कर्जदार उद्योगपतियों की अय्याशी बनाम मजबूर किसानों की आत्महत्याएं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 30 Oct, 2017 01:11 AM

suicides of indebted and compulsory farmers suicides of borrowed industrialists

हमारे देश में अगर कोई सबसे अधिक मेहनत करता है तो वह इस देश के किसान हैं जो दिन-रात जाड़ा, गर्मी और बरसात झेलकर फसल उगाते हैं और 125 करोड़ देशवासियों का पेट भरते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा उपेक्षा भी उनकी ही होती है। चुनावों के माहौल में हर राजनीतिक दल...

हमारे देश में अगर कोई सबसे अधिक मेहनत करता है तो वह इस देश के किसान हैं जो दिन-रात जाड़ा, गर्मी और बरसात झेलकर फसल उगाते हैं और 125 करोड़ देशवासियों का पेट भरते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा उपेक्षा भी उनकी ही होती है। 

चुनावों के माहौल में हर राजनीतिक दल किसानों के दुख-दर्द का रोना रोता है और यह जताने की कोशिश करता है कि मौजूदा सरकार के शासन में किसानों का बुरा हाल है और वे आत्महत्या करने पर मजबूर हैं, जबकि हकीकत यह है कि वही राजनीतिक दल जब सत्ता में होते हैं तो ऐसी नीतियां बनाते हैं जिनसे किसान की तरक्की हो ही नहीं सकती। चाहे वह बिजली की आपूर्ति हो या सिंचाई के जल की, चाहे वह समर्थन मूल्य की बात हो या खाद के दाम की। हर नीति की नींव में एक बड़ा घोटाला छिपा होता है जिसका खमियाजा इस देश के करोड़ों किसानों को भुगतना पड़ता है, जबकि इन नीतियों को बनाने वाले नेता और अफसर मोटी चांदी काटते हैं। 

दरअसल, किसानों के प्रति उपेक्षा का यह भाव सत्ताधीशों का ही नहीं होता, हम सब शहरी लोग भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। अब मीडिया को ही ले लीजिए, अखबार हो या टी.वी. कुल खबरों की कितनी प्रतिशत खबरें किसानों की जिंदगी पर केन्द्रित होती हैं, सारी खबरें औद्योगिक जगत, बहुराष्ट्रीय कंपनियां, सिनेमा या खेल पर केन्द्रित होती हैं। किसानों पर खबर नहीं होती, किसान खुद खबर बनते हैं, जब वे भूख से तड़प कर मरते हैं या कर्ज में डूबकर आत्महत्या करते हैं। यह कैसा समाजवाद है? कहने को श्रीमती गांधी ने भारतीय संविधान में संशोधन करके समाजवाद शब्द को घुसवाया, पर क्या यू.पी.ए. सरकार की नीतियां ऐसी थीं कि किसानों की दिन-दोगुनी रात-चौगुनी तरक्की होती? अगर ऐसा हुआ होता तो किसानों की हालत इतनी खराब कैसे हो गई कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो गए? यह रातों-रात तो हुआ नहीं, बल्कि वर्षों की गलत नीतियों का परिणाम है। 

हमारी सरकारों ने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की बजाय याचक बना दिया ताकि वे हमेशा सत्ताधीशों के सामने हाथ जोड़े खड़े रहें। छोटे-छोटे कर्जों में डूबा किसान तो अपनी इज्जत बचाने के लिए आत्महत्या करता आ रहा है, पर क्या किसी उद्योगपति ने बैंकों का कर्जा न लौटाने पर आत्महत्या की? लाखों-करोड़ों का कर्जा उद्योग जगत पर है पर उन्हें आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि वे महंगे वकील खड़े करके बैंकों को मुकद्दमों में उलझा देते हैं जिसमें दशकों का समय यूं ही निकल जाता है। प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लग रहा है कि उनकी परोक्ष मदद के कारण अंबानी और अडानी की प्रगति दिन-दोगुनी रात-चौगुनी हो रही है। पर क्या यह बात किसी से छिपी है कि पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकाल में भी अंबानी समूह की बेइंतहा वृद्धि हुई। सारा औद्योगिक जगत यह तमाशा देखता रहा कि कैसे सरकार से निकटता का लाभ लेकर धीरूभाई अंबानी ने यह विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था। इसमें नया क्या है? 

मैं पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हूं। मैं मानता हूं कि व्यक्तिगत पुरुषार्थ के बिना आर्थिक प्रगति नहीं होती। सरकारों की सहायता पर पलने वाला समाज कभी आत्मविश्वास से नहीं भर सकता। वह हमेशा परजीवी बना रहेगा। साम्यवादी देश इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। जबकि पूंजीपति बुद्धि लगाता है, मेहनत करता है, खतरे मोल लेता है और दिन-रात जुटता है, तब जाकर उसका औद्योगिक साम्राज्य खड़ा होता है। इसलिए पूंजीपतियों की प्रगति का विरोध नहीं है। विरोध है उनके द्वारा गलत तरीके अपनाकर धन कमाना और टैक्स की चोरी करना। इससे समाज का अहित होता है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ऐसी व्यवस्था लाना चाह रहे हैं जिससे टैक्स की चोरी भी न हो और लोग अपना आर्थिक विकास भी कर सकें। इस तरह सरकार के पास सामाजिक कार्यों के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध हो जाएंगे।

हर परिवर्तन कुछ आशंका लिए होता है। ढर्रे पर चलने वाले लोग हर बदलाव का विरोध करते हैं, परंतुु बदलाव अगर उनकी भलाई के लिए हो तो आखिरकार उसे स्वीकार कर लेते हैं। आज देश के समझदार लोगों को किसानों और देश की आर्थिक स्थिति पर मंथन करना चाहिए और यह तय करना चाहिए कि भारत का आॢथक विकास किस मॉडल पर होगा? क्या देश का केवल औद्योगिकरण होगा या किसानों-मजदूरों के आर्थिक उत्थान को साथ लेकर चलते हुए औद्योगिक विकास होगा? क्योंकि समाज के बहुसंख्यक लोगों को अभावों में रखकर मुठ्ठीभर लोग वैभव पर एकाधिकार नहीं कर सकते।

उन्हें गांधी जी के ‘ट्रस्टीशिप’ वाले सिद्धांत को मानना होगा जिसका मूल है कि धन इसलिए कमाना है कि हम समाज का भला कर सकें। ऐसी सोच विकसित होगी तो किसान भी खुश होगा और शेष समाज भी। भारत के आर्थिक विकास के मॉडल पर बहुत कुछ सोचा-लिखा जा चुका है, उसी पर अगर एक बार फिर मंथन कर लिया जाए तो तस्वीर साफ हो जाएगी। जरूरत है कि हम विकास के पश्चिमी मॉडल से हटकर देशी मॉडल को विकसित करें जिसमें सबका साथ हो-सबका विकास हो।-विनीत नारायण    

India

397/4

50.0

New Zealand

327/10

48.5

India win by 70 runs

RR 7.94
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!