरे स्थान पर आती। 

कुछ महीनों बाद यह स्पष्ट हो गया कि गुजरात कांग्रेस नेता के लिए असम्भव नहीं था। उनकी प्रचार करने की ऊर्जा तथा राजनीतिक रणनीति ने कर्नाटक में दनदनाती भाजपा को रोक दिया। मोदी तथा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में उतनी  ही कड़ी मेहनत की थी जितनी उन्होंने गुजरात में की थी लेकिन उसका कोई लाभ नहीं हुआ। उनके लिए कर्नाटक में ‘गृह राज्य का प्रभाव’ अनुपस्थित था। बाद में उसी वर्ष छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान भी कांग्रेस की झोली में गिर पड़े। 

दो क्षेत्रों में परीक्षण 
मगर राज्यों के चुनाव अब इतिहास है। कांग्रेस नेता का अब कड़ा परीक्षण दो क्षेत्रों में होगा। उन्हें विपक्ष की सोच से बढ़कर उत्तर प्रदेश में बेहतर कारगुजारी दिखानी होगी। प्रियंका गांधी वहां सहायक साबित हो सकती हैं। दूसरे, राहुल को चुनावों से पहले कुछ सहयोगियों को जोडऩे की जरूरत है। ये त्रिशंकु संसद बनने की स्थिति में उनकी महत्वपूर्ण पूंजी के तौर पर काम आएंगे। राहुल गांधी एकमात्र विपक्षी नेता हैं जिन्होंने सरकार तथा प्रधानमंत्री को उनकी नीतियों के सामान्य भारतीयों पर नकारात्मक प्रभावों के अतिरिक्त आर्थिक, राजनीतिक तथा वैचारिक मुद्दों पर चुनौती दी है। वह एक ऐसे विरोधी हैं जिनसे भाजपा डरती है क्योंकि उन्होंने उसकी नींद उड़ा रखी है।-ए.के.सहाय

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