धार्मिक अल्पसंख्यक एक पुराना मर्ज

Edited By ,Updated: 23 Jul, 2022 06:10 AM

religious minority an old merge

देश में 5जी की क्रांति के उल्लास के बीच ब्रिटिश सिस्टम के तहत सेना भर्ती में अग्निवीर प्रत्याशियों से जाति-प्रमाण पत्र मांगा जा रहा है। अंग्रेजों ने ही धार्मिक आधार पर वोटर लिस्ट की शुरूआत की थी, जिसका अंजाम भारत-पाकिस्तान के विभाजन से हुआ। अब आजादी...

देश में 5जी की क्रांति के उल्लास के बीच ब्रिटिश सिस्टम के तहत सेना भर्ती में अग्निवीर प्रत्याशियों से जाति-प्रमाण पत्र मांगा जा रहा है। अंग्रेजों ने ही धार्मिक आधार पर वोटर लिस्ट की शुरूआत की थी, जिसका अंजाम भारत-पाकिस्तान के विभाजन से हुआ। अब आजादी के 75वें वर्ष में भाषा और धर्म के नाम पर अल्पसंख्यक की नई बहस बेहद ही खतरनाक है। 

संविधान ने सभी को बराबरी का दर्जा दिया है इसलिए जाति, धर्म, लिंग, निवास आदि के आधार पर भेदभाव वर्जित है। लेकिन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को देश की मुख्यधारा में लाने के लिए संविधान में विशेष प्रावधान किए गए हैं। उसी तरीके से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए संविधान में अनेक प्रावधान हैं। 

सुप्रीम कोर्ट की 11 जजों की बैंच ने सन् 2002 में टी.एम.ए. पाई मामले में अल्पसंख्यकों के निर्धारण के लिए ऐतिहासिक फैसला दिया था। उसके अनुसार पंजाब में आर्यसमाजी हिन्दुओं को अल्पसंख्यकों का दर्जा मिला था। उस फैसले के आधार पर देश के अनेक राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में हिंदुओं को अल्पसंख्यकों का दर्जा देने की नई मांग हो रही है। असम के मुख्यमंत्री समेत कई लोग यह मांग कर रहे हैं कि अल्पसंख्यकों का निर्धारण जिला स्तर पर होना चाहिए।

इस मामले में टाल-मटोल करते हुए सरकार ने पहले कहा कि अल्पसंख्यकों के मामले पर केन्द्र के साथ राज्यों के स्तर पर भी फैसला हो सकता है। उसके बाद सरकार ने एफिडेविट को वापस लेकर यू-टर्न कर लिया। सरकार ने संसद में जवाब दिया है कि समान नागरिक संहिता पर राज्य भी कानून बना सकते हैं तो फिर अल्पसंख्यकों के मामलों में कोई राज्य कानून या नियम बनाए तो उस पर कैसे रोक लगेगी? संविधान या कानून में अल्पसंख्यक की स्पष्ट परिभाषा नहीं होने और माइनॉरिटी की आबादी के लिए अधिकतम बैंचमार्क नहीं होने के कन्फ्यूजन से अराजकता की स्थिति बढ़ सकती है।

अल्पसंख्यक आयोग ने मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैनों को अल्पसंख्यक के तौर पर नोटिफाई किया है। केन्द्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के अनुसार भारत में 19.3 फीसदी आबादी अल्पसंख्यक है। अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। लेकिन उनके कल्याण के लिए केंद्र और राज्य सरकारों में अनेक योजनाएं चल रही हैं।

केन्द्र सरकार ने सन् 2001 की जनगणना के आधार पर अल्पसंख्यक प्रधान 90 जिले और 710 ब्लॉकों का चयन किया है। अनेक धर्मों वाले भारत में राज्यों को भी इस बारे में कानून बनाने की हक की बात हो रही है। लेकिन संविधान में दिए गए इसी अधिकार के अनुसार महाराष्ट्र ने यहूदी धर्म वालों को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा बहुत पहले से दे रखा है। दिलचस्प दिखने वाली बहस से कई बड़े संवैधानिक सवाल खड़े हो रहे हैं? क्या किसी राज्य में सबसे बड़े धर्म के अलावा बाकी अन्य आबादी अल्पसंख्यक समुदाय के दायरे में आ सकती है? केन्द्रीय स्तर पर सिखों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिला है।

कश्मीर में मुसलमान, पंजाब में सिख और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में ईसाई बहुसंख्यक हैं। उन राज्यों में हिन्दुओं को अगर अल्पसंख्यक का दर्जा मिल गया तो फिर केन्द्रीय कानून के तहत अल्पसंख्यक के निर्धारण का क्या औचित्य रहेगा? भारत में विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आबादी है। इतनी बड़ी तादाद की आबादी को मुख्यधारा में मानने की बजाय अल्पसंख्यक का दर्जा देना, कितना उचित होगा?

भाषाई अल्पसंख्यक की नई पहल : भाषाई आधार पर 1956 में राज्यों के गठन के बाद कई नए राज्य अस्तित्व में आए, जिसके बाद भाषाई अल्पसंख्यक का मामला ठंडा हो गया। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के जजों ने भाषायी अल्पसंख्यकों के नये पहलू पर बहस छेड़ दी है। अल्पसंख्यक आयोग, केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट और राज्यों में अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने से भाषाई अल्पसंख्यकों का मामला पूरे देश का नया सिरदर्द बना।

संविधान के अनुच्छेद-350 (बी) में भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान है। देश में अधिकांश कामकाज अंग्रेजी में होता है लेकिन संविधान में भारतीय भाषाओं को विशेष मान्यता मिली है। संविधान की 8वीं अनुसूची में हिन्दी, पंजाबी, उर्दू, मराठी, तमिल, तेलगू, बांग्ला, उडिय़ा समेत कुल 22 भाषाएं अधिसूचित हैं। देश के अधिकांश राज्यों में स्थानीय भाषा का सरकारी कामकाज में इस्तेमाल होता है।

भाषा के आधार पर बने राज्यों में क्या दूसरी भाषाओं के बोलने वाले अल्पसंख्यक माने जाएंगे? इस बचकाने तर्क को मान्यता मिलने पर बंगाल में रहने वाले गुजराती, महाराष्ट्र में रहने वाले उडिय़ा और तमिलनाडु में रहने वाले हिन्दी भाषी लोग अल्पसंख्यक के दायरे में आ जाएंगे। संविधान के अनुसार पूरे देश में लोग कहीं भी आवागमन और रोजगार कर सकते हैं। इसके बावजूद हरियाणा समेत कई राज्यों में असंवैधानिक तरीके से स्थानीय लोगों के आरक्षण की बात हो रही है। धर्म के बाद भाषा के आधार पर अल्पसंख्यकवाद के हथियार पर नेताओं की पकड़ अगर मजबूत हो गई तो इसकी फायरिंग से पूरी संवैधानिक व्यवस्था ध्वस्त हो सकती है। 

जाति, भाषा, निवास और धर्म के आधार पर योजनाओं और सरकारी संरक्षण का ट्रैंड बढ़ा तो फिर संविधान की प्रस्तावना और लक्ष्य बेमानी हो सकते हैं। 2022 की आगामी जनगणना में धर्म और भाषा के आधार पर जिला और राज्यों में अल्पसंख्यक  निर्धारण का यह सिलसिला आगे बढ़ा तो फिर ‘एक देश एक नागरिक’ की बजाय अधिकांश लोग अल्पसख्ंयकवाद की गिरफ्त में आना पसंद करेंगे।-विराग गुप्ता(एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)
 

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