सुषमा और नीतीश को ऐसी उम्मीद नहीं थी

Edited By ,Updated: 07 Jun, 2019 04:11 AM

sushma and nitish had no such hope

सुषमा स्वराज का भाग्य उसी दिन सीलबंद हो गया था, जिस दिन उन्होंने  एकतरफा घोषणा कर दी थी कि वह 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी क्योंकि उनका स्वास्थ्य इसकी इजाजत नहीं देता। नि:संदेह सुषमा इतनी कशमकश में नहीं थीं जितनी वह 2016 में किडनी प्रत्यारोपण...

सुषमा स्वराज का भाग्य उसी दिन सीलबंद हो गया था, जिस दिन उन्होंने  एकतरफा घोषणा कर दी थी कि वह 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी क्योंकि उनका स्वास्थ्य इसकी इजाजत नहीं देता। नि:संदेह सुषमा इतनी कशमकश में नहीं थीं जितनी वह 2016 में किडनी प्रत्यारोपण से पहले थीं, जो परमात्मा की कृपा से बिना किसी उलझन के हो गया था। मगर एक प्रैस कांफ्रैंस में स्वतंत्र रूप से यह घोषणा करना कि वह चुनाव लडऩे के लिए उपलब्ध नहीं हैं, अच्छी तरह से सीलबंद भाजपा शासन में अपवित्रीकरण की तरह था जिसकी अध्यक्षता नरेन्द्र मोदी तथा अमित शाह कर रहे थे। यदि उन्होंने प्रचार करने में अपने सक्षम न होने बारे नेताओं को अवगत करवा दिया होता तो किसी की भौंहें नहीं उठतीं। 

फिर, जिस दिन मोदी तथा शाह ने मंत्रियों के नामों को अंतिम रूप दिया, ऐसा माना जा रहा था कि सुषमा विदेश मंत्री के तौर पर वापसी करेंगी तथा सरकार की विशिष्ट समितियों में बनी रहेंगी, जिनमें विदेश मंत्री के अतिरिक्त वित्त, रक्षा तथा गृह मंत्री शामिल होते हैं। ऐसा तय माना जा रहा था कि उन्हें राज्यसभा में स्थान मिल जाएगा क्योंकि वह संसद के निचले सदन की सदस्य नहीं रही थीं। यह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए एक पात्रता की तरह है, जिसने इतने लम्बे समय तक अच्छे से भाजपा की ‘सेवा’ की हो। 

सुषमा को धीरे-धीरे हटा दिया गया। विदेश मंत्री के तौर पर उनकी पारी की सोशल मीडिया पर सराहना की गई और उन्होंने एक ट्वीट के माध्यम से मोदी का विनयपूर्वक आभार जताया। मगर वह हो गया जो अपरिहार्य था। केवल सुषमा उसे आते नहीं देख सकीं। उन्होंने सोचा कि जैसे अतीत में होता था, वैसा ही होगा कि जब-जब उन्होंने महसूस किया कि उन्हें किनारे किया जा रहा है, मोदी तथा शाह की ओर से उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल होने का संदेश मिल जाता था। यहां तक कि कुछ मीडिया चैनलों ने भी यह कह दिया कि उनसे पहले ही सम्पर्क किया जा चुका है। 

सुषमा भाजपा के बहुत बदल चुके चेहरे को पढ़ नहीं सकी, जिसमें नेतृत्व किसी ऐसे व्यक्ति को ही महत्व देता है जिसे वह इसके उपयुक्त समझता है। सुषमा मध्य प्रदेश के विदिशा से एक चुनी हुई सांसद थीं और उन्होंने अपनी योजना का खुलासा मध्य प्रदेश के चुनावों के बीच ही इंदौर से मीडिया के सामने किया। राज्य का चुनाव भाजपा के अनुसार नहीं चल रहा था। सुषमा ने अपनी प्रैस कांफ्रैंस में दो बिन्दू उठाए। आमतौर पर उम्मीदवारों को बनाए रखने या नामांकित करने बारे निर्णय पार्टी लेती है लेकिन जहां तक सुषमा का प्रश्र है उन्होंने अपना मन बना लिया था। दूसरे, उन्होंने कहा कि वह राजनीति से सेवानिवृत्त नहीं होंगी, जो यह संकेत देता है कि यदि भाजपा केन्द्र में सत्ता में लौटती है तो वह पदभार सम्भालने के लिए उपलब्ध हैं। 

दिल्ली तथा भोपाल में भाजपा के शीर्ष नेता सुषमा के अपनी योजना का खुलासा करने हेतु समय तथा स्थान से चकित रह गए। कहने की जरूरत नहीं कि मोदी तथा शाह ने इसका नोटिस लिया मगर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन यह बात उनके दिमाग में बैठ गई थी। 

सुषमा ने भाजपा में अपने उत्थान का श्रेय प्राथमिक रूप से लाल कृष्ण अडवानी को दिया। अडवानी ने वाजपेयी मंत्रिमंडल में सुषमा के लिए बेहतरीन मंत्रालय चुनने में अपनी भूमिका निभाई। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह स्पष्ट तथा समझदार थीं लेकिन विवेक कभी भी उनका सशक्त बिन्दू नहीं रहा। जब 2014 के चुनावों में भाजपा ने जीत हासिल की थी तो उन्होंने उसे ‘विशुद्ध भाजपा की जीत’ कहा था और मोदी के नेतृत्व तथा भूमिका को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। उनके प्रशंसकों का मानना है कि सुषमा बाहर नहीं हुई हैं। 2022 में जब भारत के अगले राष्ट्रपति को चुनने का समय आएगा, वह सम्मानपूर्वक वापसी करेंगी। 

वर्तमान की भाजपा में अहंकार किसी व्यक्ति को अधिक दूर तक नहीं ले जा सकता, विशेषकर वे लोग जो अपने बारे में बहुत बड़ी-बड़ी धारणाएं पाले हुए हैं। यह बात जय प्रकाश नारायण की ‘पूर्ण क्रांति’ के काल के दिनों में सुषमा के राजनीतिक सहयोगी नीतीश कुमार को जाननी चाहिए।विनम्रता कभी भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गुण नहीं रही। इसकी बजाय उनका करियर उतार-चढ़ावों भरा रहा। नीतीश के गौरवपूर्ण पल अधिकतर तब आए जब उन्होंने अपनी पार्टी जनता दल (यूनाइटिड) को भाजपा से जोड़ा। लोकसभा चुनावों से पूर्व शाह ने व्यावहारिक ढंग से उन 13 सीटों की किलेबंदी कर ली थी, जिन पर भाजपा 2014 में लड़ी थी ताकि बिहार में 40 सीटों में से बराबरी की नीतीश की मांग को पूरा किया जा सके। भाजपा तथा जद (यू) दोनों ने 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 6 सीटें रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के लिए छोड़ दीं। 

जब मंत्रिमंडल में पदों का बंटवारा किया गया तो मोदी और शाह ने एक मानक तैयार कर लिया, बिना इस बात पर ध्यान दिए कि किसने कितनी सीटें जीती हैं, प्रत्येक सहयोगी को एक पोर्टफोलियो दिया जाएगा। नीतीश जिन 17 सीटों पर लड़े, उनमें से 16 जीत लीं। इसलिए उन्होंने ‘सांकेतिक’ तौर पर एक मंत्रालय लेने को अपना अपमान समझा और इंकार कर दिया। उन्होंने बिहार में राजग की जबरदस्त जीत को ‘लोगों की जीत’ बताया और कहा कि यदि ‘कोई’ परिणामों को ‘अपनी निजी जीत’ बताता है तो वह ‘भ्रम’ में है। मोदी तथा शाह अविचलित रहे क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते थे कि 2020 में विधानसभा चुनावों का सामना करते हुए नीतीश के पास भाजपा के साथ जुड़े रहने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होगा।-आर. रमासेशण

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