स्थिति ‘करो या मरो’ की मगर अब यहां ‘महात्मा’ नहीं

Edited By ,Updated: 03 Jan, 2021 04:55 AM

situation  do or die  but no longer  mahatma

हमें  7-8 अगस्त 1942 को गोवालिया टैंक मैदान, मुम्बई (तब बाम्बे) की याद दिलाई जाती है। महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ का स्पष्ट आह्वान किया और अंग्रेजों से भारत छोडऩे को कहा। आज दिल्ली की सीमा पर  स्थित सिंघु गोवालिया टैंक

हमें 7-8 अगस्त 1942 को गोवालिया टैंक मैदान, मुम्बई (तब बाम्बे) की याद दिलाई जाती है। महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ का स्पष्ट आह्वान किया और अंग्रेजों से भारत छोडऩे को कहा। आज दिल्ली की सीमा पर  स्थित सिंघु गोवालिया टैंक मैदान ही है। 

अब वहां पर कोई महात्मा गांधी नहीं है मगर फिर भी हर किसान अङ्क्षहसक विरोध के उत्साह में बैठा हुआ है। उनकी काल भी ‘करो या मरो’ की है तथा किसानों ने सरकार से कहा है कि वह कृषि कानूनों को निरस्त करे।वार्ता का एक और दौर विफल रहा। दिन के उजाले में यह स्पष्ट है कि सरकार के पास एक पूर्व निर्धारित दिमाग था। वह कानूनों को निरस्त नहीं करेगी। तीन महत्वपूर्ण मांगों के अलावा विविध प्रावधानों में संशोधन  का प्रस्ताव सरकार ने रखा। यह राज्य विधानसभाओं को अपने राज्यों में अपनी बात रखने की अनुमति नहीं देते। दूसरी ओर प्रदर्शनकारी किसान तीन मांगों पर जोर देते हैं। 

* ए.पी.एम.सी. के साथ प्रतिस्पर्धा में अनियमित निजी बाजारों को अनुमति न दी जाए।
* एम.एस.पी. के लिए कानूनी गारंटी दे। 
* कृषि उत्पादों की खरीद और व्यापार में कार्पोरेट्स के प्रवेश की अनुमति न दी जाए। 

30 दिसम्बर को वार्ता समाप्त हुई और यह 4 जनवरी को फिर शुरू होगी। सरकार का दावा है कि उसने 2 मांगों पर सहमति जताई है। 
1. बिजली सबसिडी प्रभावित नहीं होगी।
2. किसानों को पराली जलाने की कोई सजा नहीं होगी। 

ये दोनों मुद्दे मूल मांगों से बहुत दूर हैं। फलस्वरूप प्रदर्शनकारी किसानों और बेदर्द सरकार के बीच की दूरी बनी हुई है। 
सभी अर्थशास्त्रियों की सहमति है कि कृषि उपज विपणन में सुधार की जरूरत है। ए.पी.एम.सी. अधिनियमों की कमी है यह इसलिए नहीं क्योंकि वे किसी को भी लाभ नहीं देते हैं बल्कि वे देश भर में किसानों के एक छोटे-से अनुपात को लाभ देते हैं। 

ए.पी.एम.सी. प्रणाली की कमजोरियों का जवाब इसे दुर्बल करना नहीं है बल्कि छोटे शहरों और बड़े गांवों में देशभर में हजारों हल्के विनियमित किसानों के बाजारों का निर्माण करना है ताकि किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) पर अपनी उपज बेच सकें और उनका शोषण न हो। इसी के बारे में 2019 के कांग्रेस घोषणा पत्र में वायदा किया गया था। सरकार ए.पी.एम.सी. प्रणाली को कमजोर करने और ए.पी.एम.सी. सिद्धांत के विस्तार के बीच अंतर को समझने में असमर्थ है। एम.एस.पी. के मामले में भी यही तर्क लागू होता है। एम.एस.पी. एक कमी वाला उपकरण है क्योंकि किसानों का केवल एक छोटा-सा हिस्सा ही एम.एस.पी. पर अपनी उपज बेच पाता है और वे भी केवल गेहूं, धान, सोयाबीन, गन्ना और कपास के मामले में। 

इसका जवाब कार्पोरेट्स को सीधे तौर पर बातचीत के जरिए   तय कीमत पर खरीदने की अनुमति देना नहीं है बल्कि कानूनी तौर पर यह यकीनी बनाना है कि कोई भी एक नोटिफाइड उपज को एम.एस.पी. से कम पर न खरीद सकता है न बेच सकता है। 

संविधान क्या कहता है?
प्रदर्शनकारी किसानों के हक में यहां पर एक और अधिक उग्र तर्क है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के संविधान का पालन किया। वह काफी नहीं है। उन्हें तो छोटी किताब को अनेकों बार पढऩा चाहिए। इसमें कोई शक नहीं है। यदि उन्होंने ऐसा किया तथा यदि उन्होंने अनुसूची V||| सूची ढ्ढढ्ढ को पलटा है तो मोदी निम्नलिखित प्रविष्टियां देखेंगे जो राज्यों के लिए विधायी विषय आरक्षित रखे हुए हैं। 
1. एंट्री 14
कृषि सहित
2. एंट्री 26

राज्य सरकारों के विषय के भीतर व्यापार एवं वाणिज्य के लिए सूची ||| की एंट्री 33 (जिसमें व्यापार एवं वाणिज्य तथा उपज, आपूर्ति तथा आबंटन के तौर पर पढ़ा जाता है। (बी) खाद्य पदार्थों के बारे में।
एंट्री 28
बाजार और मेले।
एंट्री 52 

उपभोग के लिए स्थानीय क्षेत्र में प्रवेश करने वाली वस्तुओं पर टैक्स।
एक बार जब हम प्रविष्टियों को पढ़ते हैं तो वर्तमान मानव निर्मित संकट का समाधान खुद ही पता चलता है।  विषय वस्तु को राज्य सरकारों पर छोड़ दें। प्रत्येक राज्य विधायिका को यह तय करने दें कि उसके लोगों को क्या चाहिए और कानून क्या होना चाहिए? यहां पर फिर चाहे पंजाब माडल हो या फिर बिहार माडल। 

यदि पंजाब के किसान अपनी उपज को विनियमित बाजारों में बेचना चाहते हैं तो शुल्क का भुगतान करने के बाद उन्हें ऐसा करने दें। यदि बिहार के किसान एम.एस.पी. अधिनियम बिल्कुल नहीं चाहते और बेचना चाहते हैं (जो वे धान के मामले में 1850 रुपए प्रति क्विंटल एम.एस.पी. के  खिलाफ 800 रुपए प्रति क्विंटल पर बेचना चाहते हैं) तो उन्हें ऐसा करने दिया जाए तो फिर केंद्र सरकार राज्यों में व्यापक कानूनों के बारे में चिंतित क्यों होना चाहती है? यदि केंद्र सरकार चिंतित है कि एफ.सी.आई. पी.डी.एस. की आपूर्ति करने के लिए पर्याप्त अनाज की खरीद करे (राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एक्ट के अंतर्गत आपूर्ति शामिल) तो सरकार एफ.सी.आई. का विस्तार होने दे और इसे खरीद,भंडारण और आबंटन का अधिक कुशल साधन बनाए। कोई भी राज्य एफ.सी.आई. के संचालन का विरोध नहीं करती। 

मोदी सरकार अपने बहुसंख्यक प्रेरित वर्चस्व पर जोर देने के लिए कृतसंकल्प है। मोदी है तो ‘मुमकिन’ का बदनाम नारा दिया जाता है। मोदी हर चीज में अपना रास्ता नहीं बना सकते हालांकि यह रास्ता गलत भी हो सकता है। तभी मैं इसे ‘ट्रम्पिज्म’ के नाम से बुलाता हूं और प्रत्येक मिस्टर ट्रम्प का देरी से पहले पतन होना लाजिमी है। संत तिरुवल्लुवर ने 2000 वर्ष पूर्व कहा था ‘‘यदि किसान अपने हाथ जोड़ लेते हैं, तो भी जिन्होंने जीवन त्याग दिया है वह जीवित नहीं रह सकते। ’’ (कुराल 1036) 

विनम्रता में कोरोना वायरस ने विश्व को कई सबक सिखाए हैं। मुझे आशा है कि किसानों के प्रदर्शन हमारे शासकों (वर्तमान या फिर आने वाले) को विनम्रता से सबक सिखाएंगे ताकि वे लोगों की आशाओं के अनुसार शासन करें और संसद में कानून पास करें। मोदी ने वास्तव में भारत पर शासन करने का अधिकार जीता है तो उन्हें विनम्रता के साथ करने दिया जाए।-पी. चिदम्बरम

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