कथनी-करनी का अंतर ले बैठा ‘आप’ को

Edited By ,Updated: 15 May, 2017 11:39 PM

take the difference between kathani karni

2004 से 2014 तक सत्ता में रही यू.पी.ए. सरकार के शासन में बुर्जुवा राजनीति में.....

2004 से 2014 तक सत्ता में रही यू.पी.ए. सरकार के शासन में बुर्जुवा राजनीति में एक नया मोड़ तब आया जब सामाजिक कार्यकत्र्ता अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन में कई नए नेताओं का उदय हुआ, जो पहले वकील या नौकरशाह रह चुके थे। आंदोलन में जहां पूंजीवादी और सामंतवादी विचारधारा रखने वाले लोग शामिल थे वहीं वामपंथी विचारधारा से संबंधित रह चुके कुछ नेता भी थे। 

यू.पी.ए. की विरोधी पार्टी भाजपा भी उस आंदोलन को समर्थन देकर परिस्थितियों को अपने पक्ष में करने के लिए तत्पर थी। जहां प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव जैसे लोग आगे आए वहीं उनके साथ अरविंद केजरीवाल भी सक्रियता से काम करते दिखाई दे रहे थे। चाहे मनीष सिसौदिया के साथ-साथ महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली तथा अन्य प्रांतों के बहुत से सक्रिय नेता उभरे लेकिन सभी अन्ना हजारे के दिशा-निर्देशों पर ही काम कर रहे थे। यानी कि मुख्य नेता अन्ना हजारे ही थे और उनके बिना इस आंदोलन का कोई अर्थ नहीं था। अन्ना हजारे ने अपने सुझावों के अनुसार लोकपाल विधेयक पास करवाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया। जब यू.पी.ए. सरकार ने सैद्धांतिक रूप में अन्ना हजारे की मांग मान ली तो आंदोलन भी ठंडा पडऩे लगा। अन्ना हजारे भी महाराष्ट्र लौट गए और अपने गांव रालेगण सिद्धि से अपनी गतिविधियां चलाने लगे। 

केजरीवाल ने यह रट लगानी शुरू कर दी कि अन्ना हजारे के उद्देश्यों को नई पार्टी बनाकर ही मूर्तिमान किया जा सकता है। लेकिन अन्ना यह ताड़ गए थे कि उनके इस आंदोलन का लाभ उठाकर कुछ अवसरवादी स्वयं नेता बनकर आगे आ गए हैं। उन्होंने बार-बार कहा था: ‘‘मैं नई राजनीतिक पार्टी बनाने का पक्षधर नहीं हूं। मैंने तो भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा था और भविष्य में भी ऐसा करता रहूंगा।’’ लेकिन केजरीवाल ने अपना दाव खेला और राजनीति में अवसरवादी ढंग से शामिल होने का रास्ता तलाश लिया। बहुत से दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारधारा के लोग भी उनके साथ शामिल हो गए। 

केजरीवाल ने वी.आई.पी. संस्कृति के विरुद्ध ‘आम आदमी’ की वकालत करनी शुरू कर दी और बिजली के बिल अदा न करने वाले लोगों के कटे हुए कनैक्शन दोबारा जोडऩे, स्वास्थ्य, सफाई तथा शिक्षा आदि जैसे आम लोगों से जुड़े ज्वलंत मुद्दों को उठाना शुरू कर दिया और अंतत: आम आदमी पार्टी (आप) नाम से राजनीतिक पार्टी गठित कर ली। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के लोगों को ऐसा आभास हुआ था कि केजरीवाल ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाता हुआ आम आदमी के अधिकारों की बात करता है तथा बेरोजगारी के विरुद्ध संघर्ष करता हुआ वह पूंजीवादी-सामंतवादी राजनीति के विरुद्ध वामपंथियों द्वारा छेड़े गए संघर्ष का झंडा उठाकर आगे बढ़ेगा तथा देश में श्रमिक लोगों के पक्ष में बढिय़ा परिवर्तन लाएगा। 

केजरीवाल के नारों को सबसे अधिक समर्थन पंजाब और दिल्ली के लोगों ने दिया। दिल्ली में भाजपा की तुलना में बढिय़ा प्रदर्शन कर कांग्रेस के समर्थन से सरकार गठित कर लेना और फिर यह नारा देना कि कांग्रेस मुझे जनहित के काम नहीं करने दे रही और इस आधार पर सरकार तोड़कर दोबारा जनता के सामने फतवा हासिल करने के लिए जाना ऐसा आभास देता था जैसे वह कोई क्रांतिकारी समाजवादी नेता हो। लोगों को लगा कि केजरीवाल कोई बड़ा परिर्वतन लाना चाहता है और यही सोचकर उन्होंने दिल्ली की 70 में से 67 सीटों पर अन्य सभी पाॢटयों को धूल चटा दी। कुछ ही समय में नौकरशाही में से आए हुए इस राजनीतिज्ञ ने अपने अंदर की असली विचारधारा दिखानी शुरू कर दी। 

प्रगतिवादी विचारधारा  वाले और ‘आप’ के संस्थापक वामपंथी नेता चुन-चुन कर पार्टी में से बाहर कर दिए गए और उनके स्थान पर अपने वफादार, जी-हुजूरिए आगे किए गए जिन्हें कोई  खास राजनीतिक सूझबूझ नहीं थी और न ही उन्होंने जनता के कंधे से कंधा मिलाकर किसी संघर्ष में हिस्सा लिया था। आम जनता और श्रमिक वर्ग के लिए संघर्ष करने वाले वैज्ञानिक मानसिकता वाले लोग चुन-चुन कर हाशिए पर धकेल दिए गए। लोकसभा चुनाव में पंजाब से आम आदमी पार्टी के जो 4 सांसद चुने गए उनमें से डा. धर्मवीर गांधी और हरिंद्र सिंह खालसा बहुत तर्कपूर्ण ढंग से विचार प्रस्तुत करते थे। जो उन्हें सही नहीं लगता था उसे वह नहीं मानते थे इसलिए केजरीवाल ने उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। 

2017 में पंजाब विधानसभा के चुनाव का ढोल बज गया। केजरीवाल के चमचे टिकटों का झांसा दिखाकर पंजाब में ऐसे लोगों की तलाश में घूमने लगे जो दोनों हाथों से दौलत लुटा सकें। संजय, दुर्गेश पाठक आदि नेताओं की खूब चर्चा हुई। किसी ने कहा, ‘‘वह मुझसे 2 करोड़ रुपए मांग रहे हैं’’ तो किसी अन्य ने कहा, ‘‘मेरा सौदा इतने में पट गया।’’ इस प्रकार की बातों में कितनी सच्चाई थी यह तो वही जानते हैं। सुच्चा सिंह छोटेपुर भी बड़ी-बड़ी सुॢखयों में हीरो बनकर उभरे। छोटेपुर ने जो प्रचार किया उसका पंजाब के चुनावों पर बहुत प्रभाव पड़ा। केजरीवाल बनाम छोटेपुर पंजाब में आम आदमी पार्टी के भविष्य का फैसला करने के लिए खड़े हो गए। 

पंजाब के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत हुई तो केजरीवाल ने ई.वी.एम्स. पर अपना गुस्सा निकाला। यू.पी. और गोवा में भी केजरीवाल की झोली में पराजय ही आई। फिर बारी आई दिल्ली के नगर निगम चुनाव की और वहां भी केजरीवाल को बुरी तरह पराजित होना पड़ा। ‘आप’ के बड़े-बड़े नेता बिखरने लगे और इस्तीफे देने का सिलसिला चल पड़ा। बेशक केजरीवाल का अपना भविष्य धुंधला दिखाई दे रहा है परंतु राजनीति में वी.आई.पी. संस्कृति के विरुद्ध आवाज बुलंद करना तथा आम आदमी की बात करना उनका ऐसा ऐतिहासिक काम था जिसने बड़ी-बड़ी पूंजीवादी तथा सामंतवादी पाॢटयों की नींद हराम कर दी थी। लेकिन केजरीवाल ने वैज्ञानिक विचारधारा नहीं अपनाई। उनके नारे प्रभावशाली थे लेकिन कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर निकला और यही बात उनकी पार्टी को पतन की ओर ले गई। 

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