भाजपा और इसके नेतृत्व के प्रति बने भरोसे को तोड़ते कुछ तथ्य

Edited By Pardeep,Updated: 03 Apr, 2018 02:38 AM

some facts breaking the confidence of the bjp and its leadership

राजनीतिक दल और नेता तो छोडि़ए, राजनीति-शास्त्र के पंडित भी आज तक यह नहीं समझ पाए कि कब कौन-से कारक किसी व्यक्ति, दल या दल समूह को सत्ता पर पहुंचाते हैं और कौन से कारक जनता को उससे विमुख करते हैं। उनका विश्लेषण भी तब होता है जब परिणाम आ जाते...

राजनीतिक दल और नेता तो छोडि़ए, राजनीति-शास्त्र के पंडित भी आज तक यह नहीं समझ पाए कि कब कौन-से कारक किसी व्यक्ति, दल या दल समूह को सत्ता पर पहुंचाते हैं और कौन से कारक जनता को उससे विमुख करते हैं। उनका विश्लेषण भी तब होता है जब परिणाम आ जाते हैं। 

देखने में 4 साल बाद भी लगता है कि भारतीय जनता पार्टी का विजय-रथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में साल भर बाद होने वाले आम चुनाव की वैतरणी पार कर जाएगा- अपनी कल्याणकारी योजनाओं के प्रति पनपी जन-अपेक्षाओं के जरिए, हिंदुत्व के उफान के कारण या विश्वसनीय विकल्प के अभाव में। पर शायद तब हम यह भूल जाते हैं कि 2004 का वाजपेयी सरकार का ‘इंडिया शाइनिंग’ इसी आभाषित सत्य के कारण हार का कारण बना। 

इस समय कम-से-कम 3 ऐसे कारण हैं जिन्हें अगर मोदी सरकार ने संज्ञान में नहीं लिया तो किसान उनसे विमुख हो सकता है। पहला-क्या समर्थन मूल्य ताजा बजटीय वायदे के मुताबिक किसानों की उपज की सही लागत का 150 प्रतिशत होगा? क्या किसान अपनी उपज सरकारी क्रय केन्द्रों पर अब आसानी से बेच पाएगा? और क्या सरकार यह जानती है कि उत्तर भारत ही नहीं, दक्षिण भारत में भी तथाकथित गौ-रक्षकों के कारण किसानों के गैर-दुधारू मवेशियों की तादाद बेहद बढ़ गई है और आज किसानों की फसल ये आवारा मवेशी रातों-रात चट कर जाते हैं जिसकी वजह से इस वर्ग की नाराजगी दबे रूप में लेकिन व्यापक पैमाने पर बढ़ गई है? 

किसानों को उपज मूल्य का 150 प्रतिशत समर्थन मूल्य देने और 10 करोड़ गरीब परिवारों को 5 लाख रुपए तक का मुफ्त इलाज कराने का बजटीय वायदा देखने में तो बेहद लुभावना लगता है क्योंकि यह लोगों की अपेक्षाओं को अचानक उभार देता है, परन्तु अगर यह धरातल पर एक बार फिर भ्रष्ट राज्य अभिकरणों की भेंट चढ़ गया तो जनाक्रोश भले ही दिखाई न दे, चुनाव परिणामों को बदल सकता है। आज सवाल यह है कि क्या सरकार ने इतने क्रय केन्द्र बनाए हैं कि किसान 10 से 20 किलोमीटर की दूरी के भीतर अपना अनाज बेच सकें, क्या आढ़तियों-भ्रष्ट कर्मचारियों के मकडज़ाल से बच कर यह किसान अपना अनाज समर्थन मूल्य पर सरकारी क्रय केन्द्रों पर बेच सकेगा और क्या लागत मूल्य का निर्धारण उसी पुराने अलाभकारी (ए-2 एफ-एल) फार्मूले पर होगा या किसान संगठनों द्वारा मांगे जा रहे सी-2 फार्मूले पर होगा जिसकी संस्तुति स्वामीनाथन समिति ने परोक्ष रूप से की थी? 

कुछ ताजा सरकारी रिपोर्टों पर नजर डालें। साल 2017-18 के दौरान फसल बीमा कवरेज क्षेत्र पिछले साल (2016-17) के मुकाबले घट कर 30 प्रतिशत से 24 प्रतिशत पर आ गया है जबकि लक्ष्य था इस कवरेज को 40 प्रतिशत करना। क्या 2 साल पहले बेहद उम्मीद से शुरू की गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जिसे किसान का भाग्य बदलने वाला माना गया था दम तोडऩे लगी है? अगर ऐसा है तो क्यों? केन्द्र सरकार इस असफलता का ठीकरा राज्य सरकारों के ढीले-ढाले रवैये पर फोड़ रही है। मोदी सरकार अब की बार का लक्ष्य 50 प्रतिशत रख चुकी है लेकिन ऐसा कोई उपक्रम नजर नहीं आ रहा है जिससे इस योजना के प्रति उदासीनता- चाहे वह केन्द्र की हो या राज्यों की- क्रांतिकारी सक्रियता में बदलती दिखे। अप्रैल से गेहंू की खरीद शुरू हो गई है और किसान आशा से टकटकी लगाए देख रहा है। 

जब यह स्कीम अप्रैल, 2016 में शुरू हुई तो हमारे जैसे तमाम कृषि नीति पर नजर रखने वालों ने इसे किसानों का भाग्य बदलने वाला करार दिया क्योंकि इसमें किसानों से प्रीमियम के रूप में बीमित राशि का खरीफ फसल के लिए मात्र 2 प्रतिशत, रबी के लिए 1.5 प्रतिशत और फलों के लिए 5 प्रतिशत रखा गया, साथ ही पुरानी कई स्कीमों की सारी कमियां दूर करते हुए इसे कार्यकारी बनाया गया था। लेकिन इसमें राज्यों को बीमा प्रीमियम राशि का आधा भार वहन करने को कहा गया, परन्तु गैर-भाजपा शासित राज्यों को तो छोडि़ए, भाजपा-शासित राज्यों में भी इस पर अपेक्षित शिद्दत से अमल नहीं हो पाया। इस बजट में एक बार फिर वही सब्जबाग दिखाए गए। किसानों की फसल की लागत का 150 प्रतिशत समर्थन मूल्य देने की पुरजोर वकालत की गई। मोदी सरकार की भावना में कहीं कोई खोट नहीं है। स्वयं प्रधानमंत्री ने पिछले सप्ताह 2 बार स्पष्ट किया कि लागत का आकलन करने में वे सभी कारक शामिल होंगे जिनकी मांग किसान संगठन कर रहे हैं। 

दरअसल मोदी ने वित्त मंत्री अरुण जेतली के संसद में दिए गए बयान से आगे बढ़ कर कहा कि इसमें जमीन का किराया और कृषि उपादान में लगी पूंजी का ब्याज भी शामिल होगा। यह लगभग सी-2 फार्मूले के काफी नजदीक है (बस यह छोड़कर कि किसान अगर अपनी जमीन पर खेती कर रहा है तो उस जमीन के वर्तमान मूल्य की कीमत पर ब्याज भी लागत में जोड़ा जाए)। शायद यह किसानों को बड़ी राहत दे सकता है। लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य भले ही बढ़ा दिया जाए, क्या केन्द्र व राज्य सरकारें उनकी उपज पूरी तरह खरीदने के तंत्र विकसित कर पाई हैं? यह आम समस्या है कि किसान जब 15 किलोमीटर से 25 किलोमीटर तक अपना गेहंू लेकर आता है तो आढ़तिए के इशारे पर कर्मचारी किसी न किसी बहाने से उसका माल खरीदने से मना कर देते हैं और ऐसे में कमजोर किसान के पास एक ही चारा होता है कि वह बगल में खड़े आढ़तिए को औने-पौने दाम पर अनाज बेच दे क्योंकि उसे तत्काल पैसे की जरूरत होती है।

फिर वही आढ़तिया उसी सरकारी क्रय केन्द्र पर लाभ लेकर स्वयं को किसान के रूप में खाते में दर्ज करा कर वह अनाज बेच देता है। सरकारी आंकड़ों में दर्ज हो जाता है कि निर्धारित कोटे का अमुक प्रतिशत क्रय हो गया। असली आकलन के अनुसार केवल 6 प्रतिशत असली किसान (जो मूल रूप से गरीब खेतिहर है) अपना अनाज इन सरकारी क्रय केन्द्रों पर बेच पाता है। बाकी वह फसल है जिस पर किसान ऋण ले चुका है और जिसका बीमा मजबूरन कराना ऋण देने वाले बैंक की शर्त है। 

एक उदाहरण लें। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने एक साल पहले शपथ लेने के तत्काल बाद वायदा किया कि वह 80 लाख टन गेहूं की खरीद करेगी। उस समय तारीफ भी हुई क्योंकि पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार इसका 10वां हिस्सा भी नहीं खरीद पाई थी। लेकिन इस साल जब किसानों को लागत का 150 प्रतिशत मिलना है, प्रदेश सरकार ने खरीद का लक्ष्य आधा कर दिया है जबकि गेहूं का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है। संगठित अपराध पर अंकुश लगाना बेहतर कदम है, नकल पर नकेल कसना भी सरकार की सार्थक सोच का प्रतीक है लेकिन किसान की संतुष्टि के कारक उसके अनाज का सही मूल्य मिलना है। 

दूसरा उदाहरण है हरियाणा का। भाजपा की खट्टर सरकार ने पूरे राज्य को ‘खुले में शौच से मुक्त’ घोषित कर दिया, पर सी.ए.जी. की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश आंकड़े गलत हैं और मौके पर जाकर देखने से पता चला कि शौचालय बनाने के पैसे अपात्र लोगों को दिए गए और जहां शौचालय दिखाया गया है वहां कुछ भी नहीं है। ये तथ्य जनता की नजरों में भाजपा और उसके नेतृत्व के प्रति बने भरोसे को तोड़ते हैं।-एन.के. सिंह
                   

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