सोनिया और मायावती क्या ‘बढ़िया सहयोगी’ बन सकेंगीं

Edited By Pardeep,Updated: 27 May, 2018 04:00 AM

sonia and mayawati to be better allies

कहते हैं कि एक तस्वीर हजार शब्दों से भी अधिक ऊंची आवाज में बोलती है। अक्सर कई बार ऐसा ही होता है। इसके प्रमाण के लिए आपको एक बार फिर सोनिया गांधी और मायावती के खिलखिलाते चेहरों की उस तस्वीर को निहारना होगा जो विपक्षी नेताओं तथा गैर नेताओं के सबसे...

कहते हैं कि एक तस्वीर हजार शब्दों से भी अधिक ऊंची आवाज में बोलती है। अक्सर कई बार ऐसा ही होता है। इसके प्रमाण के लिए आपको एक बार फिर सोनिया गांधी और मायावती के खिलखिलाते चेहरों की उस तस्वीर को निहारना होगा जो विपक्षी नेताओं तथा गैर नेताओं के सबसे बड़े जमावड़े के मौके पर खींची गई है। 

यह जमावड़ा एच.डी. कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री बनने के शपथ ग्रहण के मौके पर हुआ था। दोनों देवियां एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर ऊंचा उठाए हुए थीं। ऐसा लगता था जैसे सत्ता खोने की दोनों की बेआरामी भारतीय राजनीति की इस नवीनतम कतारबंदी से समाप्त हो गई हो। हाशिए पर धकेले गए राजनीतिज्ञों के बीच माधुर्य का यह प्रदर्शन एक तरह से उचित ही था क्योंकि इस मौके पर दो राजनीतिक कटु प्रतिद्वंद्वियों के बीच सुविधा और स्वार्थ की अल्पकालिक प्रणयलीला देखने को मिल रही थी। लेकिन अभी निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि मायावती और सोनिया द्वारा एक-दूसरे का हाथ थामने का क्या व्यावहारिक रूप में भारी चुनावी लाभ होगा या फिर यह महज फोटो सैशन बनकर ही रह जाएगा? 

सभी विपक्षी राजनीतिज्ञ मोदी से भय खाते हैं और उन्हें नफरत करते हैं लेकिन भारतीय राजनीति की दोनों साम्रज्ञियों के मधुर मिलन के पीछे यह भय और नफरत ही एकमात्र कारण नहीं। तथ्य यह है कि दोनों ही अपने परम्परागत जनाधार को खो बैठी हैं और फिर से प्रासंगिकता हासिल करने के लिए छटपटा रही हैं। मोदी-शाह का बुल्डोजर जिस तरह 2019 के चुनावों में एक बार फिर सम्पूर्ण विपक्ष को रौंदने की चुनौती दे रहा है, उसके मद्देनजर मजबूरीवश अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने वाले सभी नेता एक ही तम्बू में आश्रय हासिल करने को मजबूर होंगे चाहे यह तम्बू कितना भी फटा-पुराना क्यों न हो और बारिश के पानी को रोक न पा रहा हो। फिर भी व्याप्त विपक्षी एकता के छलावे भरे आडम्बर में सोनिया गांधी और मायावती द्वारा एक-दूसरे का हाथ थामना महत्वहीन नहीं है। 

पहली बात तो यह है कि अब तक मायावती ‘वोट बैंक एकता’ को यह कहकर हिकारत से ठुकराती रही हैं कि इस तरह के गठबंधन से अटल रूप में बसपा ठगी हुई महसूस करती है जबकि गठबंधन सहयोगी लाभ में रह जाते हैं क्योंकि बसपा के वफादार जाटव वोटर पूरी तरह गठबंधन सहयोगियों को अपना वोट हस्तांतरित करते हैं लेकिन वही मायावती अब यू.पी. के दलितों में अपना करिश्मा बहुत कमजोर पड़ जाने के कारण राजनीतिक समझौतों की जरूरत महसूस करने लगी हैं।

वैसे मायावती का ट्रैक रिकार्ड देखा जाए तो राजनीतिक हलकों में इस बात को लेकर न्यायोचित आशंकाएं बनी हुई हैं कि क्या वह अपनी मौजूदा मोदी विरोधी भाव-भंगिमा पर भविष्य में डटी रहेंगी? यू.पी. के दशक भर लम्बे शासन दौरान एक बात किसी हद तक मजाक के रूप में कही जाती रही है कि मायावती के ‘शालीन व्यवहार’ को सुनिश्चित करने के लिए तो केवल डी.आई.जी. स्तर का एक सी.बी.आई. अधिकारी ही काफी था। ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में उनका मतदान करवाने या उन्हें मतदान से दूर रखने के लिए भी इसी तरह का ‘विनम्र सा सुझाव’ अपना जादू दिखा सकता है। 

यदि मायावती अब इतनी दिलेर हो गई हैं कि मोदी सरकार को सीधी चुनौती दे सकें तो इसके लिए या तो इन्हें उन ‘क्रोनी पूंजीपतियों’ की थाली में कोई बहुत बड़ा लड्डू दिखाई दे रहा है जो विभिन्न बैंकों से लूटे गए सार्वजनिक धन की वापसी करवाने वाले समापक अधिकारियों (लिक्विडेटरों) के भय से छिपने की जगह तलाश कर रहे हैं या फिर यह सीधे-सीधे कोई चाल है। वैसे यह भी हो सकता है कि मायावती निर्णायक चुनावी लड़ाई के ऐन मौके पर अपने इन नए सहयोगियों की पीठ में छुरा घोंप कर हर ओर सनसनी फैला सकती हैं। उनके ऐसे व्यवहार के लिए मौजूदा सरकार भी यू.पी.ए. की तरह सी.बी.आई. के  डी.आई.जी. स्तर के अधिकारी को प्रयुक्त कर सकती है। 

संक्षेप में कहा जाए तो मायावती बिल्कुल ही विश्वसनीय नहीं हैं। फिर भी यह दलील दी जा सकती है कि अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए वह मोदी विरोधी शक्तियों के साथ ही अपना भाग्य आजमाएंगी। लेकिन जहां तक उनकी नई सहेली सोनिया गांधी का सवाल है, उनकी स्थिति भी मायावती से कोई कम अंधकारमय नहीं। सोनिया गांधी यह महसूस करती हैं कि ‘कांग्रेस’ नामक पारिवारिक फर्म की बागडोर सम्भालने के लिए उन्होंने अपने खानदान से जिस नवीनतम सदस्य को नामांकित किया है वह उनकी उम्मीदों पर पूरा नहीं उतर पा रहा। 

‘नेहरू गांधी’ ब्रांड का राजनीतिक बाजार में भाव अब बहुत गिर चुका है। इसके अतीत गौरव को बहाल करना बहुत पराक्रम की बात है। इसी कारण उन्होंने अहंकार को ताक पर रखकर किसी के भी साथ हमप्याला होने और पारिवारिक कारोबार को जिंदा रखने के लिए किसी से भी सहायता लेने का रास्ता अपना लिया है। लेकिन अपनी मजबूरियों के बावजूद मायावती और सोनिया गांधी बहुत बढिय़ा सहयोगी नहीं बन सकतीं। जहां मायावती सदैव इस भय में रहेंगी कि कांग्रेस उनके दलित वोट बैंक को निगलने का प्रयास कर सकती है, वहीं कांग्रेस के पास यू.पी. में मायावती को नजराना पेश करने के लिए कुछ खास नहीं है, जबकि मायावती इसी एकमात्र राज्य में फिर से सत्ता हासिल करने की उम्मीद लगाए हुए हैं।-वीरेन्द्र कपूर

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!