Edited By Pardeep,Updated: 02 Apr, 2018 02:40 AM
‘त्रिशंकु संसद’ एक ऐसा जुमला है जिसको सुनते ही स्टॉक मार्कीट भयभीत हो जाती है। इस मार्कीट में यही मान्यता चलती है कि अर्थव्यवस्था को मजबूत और निर्णायक नेतृत्व की दरकार है और ऐसा नेतृत्व अकेले दम पर निर्णायक बहुमत रखने वाली पार्टी की सरकार ही उपलब्ध...
‘त्रिशंकु संसद’ एक ऐसा जुमला है जिसको सुनते ही स्टॉक मार्कीट भयभीत हो जाती है। इस मार्कीट में यही मान्यता चलती है कि अर्थव्यवस्था को मजबूत और निर्णायक नेतृत्व की दरकार है और ऐसा नेतृत्व अकेले दम पर निर्णायक बहुमत रखने वाली पार्टी की सरकार ही उपलब्ध करवा सकती है। यदि किसी एक ही पार्टी को निर्णायक बहुमत हासिल न हो तो सरकार आॢथक दिशाबोध से खाली होती है। इसके फलस्वरूप जी.डी.पी. में गिरावट आती है।
मंत्रिमंडल में क्योंकि कई निहित स्वार्थ मौजूद होते हैं और क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने मुठठी भर सांसदों के बूते किसी भी फैसले को वीटो करने की शक्ति रखती हैं। यही मानसिकता स्टॉक बाजारों को गठबंधन सरकारों का विरोधी और निर्णायक बहुमतधारी सरकार का पक्षधर बनाती है। लेकिन हाल ही के वर्षों के साक्ष्य इस मानसिकता की पुष्टि नहीं करते। यू.पी.ए.-1 (2005-2009) के 5 वर्षों दौरान जी.डी.पी. की औसत वृद्धि दर 8.5 प्रतिशत रही जोकि भारत के इतिहास के किसी भी 5 वर्षीय कालखंड में उच्चतम थी। ऐसा करिश्मा उस कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने किया था जिसके पास लोकसभा में मात्र 145 सांसद थे। हमारे कुछ सबसे बेहतरीन कानून (जैसे कि आर.टी.आई.) इसी अवधि दौरान पारित हुए थे।
जब इसी गठबंधन ने अगले चुनाव में सत्ता संभाली तो कांग्रेस की सीट संख्या बढ़ कर 200 हो गई। सैद्धांतिक रूप में तो यह सरकार अधिक निर्णायक होनी चाहिए थी क्योंकि प्रमुख पार्टी की शक्ति काफी बढ़ गई है और शायद कुछ हद तक ऐसा हुआ भी था। फिर भी जी.डी.पी. के आंकड़ों में इसका प्रतिबिम्ब देखने को नहीं मिला क्योंकि अर्थव्यवस्था केवल 7 प्रतिशत की औसत सालाना दर से ही विकास कर पा रही थी। बेशक हमें यह अवश्य ही स्वीकार करना होगा कि इसी अवधि दौरान दुनिया वैश्विक वित्तीय संकट से उभर रही थी, यानी कि उच्च वृद्धि दर हासिल करने के लिए हमें बहुत कम बाहरी समर्थन मिल सकता था।
गत 15 वर्षों दौरान सबसे कमजोर आर्थिक वृद्धि का दौर वास्तव में तब देखने को मिला जब हमारे पास निर्णायक बहुमत वाली सरकार थी, हालांकि इस अवधि दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था भी पूरा दम-खम दिखा रही थी। मैं वर्तमान सरकार की कारगुजारी पर कोई टिप्पणी करने का इरादा नहीं रखता। मेरा नुक्ता तो केवल यह दिखाना है कि जी.डी.पी. और बहुमतधारी सरकार में वैसा कोई रिश्ता नहीं जैसा स्टॉक बाजार और विश्लेषक मानते हैं। दूसरी चिंता यह है कि गठबंधन सरकारें बड़े स्तर पर कोई सुधार नहीं कर पातीं। फिर भी भारत के सबसे बड़े आर्थिक सुधारों की जब 1991 में शुरूआत हुई थी, तभी से देश गठबंधन सरकारों के दौर में प्रविष्ट हुआ है और लगातार ऐसी अटकलें लगती रही हैं कि अर्थव्यवस्था के धराशायी होने का खतरा है। 1998 का कथित ‘स्पनिल बजट’ एक ऐसी गठबंधन सरकार द्वारा पेश किया गया था जो शायद भारत के इतिहास में सबसे कमजोर थी। (इसे कांग्रेस द्वारा बाहर से समर्थन दिया जा रहा था) ऐसे में यह कहना आसान नहीं कि स्टॉक मार्कीट गठबंधन सरकारों को भारत के लिए अपशकुन क्यों मानती है।
गत वर्ष पत्रकार टी.एन. नाइनन ने तीन सरकारों-यू.पी.ए.-1, यू.पी.ए.-2 और वर्तमान राजग सरकार के मामले में विश्व बैंक के विश्वव्यापक गवर्नैंस सूचकांक की तुलना की थी। भ्रष्टाचार पर नुकेल कसने के मामले में भारत की रैंकिंग बहुत तेजी से सुधरते हुए 2013 के 37.0 की तुलना में 2016 में 47.1 हो गई थी। वैसे यह 2006 में मनमोहन सिंह की सरकार की 46.8 रैंकिंग से बहुत उल्लेखनीय रही है। सरकार की प्रभावशीलता के बारे में 2014 में भारत की रैंकिंग 45.2 थी जबकि 2016 में 57.2 लेकिन यू.पी.ए.-1 की मनमोहन सिंह सरकार के दौर में यही आंकड़ा 57.3 था। नियामक गुणवत्ता के मुद्दे पर 2012 में भारत का स्कोर 35.1 और 2016 में 41.3 था लेकिन 2006 में यह 45.1 था। नाइनन ने इस तथ्य की ओर भी ध्यान दिलाया था कि राजनीतिक स्थिरता तथा हिंसा की गैर-मौजूदगी के मुद्दे पर भारत की रैंकिंग बहुत घटिया है। 2005 में यह रैंकिंग 17.5 और 2014 में 14.8 थी जबकि 2015 में 17.1 लेकिन 2016 में इसमें गिरावट आई और यह 2005 की तुलना में नीचे फिसलते हुए 14.3 पर चली गई।
जहां तक कानून के शासन का सवाल है 2016 में देश की रैंकिंग 52.4 थी जो बेशक 2013 के 52.1 के आंकड़े से मामूली नीचे थी लेकिन 2006 का 58.4 का आंकड़ा बहुत निर्णायक रूप में इससे बेहतर था। छठा और अंतिम सूचकांक है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं जवाबदारी। इस मुद्दे पर भारत की रैंकिंग 2013 के 61.3 से फिसल कर 2016 में 58.6 रह गई। जो तथ्य नाइनन ने प्रस्तुत किए हैं वे काफी स्पष्ट प्रतीत होते हैं। इनमें से कोई भी सूचकांक स्टॉक बाजारों और विश्लेषकों के इस भ्रम की पुष्टि नहीं करता कि ‘मजबूत और निर्णायक’ सरकार कोई भी उपलब्धि कर सकती है जबकि कमजोर गठबंधन कुछ नहीं कर पाता। वास्तव में यह करिश्मा केवल नेतृत्व और इसके दिशाबोध पर निर्भर करता है न कि लोकसभा में विभिन्न पार्टियों की सांसद संख्या पर। हालांकि लगता ऐसा है कि लोकसभा में सांसद संख्या ही निर्णायक कारक है।
जब वास्तविक राष्ट्रीय हित पर चर्चा हो रही होती है तो सभी पाॢटयों का एक स्वर में बात करना मुश्किल नहीं होता, बेशक उनके पास स्पष्ट बहुमत न भी हो। मैं तो यह दलील दूंगा कि ऐसे समय भी आते रहे हैं जब स्पष्ट बहुमत के बावजूद कोई अच्छा काम नहीं हो सका। भारत जैसे विभिन्नता भरे देश में अक्सर मध्य मार्ग अपनाना और फूंक-फूंक कर कदम रखना ही बेहतर और समझदारी भरा काम होता है, न कि बहुत दिलेरी भरा कदम उठाने का दाव खेलना। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि एकदलीय सरकार के पक्ष में जो अवधारणा मौजूद है वह कुछ हद तक हमारे पूर्वाग्रहों पर ही आधारित है। उदाहरण के तौर पर यह एक पूर्वाग्रह है कि सभी क्षेत्रीय पाॢटयां भ्रष्ट हैं और सदैव स्वार्थी ढंग से ही काम करेंगी, या फिर, जातीय आधारित पार्टियों की मानसिकता पोंगापंथी है और वे समझदारी भरा फैसला नहीं ले सकतीं। वास्तविकता यह है कि हमारे लोकतंत्र में कोई भी पार्टी दूसरों से बेहतर होने का दावा नहीं कर सकती।
मेरा लिखने का कारण यह था कि उत्तर भारत की हाल ही की घटनाएं यह इंगित करती हैं कि 2019 के चुनाव में शायद हम त्रिशंकु संसद की ओर बढ़ रहे हैं या फिर ऐसी संसद की ओर जिसमें सत्तारूढ़ पार्टी के पास बहुमत नहीं होगा। यदि यह सच्चाई है और वर्ष के अंत में होने वाले ओपिनियन पोल भी इसकी पुष्टि कर देते हैं तो बाजारों के विश्लेषक तथा कारोबारी अखबारें हमें यही बताएंगी कि अब का साल अर्थव्यवस्था और राजनीतिक स्थिरता के लिए बहुत भयावह होगा। फिर भी हमारा इतिहास यही बताता है कि यह कोई समस्या नहीं है और हम से बहुत से लोगों का तो यह मानना है कि त्रिशंकु संसद ही वास्तव में स्वागतयोग्य चीज है।-आकार पटेल