जातिवादी दलों का उभार विकास के लिए खतरा

Edited By ,Updated: 28 Mar, 2019 04:16 AM

riskist racialist threats to develop

अगर लोकसभा चुनाव में डांसर सपना चौधरी को प्रत्याशी बनाने के लिए 2 बड़े दलों -भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच रस्साकशी हो रही हो तो देश के प्रजातंत्र की दशा व दिशा समझी जा सकती है। सैद्धांतिक मान्यता है कि देश की राजनीतिक पार्टियों की...

अगर लोकसभा चुनाव में डांसर सपना चौधरी को प्रत्याशी बनाने के लिए 2 बड़े दलों -भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच रस्साकशी हो रही हो तो देश के प्रजातंत्र की दशा व दिशा समझी जा सकती है। सैद्धांतिक मान्यता है कि देश की राजनीतिक पार्टियों की जिम्मेदारी होती है कि मतदाताओं में सही समझ और तार्किक सोच विकसित करें, लेकिन पिछले 70 साल में हुआ ठीक उलटा।

जाति, उप-जाति, धर्म, क्षेत्र भाषा और अन्य संकुचित आधार पर इन दलों ने वोट की अपील करनी शुरू की। फिर इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए नए धुर-जातिवादी दल पैदा हुए और वह भी हजारों की संख्या में, जहां ये सब बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों की असफलता के कारण हुआ वहीं गठबंधन इन बड़े दलों के लिए मजबूरी बनती गई। यानी ब्लैकमेल होने के लिए अपने को समर्पित करना पड़ा। 

भाजपा ने घुटने टेके
वर्तमान चुनाव में इसका सबसे खतरनाक स्वरूप देखने को मिला जब भारतीय जनता पार्टी ने नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) जद (यू) के सामने और महाराष्ट्र में शिवसेना के आगे घुटने टेके। बिहार में बराबर सीटें बांटीं और बची सीटें तीसरे जातिवादी दल-राम विलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी को दीं। प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने भी लगभग सजदा करते हुए लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की सभी शर्तें मानीं। इस ‘‘महागठबंधन’’ में कुल 6 जातीय दल हैं और सीटों में सबका ‘शेयर’ है।

देश के सबसे बड़े सूबे में कांग्रेस को मजबूरन अलग लडऩा पड़ा क्योंकि धुर जातिवादी पाॢटयों-मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने अपने संयुक्त प्रभाव पर ज्यादा भरोसा किया। जिस प्रदेश से कांग्रेस  ने नेहरू सहित आधा दर्जन प्रधानमंत्री दिए हों उस पार्टी की यह दुर्गति राजनीति में मूल्यों और प्रतिबद्धताओं की अनदेखी को उजागर करती है और जनता की सोच कुंठित होने का भी संकेत देती है।

दरअसल जनता को लुभाने के लिए इन पार्टियों के नाम बड़े ही लुभावने रखे जाते हैं। मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी का नाम समाजवादी पार्टी रखा है जबकि खतरनाक अपराधियों और पूंजीपतियों ने उस पार्टी के टिकट पर संसद और विधानसभा  (जो प्रजातंत्र के मंदिर माने जाते हैं) को  ‘पवित्र’ किया। पार्टी स्वयं को लोहिया के सिद्धांतों वाली पार्टी बता कर वोट लेती रही और इन मंदिरों में कानून बनाती रही लेकिन पुलिस और राज्य सिविल सेवा में अचानक एक जाति-विशेष का प्रतिशत कई गुना बढ़ गया।

हाई कोर्ट को ये नियुक्तियां रोकनी पड़ीं। लालू यादव भी उसी लोहिया को याद करते हैं और उनकी पार्टी का नाम राष्ट्रीय जनता दल है जिसमें सीवान जिले का एक खतरनाक अपराधी चार बार संसद को ‘‘पवित्र’’ कर चुका है। लोहिया से लालू और वहां से शहाबुद्दीन तक-यह है समाजवाद की 70 साल की यात्रा। दूसरी ओर लोहिया से मुलायम-अखिलेश से होते हुए अपराधी अन्ना शुक्ला के रास्ते बदनाम खनन मंत्री गायत्री प्रजापति तक जाता है। जरा सोचिए कोई खतरनाक अपराधी सांसद या विधायक पार्टी के टिकट पर जीते और आरोपों से घिरा एक व्यापारी चारा घोटाले में सजा काट रहे पार्टी अध्यक्ष लालू यादव की सलाह पर ‘सामाजिक न्याय’  के नाम पर गरीबों व पिछड़ों का ‘भाग्य सुधारें’ तो वह कैसा सुधार होगा।

कहते हैं समय के साथ प्रजातंत्र परिपक्व होता है और मानदंडों के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ती है। इंगलैंड इसका उदाहरण है। लेकिन भारत में ठीक उलटा हो रहा है। भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बैठे लालू यादव नाबालिग लड़की से बलात्कार के आरोप में आजीवन सजा काट रहे पूर्व पार्टी विधायक राज बल्लभ यादव की पत्नी को टिकट दे देते हैं क्योंकि इस पूर्व विधायक पर इतने घिनौने मामले में सजा के बाद भी इसका यादवों में प्रभाव है। क्या यादव को यह लगता है कि बलात्कारी केवल गैर-यादव नाबालिग बालिकाओं को ही शिकार बनाता है और अगर यह भी सच है तो यादव इसे इसलिए क्षमा करेगा कि वह अपनी जाति का हितैषी ‘बलात्कारी नेता’ है। अगर वह नहीं तो उसकी पत्नी ही सही।

जनता कहीं यह तो नहीं मान चुकी है कि अपराध, बलात्कार और पूंजी के बगैर नेता हो ही नहीं सकता यानी देश के 25 लाख करोड़ के बजट और 135 करोड़ लोगों के भाग्य का फैसला करने वाले के पास यह गुण होना पहली शर्त है? क्या प्रजातंत्र में सब कुछ ठीक चल रहा है? क्या वजह है कि पिछले 22 सालों में हुए आधा दर्जन आम चुनावों में राष्ट्रीय दलों का मत प्रतिशत आधे से भी कम रहा और शेष आधे से ज्यादा इन संकीर्ण सोच को प्रश्रय देने वाले दलों को?

क्यों मजबूर है भगवा दल
भारतीय जनता पार्टी ऐसे किसी समाजवाद की वकालत से परहेज करती है लेकिन राष्ट्रवाद का वह कौन-सा चरण है जिसमें उसे भी इन्हीं जातिवादी पार्टियों से समझौता करना पड़ता है? उत्तर प्रदेश में किसी राजभर या किसी पटेल की पार्टी से तो बिहार में किसी पासवान की ‘लोक जनशक्ति’ पार्टी से, क्या उसे दलित उत्थान की अपनी नीति पर भरोसा नहीं? क्या उसे किसी पटेल या राजभर जाति के विकास से परहेज है? यह वैसाखी क्यों ? क्यों तमाम आदर्शवाद और राष्ट्रवाद के बाद भी किसी राजभर की जरूरत होती है और कर्नाटक में गैर-कानूनी व्यवसाय में बदनाम रेड्डी बंधु की मदद अपरिहार्य हो जाती है? क्यों कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 70 साल बाद भी धुर जातिवादी दलों के साथ मिले बिना अस्तित्व का संकट झेलती है?

लेकिन गहराई से सोचने पर पता चलता है कि गलती इन अपराधियों, धनपशुओं या गैर-कानूनी धंधे में लिप्त बदनाम लोगों की नहीं है, ये चुनाव जीत कर आए हैं और जनता ने इन्हें वोट दिया है। अपराध और अनैतिकता के प्रति अगर जनता की नीति ‘जीरो टॉलरैंस’ की नहीं है तो गलती किसकी है? हम यह कह कर नहीं बच सकते कि राजनीति में अच्छे विकल्प नहीं हैं। अच्छे लोग इसलिए नहीं आते  कि आपने उन्हें आने नहीं दिया अपनी बिरादरी के प्रति लगाव के कारण और अपराधी में ‘गरीबनवाज’ (रोबिनहुड) देख कर। ‘‘फलां अपराधी भले ही अपराधी हो लेकिन अपनी बिरादरी (या धर्म) वालों को कभी तंग नहीं करता और गरीब की शादी में मदद करता है यानी अमीर को लूटता है’’ का भाव राजनीति में अच्छे, नैतिक लोगों को प्रवेश से रोकता है।

इन जातिवादी या अन्य संकीर्ण सोच पर आधारित दलों का इस चुनाव में कितना वर्चस्व रहेगा, इसके लिए कुछ आंकड़े देखें। 9 राज्यों में 332 सीटों पर कम-से-कम त्रिकोणीय अन्यथा बहु-कोणीय मुकाबला है जबकि केवल 8 राज्यों की 144 सीटों पर दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का सीधा मुकाबला है। दोष राजनीति का नहीं लोगों की सोच का है, और उन राष्ट्रीय दलों का है जो आदर्शवाद का दावा तो करते हैं लेकिन जनता को अतार्किक, अवैज्ञानिक और संकीर्ण पहचान से निकालने के बजाय उसमें धकेल रहे हैं।-एन.के. सिंह     

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