भारत-पाक वार्ता की बहाली एक ‘स्वागतयोग्य श्रीगणेश’

Edited By ,Updated: 12 Dec, 2015 09:32 PM

resumption of indo pak talks a welcome debut

ईसा से 6 शताब्दी पूर्व महान चीनी दार्शनिक और राजनीतिक सिद्धांतकार कन्फ्यूशियस ने कहा था : ‘‘हजार मील की यात्रा भी एक छोटे से कदम से शुरू होती है।

(बी.के. चम): ईसा से 6 शताब्दी पूर्व महान चीनी दार्शनिक और राजनीतिक सिद्धांतकार कन्फ्यूशियस ने कहा था : ‘‘हजार मील की यात्रा भी एक छोटे से कदम से शुरू होती है। इस बात का कोई अर्थ नहीं कि आप धीरे चलते हैं या तेजी से, महत्व तो इस बात का है कि आप बिना रुके यात्रा जारी रखें। हमारी सबसे महान उपलब्धि यह नहीं कि हम कभी विफल न हों, बल्कि गिरने के बाद हर बार उठ खड़े होना ही महत्वपूर्ण है।’’
 
अपनी रुकी हुई वार्तालाप को गत सप्ताह दोबारा शुरू करके भारत और पाकिस्तान ने महान चीनी दार्शनिक के उपदेश के पूर्वाद्र्ध को साकार किया है। दोनों देशों के सदाबहार तनावग्रस्त रिश्तों (जोकि यदा-कदा युद्ध का रूप भी धारण करते रहे हैं) के मद्देनजर  बेशक यह शुरूआत स्वागतयोग्य है, फिर भी यह भविष्यवाणी करना बहुत जोखिम भरा है कि अपने संबंधों को सामान्य बनाने की हजार मील की यात्रा वे कितने समय में पूरी कर पाएंगे।
 
इस घटनाक्रम को पाकिस्तान की इस जिद की पृष्ठभूमि में आंके जाने की जरूरत है कि द्विपक्षीय एजैंडे में कश्मीर शीर्षस्थत मुद्दा होना चाहिए, जबकि नई दिल्ली चाहती है कि द्विपक्षीय वार्ताएं पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद प्रायोजित करने के मुद्दे पर केन्द्रित हों। वर्तमान में तो दोनों पड़ोसी देश जिस प्रकार लंबे समय से अवरुद्ध द्विपक्षीय वार्ताओं की बहाली हेतु  कड़ा रुख त्यागते हुए समझौते पर पहुंचे हैं उसके बारे में केवल कयास ही लगाए जा सकते हैं। इन वार्ताओं को अब दोनों पक्षों के दृष्टिकोणों का समावेश करते हुए नया नाम प्रदान किया गया है : ‘व्यापक द्विपक्षीय वार्तालाप’। दोनों देशों के रिश्तों को दुश्वार बना रहे मुद्दों को हल करने के  उनके प्रयास का यह प्रशंसनीय श्रीगणेश है।
 
वार्तालाप की बहाली के मुद्दे पर दोनों के हाल ही के कड़े रुख में परिवर्तन तीन कारणों से आया है। पहला कारण प्रत्यक्षत: वाशिंगटन का हस्तक्षेप है। वाशिंगटन चाहता है कि आई.एस.आई.एस. का मुकाबला करने के लिए वैश्विक स्तर पर एकजुट कार्रवाई होनी चाहिए। 
 
दूसरा कारण है कि आई.एस.आई.एस. ने  सीरिया-ईराक में अपने गढ़ से धमकी जारी की है कि वह अपनी ङ्क्षहसक गतिविधियां दुनिया भर में फैलाएगा और भारतीय उपमहाद्वीप भी उसका लक्ष्य बनेगा। एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित रिपोर्ट का दोबारा उल्लेख करने से उसकी मंशा भली-भांति स्पष्ट हो जाती है : ‘‘3 दिसम्बर को जारी अपने ‘काले परचम वालों का घोषणा पत्र’ में आई.एस.आई.एस. ने अपने युद्ध को भारत-पाकिस्तान-बंगलादेश-अफगानिस्तान (और कई अन्य देशों) तक विस्तार देने की कसम खाई है। राष्ट्रपति (!) नरेन्द्र मोदी दक्षिणपंथी हिन्दू राष्ट्रवादी है जो मुस्लिमों के विरुद्ध भविष्य के युद्ध के लिए अपने लोगों को तैयार कर रहा है और शस्त्रों की पूजा करता है।’’
 
जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ पहले से यह संकेत मिल रहे हैं कि पाकिस्तान में भी आई.एस.आई.एस. की उपस्थिति बढ़ती जा रही है। यह महसूस करते हुए कि ङ्क्षचतित अमरीका आई.एस.आई.एस. का मुकाबला करने के लिए  एकजुट ग्लोबल कार्रवाई चाहता है और पाकिस्तान सहित उन देशों की सहायता करेगा जो अपनी भूमि में से उग्मित आतंकवादियों का निशाना बने हुए हैं। पाकिस्तानी सेना प्रमुख रहील शरीफ ने हाल ही में अमरीका की यात्रा की थी जहां उन्होंने अमरीकी रक्षा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात की। यह घटनाक्रम पाकिस्तानी सेना तंत्र को नवाज शरीफ की सिविलियन सरकार के गिर्द अपना नागपाश और भी कसने में सहायता देगा जिसका तात्पर्य यह है कि वर्तमान भारत-पाकिस्तान वार्ता प्रक्रिया को सेना की पूरी सहमति हासिल है।
 
भारत जबकि खास तौर पर जम्मू-कश्मीर में पहले ही पाकिस्तान आधारित आतंकियों की कार्रवाइयों का शिकार है और ऊपर से इसे अब आई.एस.आई.एस. की धमकी का भी सामना करना पड़ रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय सेना की 15वीं कोर के जनरल आफिसर कमांडिग लै. जनरल सतीश दुआ ने हाल ही में कहा : ‘‘आई.एस.आई.एस. की चुनौती वास्तविक और सजीव है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। यह चिंता की बात है और हम घटनाक्रम पर नजर रखे हुए हैं।’’ वह आई.एस.आई.एस. का लश्कर-ए-तोयबा एवं जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों के साथ गठबंधन बनने की संभावना के बारे में सवालों के जवाब दे रहे थे। उन्होंने कहा, ‘‘सुरक्षा बल और गुप्तचर एजैंसियां पल-पल की स्थिति पर नजर रखे हुए हैं।’’
 
अपनी न्यूयार्क यात्रा के दौरान सितम्बर में मोदी ने जॉर्डन, मिस्र,स्वीडन इत्यादि के नेताओं के साथ अपनी बैठकों में रणनीतिक महत्व वाले एवं आई.एस.आई.एस. से निपटने के लिए ग्लोबल सहयोग पर लक्ष्य बनाते हुए सार्थक कदम उठाया था। उन्होंने आतंक को मजहब से अलग करके देखने की जरूरत को रेखांकित किया जिससे इस अवधारणा को बल मिला कि मुख्य रूप में पाकिस्तान सहित अधिकतर मुस्लिम देशों के इस्लामी संगठन ही आतंकी कार्रवाइयों में संलिप्त हैं।
 
स्वार्थों  का  टकराव राजनीतिज्ञों को अक्सर ऐसे कदम उठाने के लिए मजबूर कर देता है जोकि उनके रोजमर्रा के दावों और विश्वासों से बेमेल होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों और घरेलू मोर्चे पर आतंकवाद का विरोध करने के मुद्दे पर मोदी सरकार की मुद्रा भी कुछ ऐसी ही है। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रधानमंत्री का प्रशंसनीय स्टैंड देश के अंदर मुस्लिम और हिन्दू जुनूनियों की आतंकी कार्रवाइयों से निपटने के मामले में अलग-अलग रुख अपनाने के सर्वथा विपरीत है।
 
कहते हैं आतंकियों का कोई मजहब नहीं होता फिर भी आतंकी कार्रवाइयों के कर्णधार के रूप में गाज मुख्य तौर पर मुस्लिम जुनूनी तत्वों पर ही गिरती है। मोदी नीत सरकार सहित एक के बाद एक भारतीय सरकारें इन तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई करती आई हैं। फिर भी ऐसे मामले देखने में आए हैं जहां हिन्दू जुनूनी भी आतंकी कार्रवाइयों में संलिप्त पाए गए हैं। 
 
पूर्ववर्ती सरकारें इन कार्रवाइयों को अंजाम देने वाले कुछ लोगों के विरुद्ध भी कार्रवाई करती रही हैं, परन्तु मोदी सरकार ने अक्सर उन हिन्दू चरमपंथियों को बचाने का प्रयास किया है जिन पर आतंकी कार्रवाइयों के आरोप लगे हैं। ऐसे कुछ मामलों का स्मरण करना असंगत नहीं होगा।
 
विशेष जन अभियोजक रोहिणी सालियान ने कहा था, ‘‘गत जुलाई में राष्ट्रीय जांच एजैंसी ने उन्हें कहा था कि 2008 के मालेगांव विस्फोटों के मामले में बहुत तेज गति से आगे न बढ़ें, जबकि मैंने उन 9 मुस्लिमों को बरी किए जाने का अनुरोध किया था जिनको महाराष्ट्र सरकार की ए.टी.एस. और सी.बी.आई. ने गिरफ्तार कर 2006 के मालेगांव विस्फोट के संबंध में आरोप पत्रित किया था।’’ रोहिणी के इस बयान के बाद विस्फोट के 2 अन्य मामलों (2007 का अजमेर दरगाह का विस्फोट और समझौता एक्सप्रैस विस्फोट) में क्रमश: 15 और 14 गवाह अपने बयानों से मुकर गए।  इन धमाको के आरोपियों में से सबसे प्रमुख था असीमानंद। बाद में रोहिणी को कहा गया कि वह इस मामले में से दूर ही रहें।
 
चरमपंथी हिन्दूवादी तत्वों द्वारा एम.एम. कालबुर्गी सहित कुछ विद्वानों और तर्कवादियों की हत्या की गई क्योंकि उनकी पैनी लेखन शैली से वे क्रुद्ध थे। मोदी सरकार ने उन भाजपा सांसदों और ‘साधुओं’ व ‘साध्वियों’  के विरुद्ध भी कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जो अपने उग्र और विभाजनकारी बयानों से ऐसा वातावरण सृजित करते रहे हैं जो साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए उचित नहीं। साम्प्रदायिक सौहार्द सुनिश्चित करने के मोदी के दावों और अंतर्राष्ट्रीय समुदायों को आतंकवाद के विरुद्ध लडऩे के उनके आह्वान के विपरीत  भारत में मौजूद हिन्दू चरमपंथी जुनूनियों के विरुद्ध उनकी कार्रवाइयां केवल यह सिद्ध करती हैं कि राजनीति में पाखंड का ही बोलबाला होता है।
 
अब न केवल मोदी के लिए बल्कि देश हित में भी यह जरूरी हो गया है कि प्रधानमंत्री हिन्दू गर्मदलीयों पर अंकुश लगाने के कदम उठाकर स्थिति में सुधार करें और बिहार में भाजपा की भारी-भरकम पराजय के बाद अपनाई गई अपनी नरम छवि को और भी सशक्त बनाएं।
 
 
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