रेटिंग एजैंसियां अपना भरोसा कायम रखने में नाकाम

Edited By Punjab Kesari,Updated: 07 Mar, 2018 02:22 AM

rating agencies fail to maintain their confidence

किसी व्यक्ति, संस्था और यहां तक कि देशों की रेटिंग भी प्राचीनकाल से होती आई है। इतिहासकार हेरोडोट्स ने साइरेन के विद्वान कल्लीमकस के साथ मिलकर 7 अजूबों की असल सूची बनाई थी, जिसमें अलंकृत भाषा में इनकी खूबियों के बारे में बताया गया था। आधुनिक समय की...

किसी व्यक्ति, संस्था और यहां तक कि देशों की रेटिंग भी प्राचीनकाल से होती आई है। इतिहासकार हेरोडोट्स ने साइरेन के विद्वान कल्लीमकस के साथ मिलकर 7 अजूबों की असल सूची बनाई थी, जिसमें अलंकृत भाषा में इनकी खूबियों के बारे में बताया गया था। आधुनिक समय की क्रैडिट रेटिंग एजैंसीज की उत्पति तो खैर बहुत हाल की घटना है। ऐसी एजैंसियों (पहली एजैंसी लेविस टप्पन द्वारा न्यूयार्क में 1937 में बनाई गई) की जरूरत उस समय किसी व्यापारी के अपने कर्जे चुका पाने की क्षमता के आकलन, आंकड़ों के संकलन के लिए महसूस की गई थी। 

इसके बाद जल्द ही मार्कीट के बारे में स्वतंत्र जानकारी की मांग भी उठने लगी जिसमें कर्ज चुकाने की क्षमता की भरोसेमंद जानकारी हो। मूडीज की रेटिंग के प्रकाशन धीरे-धीरे औद्योगिक फर्म और सेवा प्रदाताओं के बारे में साख आधारित पत्र देने पर केन्द्रित होते गए। 1924 तक रेटिंग संसार के तीन बड़े नाम (फिच, स्टैंडर्ड एंड पुअर समेत) कम्पनी के तौर पर निगमित हो चुके थे, जिनका आज प्रतिस्पर्धा विहीन क्रैडिट मार्कीट के 95 फीसदी हिस्से पर कब्जा है। 1933 का ग्लास स्टीगल एक्ट पारित होने से सिक्योरिटी के कारोबार को बैंकिंग से अलग करने में मदद मिली। इसके द्वारा अमरीकी बैंकों को सिर्फ रेटिंग वाले ग्रेडेड बांड में निवेश करने की इजाजत दी गई। 

ग्लोबल बांड मार्कीट (सरकारी बांड समेत) को भी रेटिंग के दायरे में लाए जाने के बाद जल्द ही साल 1960 तक ऐसी रेटिंग का विस्तार कमॢशयल पेपर और बैंक जमा पर भी कर दिया गया। बाद में इसका विस्तार ग्लोबल बांड मार्कीट (सरकारी बांड मार्कीट) की रेटिंग तक हो गया। इस दौरान बिजनैस माडल में मामूली बदलाव करते हुए रेटिंग एजैंसियों ने निवेशक और रेटिंग की जाने वाली इकाई दोनों से फीस लेना शुरू कर दिया। विश्व वित्तीय मार्कीट में महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद रेटिंग एजैंसियां अब भी अक्सर अनुचित और अशुद्ध रेटिंग के आरोपों के कारण भरोसा कायम कर पाने में नाकाम हैं। 

यहां भारत में भी रेटिंग एजैंसियों का रिकार्ड मिला-जुला है। एमटेक ऑटो और रिको इंडिया का मामला याद कीजिए, जिसमें सेबी ने रेटिंग एजैंसियों की जांच की थी और नियम व डिस्क्लोजर मानक कड़े किए गए थे। 2011 से 2015 के दौरान रिको इंडिया की देनदारियां बिना अचल परिसम्पत्तियों में बढ़ौतरी के बढ़ गई थीं और कम्पनी ने सितम्बर 2015 तिमाही के नतीजे की घोषणा में भी देरी (मई 2016 तक) की थी। भारतीय रेटिंग एजैंसियों ने एमटेक ऑटो को- एक ऐसी फर्म जो 800 करोड़ के बांड के पुनर्भुगतान में डिफाल्टर होने की कगार पर थी-ए.ए. की रेटिंग दे दी, जिसके फौरन बाद ही इसकी रेटिंग में कई गुना की गिरावट आना तय था। यहां तक कि भूषण स्टील और जयप्रकाश इंडस्ट्रीज को भी दिवालिया होने से पहले सभी एजैंसियों द्वारा इन्वैस्टमैंट ग्रेड की रेटिंग दी गई थी। 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन रेटिंग एजैंसियों का वैश्विक असर होने के कारण एक से दूसरे देश में पूंजी के प्रवाह से कई राष्ट्रों का वित्तीय भाग्य प्रभावित होता है, जैसा कि पूर्वी एशिया संकट के दौरान देखने को मिला था। (जोसेफ स्टिग्लिट्ज, जी. फेर्री और एल.जी. लियु, 1999)। स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने क्रीमिया के विलय के बाद रूसी सरकार को साल 2014 में जंक स्टेटस से बस एक पायदान ऊपर रख दिया था। इस बदलाव को राजनीति से प्रेरित बताते हुए रूस ने इसे खारिज कर दिया था। शायद कई देश बुनियादी खामियों के बाद भी ऐसी रेटिंग की उपलब्धि को बहुत ज्यादा महत्व देते हैं। हितों के टकराव को देखें तो-ऐसी रेटिंग एजैंसियां अपने राजस्व का बड़ा हिस्सा गैर-रेटिंग गतिविधियों से कमाती हैं, और अपने रेटिंग व गैर-रेटिंग कारोबार को सख्ती से अलग रखने के बावजूद एक ही प्रबंधन होने और मुनाफे की तलाश के दौरान चुपके से हितों का टकराव अपनी जगह बना लेता है। 

आर.पी. बघाई और बो बेकर ने 2016 में अपनी रिपोर्ट नॉन-रेटिंग रेवैन्यू एंड कॉन्फिलिक्ट ऑफ इंट्रैस्ट में बताया कि कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि रेटिंग एजैंसियां संबंधित इकाई को चाहे वह संस्था हो या राष्ट्र, गैर-रेटिंग सेवाओं के साथ अच्छी रेटिंग दिलाने का लालच देती हैं। तयशुदा ऑप्रेटिंग फीस मॉडल पर भी विचार किया जा सकता है जिससे कि गुणवत्ता से समझौता करके ‘‘सबसे कम बोली लगाने वाले को’’ फायदा पहुंचाने की संभावना खत्म की जा सके। आऊटस्टैंडिंग (शानदार) रेटिंग देने और फिर अचानक रेटिंग गिरा देने के मामलों की गहराई से निगरानी किए जाने की जरूरत है। 

कॉर्पोरेट्स को भी ऑडिटर की तरह ही नियमित रूप से रेटिंग एजैंसी बदलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। मार्कीट रैगुलेटर द्वारा फीस तय करके ‘रेटिंग पाने वाला भुगतान करेगा’ मॉडल को बदल कर ‘निवेशक भुगतान करेगा’ मॉडल अपनाना चाहिए। वित्तीय फैसले सभी को रोजगार उपलब्ध कराने और नए प्रयोगों के साथ अर्थव्यवस्था का विकास करने की भावना से प्रेरित होने चाहिएं, न कि दरवाजे-दरवाजे भटकते हुए रेटिंग पाने की आशा से।-वरुण गांधी

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