Edited By ,Updated: 03 Nov, 2019 02:23 AM
ठाकरे परिवार किसी समय महाराष्ट्र में एक जीवंत राजनीतिक शक्ति थी जो अब एक अदना-सा खिलाड़ी बन चुकी है। मगर वह इन बातों को मानने को तैयार नहीं। भाजपा से एक बार फिर शिवसेना उलझ रही है। हालांकि इसकेपास लम्बे समय के लिए कोई विकल्प नहीं। भाजपा के साथ...
ठाकरे परिवार किसी समय महाराष्ट्र में एक जीवंत राजनीतिक शक्ति थी जो अब एक अदना-सा खिलाड़ी बन चुकी है। मगर वह इन बातों को मानने को तैयार नहीं। भाजपा से एक बार फिर शिवसेना उलझ रही है। हालांकि इसकेपास लम्बे समय के लिए कोई विकल्प नहीं। भाजपा के साथ गठजोड़ पर शंकाएं उजागर हो रही हैं। मगर अंत में फिर भी यह शिवसेना भाजपा के आगे झुकेगी, जैसा कि पूर्व में करती आई है।भाजपा का संयम उसके लिए लाभदायक होगा और इसको अच्छे नतीजे मिलेंगे।
तीन दशकों तक एक जूनियर पार्टनर थी शिवसेना
महत्वपूर्ण बात यह होगी कि तीन दशकों के गठबंधन के दौरान (1990-2019)भाजपा महाराष्ट्र में एक जूनियर पार्टनर की तरह थी। प्रमोद महाजन की उनके भाई द्वारा 2006 में की गई हत्या से पहले भाजपा उनके माध्यम से ही बाल ठाकरे को सम्भालने में कामयाब रही। महाजन शांत स्वभाव के थे और ठाकरे के तीव्र व्यवहार को लम्बी बातचीत के जरिए निपटाते रहे। शिवसेना का मुख पत्र ‘सामना’ लगातार उस समय भी भाजपा पर वार करता रहा जैसा कि अब करता है। इसके बावजूद भी भाजपा संयम बनाए हुए है। यह सांझेदारी बाबरी मस्जिद विध्वंस आंदोलन के दौरान बनाई गई तथा और मजबूत हुई जब बाल ठाकरे ने गौरव से यह दावा किया कि उनके सैनिकों ने बाबरी विध्वंस में भाग लिया।
1990 में शिवसेना ने 52 सीटें जीतीं और भाजपा के खाते में 42 सीटें आईं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सेना ने ज्यादा सीटों पर चुनाव लडऩे के लिए जोर डाला। 1995 में ये सीटें 73 और 65 रहीं क्योंकि बाम्बे में उस समय साम्प्रदायिक हिंसा तथा बम हमले हुए। भगवा गठबंधन ने अपनी पहली सरकार बनाई और सेना के मुरली मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने। यह एक साधारण सरकार थी।
फिर 1999 में सेना को 73 तथा भाजपा को 56 सीटें मिलीं जो कि बहुमत से कम थीं। इस मौके पर कांग्रेस दो फाड़ हुई और सोनिया गांधी का विदेशी मूल का मुद्दा गर्माया। जिसके पश्चात शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) का गठन किया। 2004 में भगवा गठबंधन एक बार फिर पास-पास आया मगर सरकार न बना सका। इस बार शिवसेना को 62 तथा भाजपा को 54 सीटें मिली हैं। सेना ज्यादा सीटों पर ही चुनाव लड़ी (शिवसेना 163 सीटों तथा भाजपा 111 सीटों पर चुनाव लड़ी।) पवार ने उस समय यह टिप्पणी की कि महाराष्ट्र एक कांग्रेसी समर्थन वाला राज्य है, जिसने भाजपा के एजैंडे को आकॢषत नहीं किया। 2009 में भाजपा कुछ सीटों पर ही चुनाव लड़ी और सेना से मात्र एक सीट ज्यादा जीती। उसका स्ट्राइक रेट भी बढ़ा। क्योंकि बीमार चल रहे बाल ठाकरे राजनीति में ज्यादा एक्टिव नहीं थे और कुछ सालों बाद उनका देहांत हो गया। इसके बाद शिवसेना के साथ भाजपा का संयम भी समाप्त हो गया।
2014 में अकेली पड़ गई थी पार्टी
2014 में भाजपा ने ज्यादा सीटों पर चुनाव लडऩे को बोला और इसी बात पर अड़ी रही। शिवसेना अकेली पड़ गई और भाजपा की 122 सीटों के मुकाबले आधी सीटें ही जीत पाई। इस वर्ष भाजपा पहली बार आधिकारिक रूप से एक सीनियर पार्टनर की तरह उभरी और अढ़ाई दर्जन ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा और शिवसेना से 50 सीटें ज्यादा जीतीं। अब स्थिति स्पष्ट थी और ट्रैंड भाजपा के हक में था। भाजपा शिवसेना को खाती दिखाई दे रही थी। मार्कीट शेयर शिवसेना के लिए नाराजगी दिखा रहा था और राज्य में दक्षिण भारतीयों, मुसलमानों तथा उत्तरी भारतीयों के प्रति आक्रोश तेजी से कम हो गया। भाजपा के हिदुत्व एजैंडे ने सब कुछ निगल लिया।
अन्य राजनीतिक पार्टियों की तरह शिवसेना की मुम्बई तथा उसके आसपास अच्छी साख है। आर.एस.एस. की तरह उनके पास शाखा है और उनकी कार्यशैली भिन्न है। यह शाखा व्यापारियों, दुकानदारों तथा स्थानीय निवासियों से चंदा लेने पर निर्भर है। शिवसेना पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग को आकॢषत करने में असमर्थ रही। सुरेश प्रभु ने इसको ज्वाइन किया और शीघ्र ही छोड़ दिया। शिवसेना ने अब यह माना कि वह अपना ध्यान मुम्बई को बाम्बे और विक्टोरिया टर्मिनस को बदलने पर लगाएगी। शिवसेना के पास बदी और नाराजगी के अलावा कोई विचारधारा नहीं है। इसी कारण यह हिंदुत्व पार्टी नहीं बन पाई। शिवसेना में हमेशा ही संगठन को बनाने के लिए इच्छा शक्ति और अनुशासन की कमी रही।
ठाकरे परिवार में से कोई भी मंत्री नहीं बन पाया और हमेशा ही भाजपा का मुख्यमंत्री बना और शिवसेना सदैव सहयोगी पार्टी ही ठहरी। उद्धव ठाकरे के बेटे का इस बार चुनाव लड़कर जीतना एक बदलाव का संकेत है। यह तो समय ही बताएगा मगर शिवसेना को भाजपा द्वारा निगले जाने से पहले इसे नई राह ढूंढनी होगी।-आकार पटेल