सुप्रीम कोर्ट वकीलों की मोटी फीसों पर रोक लगाने के पक्ष में

Edited By Punjab Kesari,Updated: 12 Dec, 2017 04:23 AM

supreme court advocates to ban fat fees

सुप्रीम कोर्ट न्यायिक पेशे के बढ़ते व्यवसायीकरण पर रोक लगाने के लिए एक कानून बनाए जाने के पक्ष में है, जिसके अन्तर्गत वकीलों द्वारा ली जाने वाली फीसों की अधिकतम और न्यूनतम सीमा भी निर्धारित हो सके। ऐसा होने से यह सुनिश्चित होगा कि गरीब लोग न्याय...

सुप्रीम कोर्ट न्यायिक पेशे के बढ़ते व्यवसायीकरण पर रोक लगाने के लिए एक कानून बनाए जाने के पक्ष में है, जिसके अन्तर्गत वकीलों द्वारा ली जाने वाली फीसों की अधिकतम और न्यूनतम सीमा भी निर्धारित हो सके। ऐसा होने से यह सुनिश्चित होगा कि गरीब लोग न्याय प्रणाली में से बाहर नहीं धकेले जाएंगे।

अपने मुवक्किलों से भारी-भरकम फीस की मांग करने वाले वकीलों पर चिंता व्यक्त करते हुए न्यायमूर्ति ए.के. गोयल तथा न्यायमूर्ति यू.यू. ललित पर आधारित खंडपीठ ने कहा है कि न्यायिक पेशे को भी अपनी सेवाएं सरकारी अस्पतालों की तर्ज पर जरूरतमंद लोगों को उपलब्ध करवानी चाहिएं। पीठ ने कहा कि जो लोग अच्छे वकीलों की महंगी फीस का बोझ नहीं उठा सकते उनके लिए सार्वजनिक क्षेत्र को भी अस्पतालों की तरह अपनी सेवाएं प्रस्तुत करनी चाहिएं। भारत में वकील अपने मुवक्किलों से कितनी फीस लेंगे इस संबंध में कोई खास नियम नहीं है, जो नियम बने भी हुए हैं वे भी केवल निर्देशिका मात्र हैं और इनके अन्तर्गत जो फीस निर्धारित है उससे अधिक फीस वसूल करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। 

‘सुप्रीम कोर्ट नियम 2013’ के अन्तर्गत किसी वकील को प्रति पेशी के लिए अधिकतम 8000 रुपए लेने की अनुमति है लेकिन वास्तविक रूप में इससे कई गुना अधिक फीस ली जाती है। यहां तक कि देश के नामी-गिरामी वकील सुप्रीम कोर्ट में प्रति पेशी पर उपस्थित होने के लिए 10-20 लाख रुपए वसूल करते हैं। शीर्षस्थ अदालत ने यह भी कहा है कि न्यायिक पेशे में नैतिकता के मुद्दे पर बेशक 1988 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी लेकिन फिर भी ‘सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाएं’ उपलब्ध करवाने के मामले में फीस निर्धारण करने के संबंध में कोई प्रभावी कानून नहीं बन पाया। इस मुद्दे पर कानूनी समुदाय एकमत नहीं है। जहां कुछ कानूनविदों और वकीलों का मानना है कि फीस निर्धारण के संबंध में कोई नियम नहीं होना चाहिए, वहीं इसके विपरीत राय रखने वाले लोग भी हैं। 

वरिष्ठ वकील एवं सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष दुष्यंत दवे का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया सुझाव पूरी तरह असंवैधानिक एवं अवैध है। उन्होंने आरोप लगाया है: ‘‘जब यह न्यायमूर्ति खुद वकालत करते थे तो क्या भारी-भरकम फीसें वसूल नहीं करते थे? कितनी खेद की बात है कि आज वे यह महसूस करते हैं कि इन फीसों पर सीलिंग लगनी चाहिए। भारत कोई कम्युनिस्ट देश नहीं है जहां हर चीज पर कोई न कोई नियम लागू होता है। वकीलों को भी वकालत करने का मूलभूत अधिकार है।’’ इस दलील से भी हर कोई असहमत नहीं हो सकता। 

सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य वकील गोपाल शंकरनारायणन कहते हैं: ‘‘वकीलों की फीस की अधिकतम सीमा निर्धारित होनी चाहिए। ऐसी सीमा के बिना हम पेशेवराना अवधारणा ही खो बैठेंगे और ऐसी बिकाऊ वस्तु बन जाएंगे जो सबसे ऊंची बोली देने वाले के हाथों में चली जाती है। मेरा मानना है कि स्वनियमन इस मामले में कारगर नहीं होगा इसलिए सरकार को हस्तक्षेप करने की जरूरत है।’’ सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक ओर तो वकालत के धंधे का इतना व्यवसायीकरण हो चुका है कि मुवक्किलों को सरेआम लूटा जाता है, दूसरी ओर ऐसे वकीलों द्वारा अदालतों को सीनाजोरी दिखाई जाती है और अभद्र व्यवहार किया जाता है जिसे हर हाल में रोके जाने की जरूरत है। 

वकील आमतौर पर अपने मुवक्किलों की क्षमता के अनुसार फीस वसूल करते हैं इसलिए एक जैसे मामलों में अलग-अलग फीस ली जाती है। कार्पोरेट मुवक्किलों को सबसे ऊंची फीस देनी पड़ती है। हाईकोर्टों के मामले में वकीलों द्वारा प्रति पेशी 3 से 6 लाख रुपए फीस ली जाती है। यदि किसी वकील को बाहर के राज्य की हाईकोर्ट में जाना पड़े तो यही फीस 10-25 लाख के बीच हो सकती है। ट्रायल कोर्ट में वकील आमतौर पर मुवक्किल से पूरे मुकद्दमे की फीस लेते हैं, जो कभी-कभी 10 लाख भी हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब इसका ध्यान एक ऐसे वकील की ओर आकॢषत किया गया था जो अपने मुवक्किल से मांग कर रहा था कि वह एक्सीडैंट क्लेम में मिली हुई राशि का 16 प्रतिशत उसे फीस के रूप में अदा करे।-अशोक बागडिय़ा

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