पाक का ‘उदार अक्स’ उभारने की कोशिश में शरीफ

Edited By ,Updated: 03 Apr, 2017 11:15 PM

sharif in an attempt to raise paks generous ax

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेशक देश की उदारवादी छवि उभारने का प्रयास कर रहे...

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेशक देश की उदारवादी छवि उभारने का प्रयास कर रहे हैं तो भी जमीनी हकीकतें किसी न किसी हद तक पहले जैसी ही बनी हुई हैं। अभी कुछ ही दिन की बात है जब मूलवादी संगठन जमात-ए-इस्लामी के विद्यार्थी विंग ‘इस्लामी जमायत तलबा’ (आई.जे.टी.)से संबंधित गुंडों ने लाहौर स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी में पख्तूनों के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में व्यवधान डाला। 

हैरानी की बात है कि अतीत के विपरीत, अब की बार आई.जे.टी. के गुंडों को पख्तून और बलोच विद्यार्थियों की ओर से कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इस टकराव के फलस्वरूप अनेक विद्यार्थी घायल हो गए और भीड़ को तितर-बितर करने के लिए  पुलिस को अश्रु गैस प्रयुक्त करनी पड़ी। पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज  (पी.एम.एल.-एन) के दक्षिणपंथी संस्कारों की अवधारणा के बिल्कुल विपरीत जाते हुए शरीफ ने हाल ही में कराची में एक होली उत्सव में हिस्सा लिया। इस मौके पर सहिष्णुता, अनेकतावाद तथा ‘जिओ और जीने दो’ के संदेश का गुणगान करते हुए उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक कायद-ए आजम मोहम्मद अली जिन्ना के संविधान सभा के समक्ष ऐतिहासिक भाषण में से हवाले दिए। 

पाकिस्तान की संस्थापना से केवल 3 दिन पूर्व जिन्ना ने घोषणा की थी: ‘‘आप सब स्वतंत्र हैं, पूरी तरह स्वतंत्र हैं, आप चाहें तो अपनी मस्जिदों में जाएं या पाकिस्तान के अंदर मौजूद किसी भी अन्य पूजा स्थल पर। आपका मजहब और पंथ चाहे कोई भी हो, राजसत्ता को उससे कुछ लेना-देना नहीं।’’ यह एक अलग बात है कि इसके बाद पाकिस्तान के अधिकतर शासकों (सिविल और सैन्य दोनों) ने अधिकतर समय के लिए जिन्ना के भाषण में कही गई बातों की परवाह नहीं की। 

सरकारी तंत्र की कार्यशैली में से ये बातें न केवल पूरी तरह गायब रही हैं बल्कि सरकारी मीडिया चुन-चुन कर इस तरह के आलेखों पर कैंची चलाता रहा है। सत्ता में बैठी हुई शक्तिशाली दक्षिणपंथी लॉबी की मीडिया पर इतनी सशक्त जकड़ रही है कि यह उन सब लोगों का सामाजिक बहिष्कार करता रहा है जो जिन्ना के सैकुलर जीवन मूल्यों अथवा उदारवाद का लेशमात्र भी समर्थन करते रहे हैं। हकीकत यह है कि जिन्ना के विचारों के उलट जाकर पूरी तरह एक नया  मुहावरा  सृजित किया गया जिसके अंतर्गत जिन्ना को एक मौलवी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसके समर्थन में प्रमाण के रूप में जिन्ना के भाषणों में से कुछ टोटके ढूंढ कर उनकी बिल्कुल ही प्रसंगहीन व्याख्या की जाती है। इसी के बूते गैर उदारवादी और महिला विरोधी एजैंडे के पक्षधर खुद को जिन्ना के अनुयायी के रूप में पेश करते रहे हैं। 

वास्तव में पाकिस्तान के मूल संस्कारों पर सबसे कड़ा प्रहार नरकवासी जनरल जिया-उल-हक  ने किया था जिसने 11 वर्षों तक देश पर बहुत कठोरता से शासन किया था। जिया और मीडिया में बैठे उसके अनेक पिट्ठुओं के अनुसार इस्लाम में राजनीतिक दलों या संसदीय लोकतंत्र की कोई अवधारणा ही मौजूद नहीं। जमात-ए-इस्लामी और इससे संबंध रखने वाले पत्रकार ही स्वार्थी तत्वों की इस आत्मकेन्द्रित व्याख्या के सबसे बड़े समर्थक थे। इन समर्थकों में से एक था दिवंगत जैड.ए. सुलेरी जो कभी कायद-ए-आजम के साथ सचिव के रूप में काम कर चुका था। सुलेरी अखबारों में बहुत कुछ लिखा करता था और अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वह जमात-ए-इस्लामी का हमसफर बन गया था। 

जब जिया-उल-हक ने हुक्म जारी किया कि पाकिस्तान नैशनल असैम्बली में लगी हुई कायद-ए-आजम की तस्वीर को दोबारा तैयार किया जाए और सूट की बजाय उन्हें अचकन पहने दिखाया जाए तो सुलेरी ने पाकिस्तानी टाइम्स (जिसका वह सम्पादक भी था)  में एक आलेख द्वारा इस अवधारणा का विरोध किया था। ‘कायद-ए-आजम जैसे थे वैसी ही तस्वीर हो’ सुर्खी के अंतर्गत उसने एक सम्पादकीय लिखा था। बाद में जिन्ना की नए रूप में तस्वीर बनाने  के इरादे को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया तो भी पाकिस्तान के संस्थापक  को कभी भी सही रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया। 

जिन्ना की यादों को आहत तो पहले ही किया जा रहा था लेकिन तब उन्हें अपमानित करने का सिलसिला भी शुरू हो गया जब जिया शासन के चापलूसों ने जिन्ना का नाम लेकर अलग-अलग मताधिकार की वकालत करनी शुरू कर दी। यहां तक कि अपने संकीर्ण स्वार्थों को पोषित करने के लिए जिया के चापलूसों ने अल्लामा मोहम्मद इकबाल तक का यशोगान करना शुरू कर दिया। इस राष्ट्र कवि और दार्शनिक चिंतक की रचनाओं में से प्रसंगहीन उल्लेख ढूंढ-ढूंढ कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि पहले दिन से ही पाकिस्तान की एक मजहबी राष्ट्र के रूप में परिकल्पना की गई थी न कि अनेकतावादी लोकतंत्र के रूप में।

भाग्य की विडम्बना देखिए कि जिया-उल-हक की इन पोंगापंथी और कालबाह्य नीतियों का सबसे बड़ा लाभार्थी जमायत-ए-इस्लामी नहीं बल्कि मियां नवाज शरीफ है। 80 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में पाकिस्तान पंजाब के गवर्नर  लैफ्टिनैंट जनरल गुलाम जिलानी ने एक औद्योगिक घराने के फरजंद नौजवान शरीफ को भविष्य के नेता के रूप में तैयार करना शुरू किया। जिया को भी जल्दी ही इस प्रतिभाशाली नौजवान से लगाव हो गया। बस फिर क्या था, देखते ही देखते मियां मोहम्मद शरीफ का बेटा राजनीतिक करियर की सीढिय़ां चढऩे लगा। सबसे पहले तो नवाज शरीफ को पंजाब प्रांत का वित्त मंत्री बनाया गया और बाद में दल विहीन लोकतंत्र में वह मुख्यमंत्री बन गए। 

जब शातिर दिमाग नरकवासी जिया को ऐसा महसूस हुआ कि उसका अपना ही खड़ा किया हुआ प्रधानमंत्री मोहम्मद खान जुनेजो संयमित ढंग से लोकतंत्र को आगे बढ़ा रहा है और उसके हाथों से निकलता जा रहा है तो उसने मई 1988 में जुनेजो को बर्खास्त कर दिया। नवाज शरीफ भली-भांति जानते थे कि चपाती के किस ओर मक्खन लगा होता है इसलिए उन्होंने पार्टी प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री का साथ देने की बजाय जनरल जिया से वफा निभाई। 

उसी वर्ष अगस्त में जिया एक खतरनाक विमान हादसे में मौत का शिकार हो गया लेकिन अपनी मौत से कुछ ही दिन पूर्व उसने पुन: सुरजीत की हुई मुस्लिम लीग पार्टी के महाधिवेशन में सरकारी तंत्र की सहायता से जुनेजो को बाहर कर दिया  और प्रभावी ढंग से पार्टी की कमान संभाल ली। इस प्रकार पी.एम.एल.-एन. का जन्म हुआ और इस जन्म में जिया-उल-हक ने एक धाय (दाई) की भूमिका अदा की थी। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं कि जिस पार्टी को ‘बाकियात ए-जिया’ (यानी जिया का अवशेष) के नाम से जाना जाता था, की वैचारिक प्रवृत्ति काफी हद तक उन प्रतिगामी नीतियों से मेल खाती थी जिनको नरकवासी तानाशाह ने बहुत निष्ठुरता से आगे बढ़ाया था। 

ऐसे में यह बिल्कुल किसी सपने जैसा लगता है कि वही शरीफ कालांतर में सैकुलरवादी लबादे में प्रकट हुआ। उनकी मानसिकता में आया यह बदलाव  वास्तविक है या अवसरवादिता से भरा हुआ है, यह विवाद का विषय है। 2007 में वनवास से लौटने के बाद उनमें कुछ  बदलाव आया है। उनके प्रधानमंत्री होते हुए मैंने उनके साथ कई मीटिंगें की हैं जिनमें मुझे यह आभास होता रहा है कि वह प्रधानमंत्री नहीं बल्कि विपक्ष के नेता की तरह सोचते और काम करते हैं। उनमें बदलाव अनेक ढंग से आया।  उदाहरण के तौर पर ऐसा आभास होता है कि यदि उन्हें अपनी मर्जी पर छोड़ दिया जाए तो वह पाकिस्तान को एक सैन्य सुरक्षा तंत्र से बदल कर ऐसे देश का रूप दे देंगे जिसकी विदेश नीति अर्थशास्त्र और व्यापार द्वारा निर्धारित होगी। 

उनकी भविष्य दृष्टि में भारत के साथ बेहतर संबंधों की परिकल्पना शामिल है लेकिन जब उन्होंने मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उद्घाटनी समारोह में हिस्सा लेने के नाम पर दिल्ली की ओर सद्भावना के विनाशकारी मार्ग पर कदम बढ़ाया था तो अपनी अनुभवहीनता के कारण उन्होंने पाकिस्तान की विदेश नीति पर स्थायी सत्तातंत्र (यानी पाकिस्तानी सेना) की जकड़ को बहुत घटा कर देखा था। इसी सत्तातंत्र ने शरीफ के प्रयासों को प्रफुल्लित होने से पहले ही मिट्टी में मिला दिया और इसी प्रयास के कारण उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। 

यही मजबूरी है जिसके कारण शरीफ सही चिंताएं व्यक्त करते हुए भी अपनी पार्टी और गठबंधन के अंदर मौजूद दक्षिणपंथी शक्तियों के साथ कभी कोई पंगा नहीं लेंगे। अपेक्षाकृत उदारवादी मानसिकता वाले सेना प्रमुख की मौजूदगी में शरीफ शायद  जेहादियों के प्रति अधिक विवेकशील नीति अपनाने के लिए दूसरों को राजी कर सकते हैं। यानी कि दूसरों को इस बात के लिए मना सकते हैं कि अच्छे और बुरे आतंकियों में फर्क न किया जाए। 

दक्षिणपंथी कट्टरवादी मतदाताओं पर डोरे डाल रही पी.एम.एल.-एन. को पी.टी.आई. की ओर से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा था। पी.टी.आई. प्रमुख इमरान खान ने कभी भी इस बात को छुपाया नहीं कि वह मदरसा संस्कृति के कट्टर समर्थक हैं। इस पार्टी के सांसद अली मोहम्मद खान ने तो टेढ़े ढंग से शरीफ को यह चेतावनी दी है कि जो लोग सैकुलर पाकिस्तान में विश्वास रखते हैं उन्हें इस देश से निकल जाना चाहिए। ऐसे में कोई संभावना नहीं कि प्रधानमंत्री सही अर्थों में उदारवादी और सैकुलर एजैंडे को आगे बढ़ाएंगे। फिर भी उनका मौखिक रूप में ऐसी भाषा बोलना ही पाकिस्तान में काफी बड़े  बदलाव का सूचक है। 

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