सैनिकों का आक्रोश और पहली लड़ाई की अंगड़ाई

Edited By ,Updated: 10 May, 2021 04:21 AM

resentment of soldiers and participation in the first battle

1857 में बंगाल में अंग्रेजी-सत्ता को जड़-मूल से उखाड़ फैंकने को सन्नद्ध हुए विद्रोही सिपाहियों के मुख से पहले-पहल ‘हिंदुस्तान छोड़ दो’ का नारा आकाश में गूंजा था। इस सैन्य आक्रो

1857 में बंगाल में अंग्रेजी-सत्ता को जड़-मूल से उखाड़ फैंकने को सन्नद्ध हुए विद्रोही सिपाहियों के मुख से पहले-पहल ‘हिंदुस्तान छोड़ दो’ का नारा आकाश में गूंजा था। इस सैन्य आक्रोश को लक्ष्य करके ही फिरंगी हुकूमत के खिलाफ जो व्यापक और स्व-स्फूर्त विद्रोह विस्फोटक रूप में प्रकट हुआ,उसे अंग्रेज इतिहासकार केवल ‘गदर’ कहते हैं, जबकि हकीकत में यही विद्रोह भारत का पहला ऐसा मुक्ति संग्राम था, जिसकी शहादत की शृंखला ने इसे देशव्यापी लोक संग्राम में बदल दिया था और इसी का प्रतिफल 15 अगस्त, 1947 को देश को मिली आजादी थी। 

1857 के आने तक भारत को क पनी सरकार की गुलामी का बोझ लादे हुए सौ वर्ष पूरे हो रहे थे। 23 जून, 1857 को पलासी की लड़ाई की शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में अंग्रेज सेना में शामिल भारतीय सैनिकों ने एक ही दिन विद्रोह का झंडा फहराने और अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध सतत संघर्ष का संकल्प लिया था। गोपनीय ढंग से इस सूचना का क्रम ‘कमल और रोटी’ के माध्यम से अधिकांश सैनिक छावनियों में किया जा रहा था। 

सैनिक नेतृत्वकत्र्ताओं ने संघर्ष का यह समय बड़ी सूझबूझ और दूरदॢशता से चुना था। दरअसल यही वह समय था, जब यूरोप में रूस के साथ अंग्रेज युद्धरत थे। इस कारण भारत में बड़ी सं या में सैनिकों को रख पाना संभव नहीं हो रहा था। इस समय भारत में जो अंग्रेजों की फौज थी, उसमें अंग्रेज सैनिकों की सं या केवल 40 हजार थी, जबकि भारतीय सैनिकों की सं या 2 लाख 15 हजार थी। जो अंग्रेज 40 हजार की सं या में थे, वे भी बंगाल, बंबई और मद्रास प्रैसीडैंसियों में बंटे हुए थे। 

सबसे बड़ी बंगाल की सेना थी, जिसमें सामाजिक दृष्टि से समरूपता थी। इस सेना में अवध, बिहार और उत्तर प्रदेश के सैनिक थे। इनमें ब्राह्मण, राजपूत, जाट, सिख और मुसलमानों में सैयद व पठान थे। इन सैनिकों की खास बात यह थी कि इन समुदायों में से ज्यादातर ग्रामीण पृष्ठभूमि से थे। इनके अलावा कुछ छोटे सामंत और जमींदारों के पुत्र भी सैनिक थे। इनमें कई सैनिक उन राज्यों से थे, जिन्हें छल-कपट से पराजित करके अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी लिप्सा का शिकार बना लिया था। इसलिए किसी न किसी रूप में आहत ये सैनिक चाहते थे कि 22 जून 1857 को पलासी की पराजय के सौ साल पूरे होने के दिन उत्सव मनाया जाए और इसके पहले अंग्रेजी सत्ता का पतन हो जाए। 

दिल्ली के बादशाह से मिलकर एकाएक संग्राम का प्रस्ताव रखने वाले साधारण सिपाही नहीं हो सकते थे, इसलिए हम यह जान लें कि इस संग्राम की गुप्त भूमिका रचने में कौन देश प्रेमी संलग्न रहते हुए अपनी जान हथेली पर लिए घूम रहे थे ? दरअसल असंतोष और आक्रोश की भावना तो चहुंओर थी और हर वर्ग में थी, महज इस घृणा को विस्फोटक रूप देना था। इस चक्रव्यूह की संरचना में संलग्न थे नाना साहब, तांत्याटोपे और अजीमुल्ला खां। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का लालन-पालन नाना की देखरेख में ही हुआ था, इसलिए झांसी के दुर्ग से जबरदस्ती विस्थापित कर दी गई रानी भी संग्राम की भावी योजना में शामिल थीं। अजीमुल्ला ने इस संग्राम के समर्थन के लिए यूरोप में भी सक्रियता दिखाई थी। 

पहले उन नरेशों से सहभागिता की अपेक्षा की गई जो अंग्रेजों की कुटिलता का शिकार बने थे। भारत में कुल 35 हजार राज्य व जागीरें थीं, जिनमें से 21 हजार को अंग्रेज अपने अधीन 1857 तक कर चुके थे। शुरूआत में देशी राजाओं ने इन पत्रों पर विशेष ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब 1856 में अवध का क पनी राज में विलीनीकरण हो गया तो सभी भारतीय नरेशों के कान खड़े हो गए। वे समझ गए कि 

फिरंगियों की तलवार उनके सिर पर भी लटकी हुई है। भारत जैसे विशाल भू-भाग वाले देश में इस तरह से लाखों ग्रामों में क्रांति का आह्वान कर दिया गया और अंग्रेजों को कानों-कान खबर भी नहीं लगी। कमल और रोटी के प्रतीकों के रूप में क्रांति की अर्थसूचक गोपनीयता तब तक बनी रही थी, जब तक मंगल पांडे की बंदूक से गोली नहीं छूटी थी।

अंतत: भारत के लोक-मानस में क्रांति के सूत्रधार यह संदेश पहुंचाने में सफल हो गए कि 31 मई 1857 के दिन एक साथ विद्रोह का बिगुल बजाते हुए व यह नारा बुलंद करते हुए कि ‘खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का’ किलों और सामरिक महत्व के भवनों व प्रशासनिक  कार्यालयों पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया जाए। किंतु भारतीयों के भाग्य में अभी परतंत्रता की बेडिय़ां ही लिखी थीं, सो नियत दिन 31 मई 1857 को विप्लव की चिंगारी एक साथ नहीं सुलग पाई।

हुआ यूं कि बैरकपुर के पास दमदम का एक ब्राह्मण सैनिक पानी का भरा लोटा लिए छावनी की ओर जा रहा था। यकायक एक मेहतर ने निकट आकर प्यास बुझाने के लिए लोटा मांग लिया। सिपाही चूंकि ब्राह्मण था, इसलिए एक हद तक रूढि़वादी भी था। 

छुआछूत की भावना के चलते सैनिक ने लोटा देने से इंकार कर दिया। तब मेहतर ने सिपाही का उपहास उड़ाते हुए कहा, ‘‘अब जात-पात का घमंड छोड़ो? क्या तु हें मालूम नहीं कि तु हें दांतों से काटने वाले जो कारतूस दिए जा रहे हैं, उनमें गाय का मांस और सूअर की चर्बी मिली हुई है। इस जानकारी से आग बबूला हुआ सिपाही छावनी में लौट आया। उसने अन्य फौजियों को यह वाक्या सुनाया तो उनकी आंखों में गुस्से के लाल डोरे तैरने लगे। फलस्वरूप 10 मई, 1857 को मेरठ में इन सिपाहियों ने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह का शंखनाद कर दिया। इसे ही 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया है।-प्रमोद भार्गव

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