सत्ताधारी वर्ग सी.बी.आई. के साथ खिलवाड़ बंद करे

Edited By Pardeep,Updated: 30 Oct, 2018 03:16 AM

ruling class cbi stop playing with

मध्य रात्रि को अभूतपूर्व विद्रोह हुआ जिसमें रात्रि के 1 बजे सी.बी.आई. निदेशक आलोक वर्मा को हटाकर उनके स्थान पर संयुक्त निदेशक नागेश्वर राव की नियुक्ति की गई और इसका कारण निदेशक वर्मा और विशेष निदेशक अस्थाना के बीच सार्वजनिक रूप से आरोप-प्रत्यारोपों...

मध्य रात्रि को अभूतपूर्व विद्रोह हुआ जिसमें रात्रि के 1 बजे सी.बी.आई. निदेशक आलोक वर्मा को हटाकर उनके स्थान पर संयुक्त निदेशक नागेश्वर राव की नियुक्ति की गई और इसका कारण निदेशक वर्मा और विशेष निदेशक अस्थाना के बीच सार्वजनिक रूप से आरोप-प्रत्यारोपों का दौर था। दोनों एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे थे और दोनों को छुट्टी पर भेज दिया गया। 

दोनों न्यायालय की शरण में गए। वर्मा उच्चतम न्यायालय की शरण में गए और अस्थाना ने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपने विरुद्ध दायर प्रथम सूचना रिपोर्ट को रद्द करने के लिए याचिका दायर की, जो मोइन कुरैशी रिश्वत मामले में वर्मा के निर्देश पर दर्ज की गई थी। परिणाम यह हुआ कि उच्चतम न्यायालय ने मुख्य सतर्कता आयुक्त को 10 दिन में जांच पूरी करने और राव को कोई नीतिगत निर्णय न लेने का निर्देश दिया। 

देश की प्रमुख जांच एजैंसी में चल रहे इस प्रकरण से उसका उपहास हुआ और यह अनेक स्तरों पर विफलता को दर्शाता है। वास्तव में वर्मा, अस्थाना और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा मिल-बैठकर इस स्थिति से बचा जा सकता था। मुख्य सतर्कता आयोग या प्रधानमंत्री कार्यालय को इस मुद्दे को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए था। ऐसा पहली बार नहीं हुआ और न ही यह अंतिम बार है। गत वर्षों में देश की प्रमुख एजैंसी में ऐसे अनेक प्रकरण हुए जिसके चलते इसे सैंट्रल ब्यूरो ऑफ करप्शन, कनाइवैंस और कनवीनियंस के उपनाम दिए गए। मधुर विडम्बना देखिए। विपक्ष मोदी-शाह पर सी.बी.आई. की विश्वसनीयता से समझौता करने का आरोप लगा रहा है जबकि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने सी.बी.आई. पर पक्षपात करने और गुजरात के लोगों को निशाना बनाने का आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था कि हमें दुश्मन राज्य की तरह क्यों माना जा रहा है? आज स्थिति अलग है। प्रधानमंत्री के रूप में उन पर अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने का आरोप लगाया जा रहा है, साथ ही सी.बी.आई. की तथाकथित स्वायत्तता और स्वतंत्रता का उपहास किया जा रहा है। 

इस प्रकरण से सी.बी.आई. की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पर प्रश्न उठते हैं। क्या सी.बी.आई. पर उससे कहीं अधिक आरोप लगाए जा रहे हैं, जितने कि उसके गलत कारनामे हैं? क्या राजनेता मुख्य रूप से दोषी हैं? या चोर-चोर मौसेरे भाई? सच्चाई इन दोनों के बीच की है। दोनों अपने हितों को साधने के लिए मिलकर कार्य करते हैं। वर्मा ने स्पष्टत: कहा कि राजनीतिक वर्ग द्वारा डाला जा रहा दबाव स्पष्ट या लिखित में नहीं होता है। अक्सर यह परोक्ष रूप से होता है और इसका मुकाबला करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। जैसा कि अक्सर होता है हमारे नेतागण अपराध और भ्रष्टाचार को वैध ठहराने का कार्य करते हैं। सत्ता का नशा ऐसा होता है कि सभी राजनीतिक पूंजी बनाना चाहते हैं जिसके लिए व्यवस्था को तोड़ा- मरोड़ा जाता है। 

गत वर्षों में राजनीतिक वर्ग ने सी.बी.आई. को अधिकाधिक शक्तियां दी हैं। इस मामले में दो प्रकरण प्रमुख हैं। भाजपा के कर्नाटक के दिग्गज नेता येद्दियुरप्पा को राज्य के लोकायुक्त ने खनन कम्पनियों का पक्ष लेने और उसके बदले रिश्वत प्राप्त करने का दोषी माना जबकि अब जब केन्द्र में भाजपा सत्तारूढ़ है, सी.बी.आई. की इसी अदालत ने उन्हें बरी कर दिया। इसी तरह उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और मुलायम सिंह के आय से अधिक सम्पत्ति के मामले राजनीतिक कार्यसाधकता द्वारा निर्देशित होते हैं। इस मामले में कांग्रेस का रिकार्ड भी अच्छा नहीं है। पार्टी ने अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए सी.बी.आई. का उपयोग और दुरुपयोग किया है और इसीलिए 2013 में कोयला घोटाले में सी.बी.आई. को ‘पिंजरे में बंद तोता’ तक कहा गया। 

बोफोर्स घोटाले में भी एजैंसी की भूमिका जगजाहिर है और किसी को पता नहीं चला कि इस घोटाले में 62 करोड़ रुपए किसकी जेब में गए। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को इस मुद्दे के कारण अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी। सांसदों और विधायकों के विरुद्ध विभिन्न न्यायालयों में 13 हजार मामले लम्बित हैं, जिनमें से कुछ मामलों की सी.बी.आई. द्वारा जांच की जा रही है। इसके चलते सी.बी.आई. की प्रतिष्ठा खराब हुई है और वह ऐसे मामलों में अपेक्षित साक्ष्य नहीं जुटा पाई है। यही नहीं सी.बी.आई. ने सरकार के साथ चलने की अवसरवादी नीति अपनाई है। असल मुद्दा यह है कि सी.बी.आई. पर किसका नियंत्रण हो। यह हमारे सत्तालोलुप राजनेताओं के लिए एक दुविधाभरा प्रश्न है। वे कभी भी इसका ईमानदारी से उत्तर नहीं देंगे और ऐसी अपेक्षा करना हमारी बेवकूफी है। 

राजनीतिक हेरा-फेरी और जांच को आंतरिक रूप से प्रभावित करना सी.बी.आई. के समक्ष दो बड़ी चुनौतियां हैं। आपको ध्यान होगा कि इंदिरा गांधी देश की पहली प्रधानमंत्री थीं जो प्रभावी सत्ता के सभी साधनों को अपने हाथों में रखना चाहती थीं और उसके बाद सभी प्रधानमंत्रियों ने इस परम्परा का अनुसरण किया। हालांकि हमेशा सी.बी.आई. के दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं और नेता सी.बी.आई. को स्वायत्तता और स्वतंत्रता देने की बातें करते रहे। केन्द्र में सत्ता में आने पर सभी दलों पर सी.बी.आई. की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध इसका दुरुपयोग करने के आरोप लगते रहे। सी.बी.आई. के पूर्व निदेशकों और शीर्ष अधिकारियों के अनुसार एजैंसी को स्वायत्तता जैसी कोई चीज प्राप्त नहीं है। यह एक दिखावा है। कोई भी सरकरी निकाय स्वतंत्र नहीं है। 

हालांकि हवाला घोटाले में उच्चतम न्यायालय के 1997 के विनीत नारायण निर्णय के बाद केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त अधिनियम और दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिस्थापना अधिनियम में संशोधन किए गए। यह कार्य तीन कारणों से किया गया। पहला, सी.बी.आई. सीधे प्रधानमंत्री के नियंत्रणाधीन है। दूसरा, दंड प्रक्रिया की संहिता धारा 389 के अनुसार केवल कार्यपालिका को यह निर्णय करने की शक्ति है कि किसी मामले में सी.बी.आई. अपील करे या न करे। तीसरा, अधिकारी अपनी पदोन्नति के लिए अपने राजनीतिक आकाओं पर निर्भर करते हैं और यदि वे उनके अनुसार कार्य करते हैं तो उन्हें पुरस्कृत किया जाता है। एक पूर्व सी.बी.आई. निदेशक को सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का सदस्य बनाया गया।  प्रधानमंत्री मोदी अक्सर शासन में पारदॢशता की बातें करते हैं, अत: समय आ गया है कि सी.बी.आई. का कामकाज वास्तव में स्वतंत्र किया जाए और वह अपने आकाओं की आवाज न बने तथा सत्ता का दुरुपयोग न हो। किंतु एजैंसी को जी हुजूर अधिकारियों से मुक्त करना एक कठिन कार्य है। पक्षपातपूर्ण जांच शुरू करने का कोई फायदा नहीं क्योंकि उसमें निष्पक्ष जांच की कोई गारंटी नहीं होती। 

इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय परिपाटियां अपनाई जानी चाहिएं। इसके लिए आवश्यक है कि सी.बी.आई. अपना समॢपत काडर विकसित करे और अधिकारियों के लिए प्रतिनियुक्ति पर निर्भर न रहे। सी.बी.आई. ने हाल के वर्षों में अपने अधिकारी भर्ती करने का प्रयास किया किंतु एजैंसी में सभी वरिष्ठ पदों पर आई.पी.एस. अधिकारी बैठे हुए हैं। सी.बी.आई. को नियंत्रण महालेखा परीक्षक की तरह स्वायत्तता देने पर भी विचार किया जा सकता है जोकि केवल संसद के प्रति उत्तरदायी है।  केन्द्रीय आपराधिक और खुफिया एजैंसियों पर कुशल संसदीय निगरानी से जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है। हालांकि निगरानी में राजनीतिक दुरुपयोग की संभावनाएं बनी रहती हैं। फिलहाल स्थिति सी.बी.आई. की स्वायत्तता के विरुद्ध है। सी.बी.आई. का यह प्रकरण मोदी के भारत की सच्चाई उजागर करता है कि सत्ता ही सब कुछ है। 

कुल मिलाकर सी.बी.आई. को अपने आका की आवाज बनना बंद करना होगा और सत्ता का दुरुपयोग भी बंद करना होगा। कुल मिलाकर शासक वर्ग को सी.बी.आई. के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। सी.बी.आई. को एक स्वतंत्र तोता बनाना आदर्शवादी सोच है किंतु सरकार को इसमें स्वच्छता लाने के लिए तुरंत कदम उठाना चाहिए और उसे दो प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए कि क्या सी.बी.आई. कानून के अनुसार निर्देशित होगी या सरकार के अनुसार? अब गेंद मोदी के पाले में है। क्या वह इस दिशा में कदम उठाएंगे?-पूनम आई. कौशिश

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