उत्तर प्रदेश में ‘राम राज’ की वापसी

Edited By ,Updated: 14 Mar, 2017 11:45 PM

return of ram raj in uttar pradesh

वर्ष 2017 का जनादेश आम आदमी के लिए एक  नई कसौटी बनकर उभरा....

वर्ष 2017 का जनादेश आम आदमी के लिए एक  नई कसौटी बनकर उभरा है जिसने अपनी बुद्धिमता और परिपक्वता का परिचय देकर अकेली पार्टी को सत्तारूढ़ किया और इस प्रकार शासन में स्थिरता प्रदान की। इन चुनावों में जीत ने हिन्दी भाषी क्षेत्र के केन्द्र में क्षेत्रीय क्षत्रपों की वोट बैंक की राजनीति, उनकी मोहल्ला मानसिकता और संकीर्णता, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का अंत किया और बदलाव तथा उभरती आकांक्षाओं की रचनात्मक राजनीति की शुरूआत की। इन चुनावों ने यह भी स्पष्ट किया कि जो जीता वही सिकंदर। 

मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में से 3 राज्यों में ऐतिहासिक जीत दर्ज की और 14 वर्ष के अंतराल के बाद भाजपा उत्तर प्रदेश में सत्ता में वापस लौटी है। इन 14 वर्षों के दौरान राज्य में सपा और बसपा के हाथों में सत्ता की बागडोर रही है। इन चुनावों ने मोदी लहर को और गति प्रदान की है। किन्तु अब प्रश्न उठता है कि क्या राम राज्य की वापसी होगी। 

इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन चुनावों ने देश के राजनीतिक चरित्र को बदला है और ये भाजपा, कांग्रेस तथा उत्तर प्रदेश की 2 क्षेत्रीय पाॢटयों बसपा व सपा के लिए गेम चेंजर साबित हुए हैं और उन्हें अपनी पहचान तथा भविष्य को पुनर्निर्धारित करना होगा। वस्तुत: यह जीत मैं, मेरा और हमारा सिंड्रोम की भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति है और जातीय, सांप्रदायिक राजनीति को नकारती है। मोदी का करिश्मा, उनकी वाक् कला और राजनीतिक रणनीति के चलते वे परिपाटी से हटे। उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, जाति, उपजाति, अन्य पिछड़े वर्ग की राजनीति को तोड़ा और आगे बढ़े तथा विकास को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया और जिसके चलते मतदाताओं ने उनमें पूर्ण निष्ठा व्यक्त की तथा उन्हें बदलाव का प्रणेता माना। 

नमो की सुनामी के 4 महत्वपूर्ण कारक हो सकते हैं। इनमें पहला जाति, सांप्रदायिक राजनीति  से हटना, वंशवाद तथा संतुष्टिकरण की राजनीति को नकारना तथा विकास को मुख्य मुद्दा बनाना तथा इसे गरीबी से उबरने का साधन बताना। दूसरा, सरसरी तौर पर मोदी का नोटबंदी का निर्णय भ्रष्ट और धनी लोगों के विरुद्ध था और गरीब लोगों के पक्ष में था जिसके चलते भाजपा को अपने परंपरागत वोट बैंक व्यवसायियों और दुकानदारों के अलावा अन्य वर्गों का भी समर्थन मिला।

उन्होंने गरीब और पिछड़े वर्गों को सपा और बसपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियों से अलग करने में सफलता प्राप्त की और इस प्रकार 2019 के आम चुनावों की रूपरेखा तैयार की। भाजपा के उदय के साथ-साथ जाति, समुदायों का कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक कांग्रेस से दूर हुआ। 2014 के लोकसभा चुनावों में भी पार्टी का जनाधार बढ़ा था किन्तु उस समय के जनादेश को मोदी की लहर में यू.पी.ए. के विरुद्ध लहर माना जा रहा था। 

तीसरा, मुसलमानों को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट न देकर उन्होंने सभी हिन्दुओं को जातीय भेदभाव भुलाकर एकजुट किया। चौथा, हिन्दू ब्रिगेड ने बिखरे विपक्ष को रौंदा और ऐसा लग रहा था कि मोदी की नोटबंदी से उनकी लोकप्रियता कम होगी। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न कर भगवा संघ का मानना था कि वह इन चुनावों में ब्रांड मोदी के दम पर जीत जाएगा। 

तथापि यह चुनाव मोदी के आॢथक एजैंडे की पुष्टि करता है और उन्होंने इन चुनावों को अपने कार्य और निर्णयों पर जनमत संग्रह के रूप में बदला। तथापि भाजपा की उत्तर प्रदेश में जीत की भारी कीमत भी है जहां पर संघ नेताओं ने अनेक वायदे किए। अब प्रश्न उठता है कि क्या मोदी अपने सुधार के एजैंडा, नई आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाते रहेंगे और क्या वे ऐसी नीतियां अपनाएंगे जिनमें उन्हें अमीरों, बेईमानों के विरुद्ध कदम उठाने पड़ें तथा ऐसे अपराधियों को जेल में डालेंगे या वह यथास्थितिवादी नीति अपनाएंगे? 

दूसरी ओर कांग्रेस और सपा ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा और उन्हें आशा थी कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की लोकप्रियता के बल पर चुनाव जीत जाएंगे। अखिलेश यादव रातों-रात नेता बन गए थे जबकि पप्पू 11 वर्षों से अपनी मां सोनिया के पल्लू में ही रह रहे हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है इस 132 वर्ष पुरानी पार्टी को अपने अस्तित्व के संकट से गुजरना पड़ रहा है और भाजपा को चुनौती देने वाली मुख्य पार्टी के रूप में उसकी छवि खराब हुई है। 

आज उसे उत्तर प्रदेश में केवल 7 सीटें मिली हैं जबकि पिछली बार उसे 27 सीटें मिली थीं और यही नहीं राहुल के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी में कांगे्रस को सभी सातों सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा। उत्तराखंड में भी उसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा और मणिपुर में भी वह बहुमत प्राप्त नहीं कर सकी। पंजाब की जीत का श्रेय भी राहुल को नहीं अपितु कैप्टन अमरेन्द्र सिंह तथा अकाली दल के बादलों के विरुद्ध जनता की लहर को जाता है। आज कांग्रेस केवल 7 राज्यों में सत्तारूढ़ है और उनमें भी एक राज्य में भी वह जूनियर पार्टनर है। 

वर्ष 2019 के चुनावों की राह कांग्रेस और राहुल के लिए और कठिन बनने वाली है। आज कांग्रेस के पास सुयोग्य नेतृत्व नहीं है और पार्टी बड़ी दुविधा में है क्योंकि पार्टी को एकजुट रखने वाला नेहरू-गांधी परिवार सुयोग्य नेतृत्व प्रदान नहीं कर पा रहा है। समय आ गया है कि कांग्रेस आज इस परिवार के समक्ष ‘जो हुकुम’ की संस्कृति छोड़ दे क्योंकि इससे पार्टी को वोट नहीं मिल रहे हैं अपितु इसका अस्तित्व संकट में पड़ रहा है। इसलिए कांग्रेस को ईमानदारी से आत्मावलोकन करना चाहिए। 

पार्टी संगठन में आमूल-चूल परिवर्तन करना चाहिए और विश्वसनीयता पुन: प्राप्त करने के लिए एक जिम्मेदारतथा प्रभावी विपक्षी दल के रूप में व्यवहार करना चाहिए अन्यथा कांग्रेस मुक्त भारत की भाजपा की चाह पूरी हो सकती है। समाजवादी पार्टी के अंदर कलह की पार्टी को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। पिता और चाचा शिवपाल से लड़कर अखिलेश के समक्ष राज्य की गद्दी बचाने की कठिन चुनौती थी। साथ ही उन्हें पार्टी में भी अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ रहा था जिससे उनकी चुनौती और बढ़ गई थी। उनके चाचा तथा सौतेली मां भी उनके विरुद्ध थी इसलिए उसका मुख्य जनाधार मुस्लिम मत उससे खिसक गया। 

मायावती की बसपा का भविष्य भी स्पष्टत: दिखाई दे रहा है। उत्तर प्रदेश में फिलहाल उनका पूरा सफाया हो गया है और बसपा केवल 17 सीटें जीत पाई। पहले उन्होंने धर्म और जाति के आधार पर टिकट बांटे किन्तुु वह जनता का मन पढऩे में विफल रही कि उसने जाति और सम्प्रदाय की राजनीति को सबक सिखाने का मन बनाया है। वह इस भ्रम में भी थी कि वह कोई गलती नहीं कर सकती और इसलिए वह यह नहीं समझ पाई कि दलित वोट बैंक भी उसका साथ छोड़ सकता है और उसके चुनावी वायदे केवल अपने लाभ के लिए हैं न कि राज्य की जनता के लाभ के लिए। आज बहन जी के समक्ष बड़ी चुनौती है कि वह अपने भविष्य को तलाशे अन्यथा उन्हें अस्तित्व का संकट का सामना करना पड़ेगा।

जहां तक उभरती ‘आप’ का सवाल है वह दिल्ली से बाहर पंजाब में पांव जमाने में सफल रही है और वह वहां मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी है। इससे अरविंद केजरीवाल को भी अपना जनाधार बढ़ाने का मौका मिला है। दिल्ली में भारी जीत के बाद वह दिल्ली से बाहर अपना जनाधार बढ़ाना चाह रहे थे हालांकि पंजाब की हार से फिलहाल उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं पर ब्रेक लग गई है। किन्तु यदि वह ठीक से नीतियां अपनाते तो नीतीश, ममता और नवीन की तरह एक वैकल्पिक राजनीतिक मंच उपलब्ध करा सकते थे। लोकतंत्र के लिए विपक्ष आवश्यक है। 

कुल मिलाकर 2017 के चुनाव एक नए भारत तथा समावेशी विकास के उभरते राजनीतिक दर्शन के लिए वोट था। स्वयं मोदी ने कहा है, ‘‘हमारे समय काप्रत्येक क्षण और हमारा हर कार्य भारत के लोगों के कल्याण के लिए है। हम 125 करोड़ भारतीयों की क्षमता मेंविश्वास करते हैं।’’ क्या वे भारतीय राजनीति को एक नई दिशा देंगे? क्या वे कार्य करने की राजनीति के एक नए युग का सूत्रपात करेंगे? इन प्रश्नों का उत्तर केवल समय ही दे सकता है।  

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