Edited By ,Updated: 19 Feb, 2022 07:12 AM
संसार में जितने भी धर्म हैं, प्रत्येक का एक न एक प्रतीक अवश्य है जिसके आधार पर उसके मानने वालों की पहचान से लेकर उ
संसार में जितने भी धर्म हैं, प्रत्येक का एक न एक प्रतीक अवश्य है जिसके आधार पर उसके मानने वालों की पहचान से लेकर उनके जीवन जीने के तरीकों का ज्ञान होता है।
धर्म और जीवन शैली
धार्मिक प्रतीकों के अतिरिक्त सभी धर्मो में इस बात का वर्णन है कि जीवन जीने के लिए किन सिद्धांतों, मान्यताओं, परंपराओं, रीति-रिवाजों और अन्य धर्मों के साथ तालमेल बिठाए रखने के लिए किन नियमों का पालन करना चाहिए। इसका उद्देश्य यही है कि धार्मिक आधार पर कोई लड़ाई झगड़ा, तनाव, संघर्ष और वैमनस्य न हो और सभी शांति और सद्भाव से एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हुए मिलजुल कर रहें।
यहां तक तो ठीक था लेकिन जब इस धार्मिक समझदारी में अपने धर्म को दूसरों से श्रेष्ठ समझने की मानसिकता बढऩे लगी तो उसमें एक तरह का जिद्दीपन शामिल होता गया। इसका खतरनाक नतीजा यह निकला कि धार्मिकता का स्थान धर्मांध कट्टरता ने ले लिया और लोग इसे ही वास्तविक धर्म समझने लगे। यहीं से असहिष्णुता यानी टालरैंस न होने की शुरूआत हुई और समाज विरोधी तत्वों को मौका मिल गया कि वे धार्मिक आधार पर समाज को बांट सकें। संयोग देखिए कि दुनिया के लगभग एक-तिहाई देशों के राष्ट्रीय ध्वजों में धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है और इनमें भारत का तिरंगा भी है।
जहां एक ओर धर्म का आधार मन और शरीर की पवित्रता, विचारों की पावनता, अध्यात्म की ओर ले जाने वाली मानसिकता, दैवीय शक्तियों की अनुकंपा है, वहां दूसरी आेर जीवन जीने की अपनी विशिष्ट शैली भी है। जिंदगी और मौत के बीच का सफर किस तरह से तय किया जाए, यह प्रत्येक धर्म में अलग-अलग भले ही हो लेकिन उसका लक्ष्य केवल एक ही है कि धार्मिक भावनाआें को कभी भी आपसी मतभेद का आधार न बनने दिया जाए।
धर्म और शिक्षा
धर्म का काम है लोगों को जोड़कर रखना और शिक्षा का उद्देश्य है कि बिना धार्मिक भेदभाव किए व्यक्ति का बौद्धिक विकास कैसे हो, इसकी रूप-रेखा बनाकर व्यक्ति को इतना सक्षम कर देना कि वह अपनी रोजी-रोटी कमा सके और स्वतंत्र होकर जीवन-यापन कर सकने योग्य हो जाए। किसी भी शिक्षण संस्थान द्वारा धार्मिक प्रतीक चिन्हों का इस्तेमाल उचित तो नहीं है लेकिन यह किया जाता है। हो सकता है कि अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाता हो लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वहां पढऩे वालों के लिए यह जरूरी कर दिया जाए कि वे उस धर्म के अनुयायी भी बन जाएं।
शिक्षा का आधार किसी धर्म की मान्यताआें के अनुसार शिक्षा नहीं बल्कि आधुनिक और वैज्ञानिक सोच का विकास होना चाहिए। यही कारण है कि शिक्षण संस्थानों से यह उम्मीद की जाती है कि वे उनमें पढऩे वाले विद्याॢथयों को धर्म का महत्व तो बताएं लेकिन किसी एक धर्म को बेहतर और दूसरों को कमतर न दिखाएं। इसके साथ एक ही धर्म क्यों, देश में प्रचलित सभी धर्मों के बारे में इस प्रकार बताया जाए कि उनमें आपस में तुलना, प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता की भावना विद्याॢथयों में न पनपे। अब हम इस बात पर आते हैं कि क्या धर्म के आधार पर विद्यार्थियों का पहनावा अर्थात उनकी ड्रैस को तय किया जा सकता है? इस बारे में अनेक मत हो सकते हैं लेकिन व्यावहारिकता यही है कि इसमें धर्म, उसके प्रतीक चिन्ह और धार्मिक आधार पर तय किए गए लिबास का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
एक-दूसरा मत यह है कि जब विभिन्न धर्मों के विद्यार्थी अपनी धार्मिक पहचान दर्शाने वाले वस्त्र पहनकर स्कूलों में जाएंगे तो उनमें बचपन से ही एक-दूसरे के धर्म को समझने और उसका आदर करने की भावना विकसित होगी। वे बड़े होकर अपने धर्म का पालन करते हुए अन्य धर्मों के मानने वालों का सम्मान करेंगे और इस तरह धार्मिक एकता की नींव पडऩा आसान होगा। एक तीसरा मत यह भी है कि जिस प्रकार फ्रांस ने अपने यहां शिक्षा को धार्मिक प्रतीकों और धार्मिक आचरण से अलग रखा है और किसी भी प्रकार का दखल न होने देने की व्यवस्था की है, उसी प्रकार हमारे देश में भी किया जा सकता है !
यह व्यवस्था हमारे यहां लागू होना संभव नहीं लगती क्योंकि सिख धर्म के विद्यार्थियों द्वारा अपने केश बांधने के लिए पगड़ी धारण करने की पर परा है और इसी आधार पर इस्लाम को मानने वाले मुस्लिम छात्राओं के लिए भी हिजाब और बुर्का पहनने की अपनी मांग को उचित बता रहे हैं। विवाद का हल चाहे जो हो लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि विद्यार्थियों की शिक्षा किसी भी कीमत पर नहीं रुकनी चाहिए। इसके लिए यदि उन्हें नियमों में कुछ ढील भी देनी पड़े तो यह ठीक होगा क्योंकि जिद्दी रुख अपनाने से अच्छा लचीला बर्ताव करना है।-पूर्ण चंद सरीन