कुछ सबक जो भाजपा को सीखने ही होंगे

Edited By ,Updated: 08 May, 2021 04:12 AM

some lessons bjp will have to learn

विधानसभा चुनाव पांच राज्यों में थे, मगर पूरे देश का ध्यान एक राज्य पर ही केंद्रित रहा और एक ही राज्य के नतीजों की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। इन पांच प्रदेशों में चार पाॢटयों की जीत हु

विधानसभा चुनाव पांच राज्यों में थे, मगर पूरे देश का ध्यान एक राज्य पर ही केंद्रित रहा और एक ही राज्य के नतीजों की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। इन पांच प्रदेशों में चार पाॢटयों की जीत हुई है। यूं तो भारतीय जनता पार्टी ने दो प्रदेशों में जीत का डंका बजाया है फिर भी उसे उसका श्रेय नहीं मिला। चर्चा सिर्फ ममता की जीत की है। ऐसा क्यों? 

इसलिए कि बंगाल में तीन सीटों से सीधे 77 सीटों तक पहुंचने यानी 25 गुना से ज्यादा की बड़ी उपलब्धि के बाद भी भाजपा की तस्वीर ऐसी पेश की जा रही है जैसे वही सब से बड़ी लूजर है और अपना बहुत कुछ गंवाने वाली कांग्रेस के नेता ऐसी भाषा बोल रहे हैं जैसे उन्होंने ही भारतीय जनता पार्टी को घर बैठा दिया है। आखिर ऐसा क्या हो गया कि देश की सबसे बड़ी और केंद्र में सत्तारूढ़ के अलावा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के लिए ऐसी बातें कही जा रही हैं। 

राजनीति छवि और धारणा (परसैप्शन) का खेल होता है। इस ह ते के पहले तक गत चुनाव में भाजपा ने यह धारणा बनाने में सफलता पाई थी कि वह कुछ भी कर सकती है। राजनीति बदल सकती है। बीते दिनों हैदराबाद नगर निगम के चुनाव उसने ऐसे लड़े जैसे विधानसभा के चुनाव हों और काफी सफलता भी पाई। पांच राज्यों के चुनाव हो रहे थे लेकिन पश्चिम बंगाल के चुनावों को जिस तरह प्रतिष्ठा का प्रश्र बनाया गया और रणनीति का आवरण ऐसा रचने की कोशिश की गई जैसे बस इस बार तो पश्चिम बंगाल में सत्ता भारतीय जनता पार्टी के नाम ही है। 

मई 2019 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल की जीती 18 सीटों से यह संभव भी प्रतीत हो रहा था। लोकसभा के चुनावों के तत्काल बाद भारतीय जनता पार्टी ने अपनी तैयारी भी शुरू कर दी थी और तेजतर्रार कैलाश विजयवर्गीय को उसका प्रभारी भी बना दिया था। देश के गली-मोहल्ले से लेकर हर बड़े नेता, जिसके सामाजिक समीकरण का जरा-सा भी वास्ता पश्चिम बंगाल से हो सकता था, उसको प्रदेश के उस हिस्से में लगा दिया गया, जहां वह कुछ वोट निकाल सकता हो। 

भाजपा ने जिस तरह पूरी ताकत बंगाल में  झोंक दी, उसने सबकी उत्सुकता बढ़ाई, जिस तरह केंद्र का पूरा तंत्र बंगाल में जुटा था, मीडिया के सभी कैमरे इसी राज्य पर फोकस हो गए। बढ़ते कोरोना के बीच प्रधानमंत्री की 20 रैलियां, जिनमें से वह 18 ही कर सके, केंद्रीय मंत्रियों की फौज, छह राज्यों के मु यमंत्रियों और स्टार प्रचारकों की टुकडिय़ों को भाजपा ने बंगाल में प्रचार में लगा दिया। केंद्रीय मंत्रियों के हवाले मात्र  दो-दो विधानसभा क्षेत्र थे। राज्यों के नेता कुछ पन्नों के प्रभारी तक बनाए गए। यह धारणा बनाने में भारतीय जनता पार्टी ने सफलता पाई कि दीदी अपराजेय नहीं हैं। 

ऐसी धारणा रचने में बुराई भी नहीं है लेकिन यह  भी सच है कि  तीन सीटों से सीधे 200 सीटों की छलांग लगाने की कोशिश भी किसी राजनीतिक सितारे का अपने ही गुरुत्व को नकारने का दुस्साहस था, जिसकी एक बड़ी कीमत होती है। दूसरी तरफ अकेली ममता थीं, व्हील चेयर पर टूटी टांग लिए। इस टूटी टांग ने ममता के लिए बाधक का कम  समर्थन बढ़ाने का ज्यादा बड़ा काम किया। इतनी बड़ी पार्टी, इतने बड़े नेता, इतने संसाधन और सब कुछ विशाल। आखिर ऐसे कौन से कारण रहे जिनकी वजह से भाजपा प्रदेश फतेह नहीं कर सकी। यूं तो पाॢटयों का एक वाक्य रहता ही है  कि हम समीक्षा करेंगे पर कुछ मोटे-मोटे ऐसे कारण रहे, जिसकी वजह से बंगाल की शेरनी अपने गढ़ में अकेले ही गुर्राती रहीं और पूरा जंगल एकजुट होकर भी ‘एक पैर वाली’ शेरनी के आगे टिक नहीं सका। 

एक बात तो बहुत साफ समझनी चाहिए कि पश्चिम बंगाल एक विशेष राज्य है जहां लोगों में अपना सांस्कृतिक बोध बहुत मजबूत है। हर बंगाल वासी के लिए बांग्ला संस्कृति उसके गौरव और आत्मस मान से जुड़ी है। वहां आप अपने स्थानीय नेतृत्व को बिना आगे किए शेष भारतीयों की फौज के साथ सबका दिल नहीं जीत सकते। वे मान, स मान, अस्मिता के लिए लडऩा, मरना जानते  हैं। बंगाल, असम की तरह ही दक्षिण के राज्यों के अलावा पंजाब, ओडिशा आदि भी हैं, जहां लोगों की अपनी अलग संस्कृति है और वे इससे गहराई से जुड़े हैं। इनका अपना चेहरा, अपनी बात ज्यादा महत्व रखती है। 

पश्चिम बंगाल में भाजपा ने सोनार बांग्ला बनाने की बात तो की लेकिन किसी स्थानीय चेहरे पर भरोसा नहीं जताया। दिलीप घोष, शुभेंदु अधिकारी, बाबुल सुप्रियो, स्वप्नदास गुप्त, बैशाली डालमिया, सहित इतने चेहरे थे पर मुख्यमंत्री का चेहरा गायब था। भारतीय जनता पार्टी अपने पुराने अंदाज में  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर विधानसभा चुनाव की लड़ाई पर फोकस कर रही थी पर अस्मिता के इस प्रदेश में उनका भाषण हिदी में था।

कोरोना से बढ़ी उनकी दाढ़ी को भी लोगों ने बंगाल से जोड़ा पर उसका तालमेल नहीं हो पाया बल्कि इससे कुछ नुक्सान हुए। प्रादेशिक नेता पीछे हो गए और प्रधानमंत्री की छवि दाव पर लग कोरोना ने जले पर नमक का काम किया। कोरोना के विध्वंसक रूप को न भांप पाने की गलती पार्टी को लंबे समय तक परेशान करेगी। अगले साल पंजाब में विधानसभा चुनाव होने हैं, अगर भाजपा की रणनीति यही रही तो वहां भी उसे कोई उ मीद नहीं रखनी चाहिए। वैसे भी किसानों के मुद्दे ने पंजाब में भाजपा को काफी पीछे छोड़ दिया है, खास तौर से अकाली दल बादल के अलग होने के बाद। 

तमिलनाडु और केरल के नतीजे भी इस बात की ताकीद करते हैं कि आपको स्थानीय नेतृत्व पर ही ज्यादा भरोसा करना होगा। केंद्रीय नेतृत्व यह  मानकर चले कि तमिलनाडु में  हिंदी में भाषण कर चुनाव नहीं जीत सकते। केंद्रीय नेतृत्व को केंद्र से भी वह नेता तैयार करना होगा जो भाषा सीखने में भी पारंगत हो। स्थानीय हो तो और अच्छा। कर्नाटक में भाजपा अगर सरकार बना पाई तो सिर्फ इसलिए कि उसने येद्दियुरप्पा, अनंत कुमार जैसा नेतृत्व तैयार किया था। अब भाजपा युवा नेता तेजस्वी सूर्या भी उसी कड़ी में हैं। 

केरल का नेता मैट्रो मैन तभी हो सकते थे जब वह ज्यादा से ज्यादा 70 के राज्यों के चुनाव को भाजपा जिस तरह से अपने केंद्रीय नेताओं की प्रतिष्ठा से जोड़ देती है, वह उसे भारी पड़ता रहा है। याद कीजिए 2018 में जब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा हार गई थी तो पूरी हवा बदल गई थी। 

हर तरफ भाजपा की हार की ही चर्चा हो रही थी। मई 2019 में लोकसभा चुनाव थे और 14 फरवरी को पुलवामा में जवानों की शहादत से जो गुस्सा पाकिस्तान के खिलाफ बना, उसने सब कुछ बदल दिया था। भारतीय जनता पार्टी में जूझने की शक्ति है, हम यह जानते हैं पर यह देखना होगा कि इन चुनावों के नतीजों और कोरोना के वर्तमान रूप के घातक मेल ने उसको एक नई ऑक्सीजन जरूरत पर ला दिया है। इससे मुक्त वह तभी हो सकती है जब देश के वर्तमान हालातों से निपटने में वह सतर्कता रखे और चुनाव को एक हिस्सा ही माना जाए ।

एक बात और भाजपा को गौर करनी चाहिए। चुनाव  देश के हालात पर हावी नहीं हो सकते। कुछ महीने बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और अभी से यह चेतावनी आ गई है कि कोरोना की तीसरी लहर भी अवश्यंभावी है। बंगाल की तरह उत्तर प्रदेश भी उसी तरह की गलती कर चुका है। पंचायत चुनाव कराने का फैसला भारी पड़ा है। मौतों के आंकड़ों की चर्चा हम न भी करें, यह बात तो साफ नजर आ रही है कि ये नतीजे बहुत ज्यादा भाजपा को उत्साहित नहीं करते। यूं उत्तर प्रदेश में  योगी आदित्यनाथ में वह माद्दा नजर आता है जो कुछ हद तक ममता में है। वह मजबूत हैं, भ्रष्टाचार के आरोप नहीं हैं, मेहनती हैं और चुनाव भी उनके ही चेहरे पर लड़ा जाएगा। लेकिन वहां भी कोरोना से आप आगे कैसे निपटेंगे, इस पर बहुत निर्भर करता है-अकु श्रीवास्तव

 
 

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