श्रीलंका में आतंकी हमला सिर्फ ‘बदले की कार्रवाई’ नहीं

Edited By ,Updated: 26 Apr, 2019 04:29 AM

terrorist attack in sri lanka is not just  revenge action

मजहबी आतंकवाद के प्रति विश्व (भारत सहित) का प्रबुद्ध समाज ‘शुतुरमुर्ग दृष्टिकोण’ से किस सीमा तक जकड़ा हुआ है-इस बात को श्रीलंका के हालिया शृंखलाबद्ध फिदायीन हमलों और उसमें हुई 350 से अधिक निरपराधों की मौत ने फिर से स्पष्ट कर दिया है। एक...

मजहबी आतंकवाद के प्रति विश्व (भारत सहित) का प्रबुद्ध समाज ‘शुतुरमुर्ग दृष्टिकोण’ से किस सीमा तक जकड़ा हुआ है-इस बात को श्रीलंका के हालिया शृंखलाबद्ध फिदायीन हमलों और उसमें हुई 350 से अधिक निरपराधों की मौत ने फिर से स्पष्ट कर दिया है। एक अंतर्राष्ट्रीय समाचार एजैंसी के अनुसार, विश्व के सबसे खतरनाक आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट (आई.एस.) ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है। 

इन्हीं घटनाक्रमों और खुलासों के बीच इस हमले से संबंधित एक विकृत विमर्श को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि ईस्टर के दिन श्रीलंका के चर्चों पर हुआ आतंकवादी हमला, वास्तव में इस वर्ष 15 मार्च को न्यूजीलैंड में क्राइस्टचर्च की मस्जिद में हुई गोलीबारी की प्रतिक्रिया है, जिसमें एक सिरफिरे ईसाई ने 50 नमाजियों को मौत के घाट उतार दिया था। क्या वाकई ऐसा है? क्या श्रीलंका में हुए फिदायीन हमले का कारण केवल और केवल न्यूजीलैंड की घटना का बदला लेने से संबंधित है? 

विगत 21 अप्रैल को जब शेष विश्व की भांति श्रीलंका में ईसाई समुदाय अपने पवित्र पर्व ईस्टर की प्रार्थना और अन्य संबंधित कार्यों में व्यस्त था, तब कोलंबो में कोटाहेना के सेंट एंथोनी चर्च, बट्टीक्लोवा के जियोन चर्च, नेगोंबो के सेंट सबैस्टियन चर्च में फिदायीन आतंकियों ने स्वयं को बम से उड़ा लिया। यही नहीं, कोलंबो के ही पांच सितारा होटल-शंगरी ला, सिनेमोन ग्रांड और किंग्सबेरी में भी धमाके हुए। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, इस हमले में 10 भारतीयों और 29 अन्य विदेशियों सहित 350 से अधिक निरपराधों की जान चली गई और लगभग 500 घायल हो गए। मृतकों में 45 बच्चे भी शामिल हैं। श्रीलंकाई सरकार का कहना है कि कुल 8 धमाकों में से सात आत्मघाती हमले थे। अब आतंकवादियों की मंशा कितनी खतरनाक थी, वह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि हमले के अगले दिन पुलिस को कोलंबो के मुख्य बस स्टैंड से 87 जीवित बम डेटोनेटर मिले थे। 

आई.एस. ने ली जिम्मेदारी
आतंकी संगठन आई.एस. ने आधिकारिक समाचार एजैंसी अल-अमैक के माध्यम से दावा किया कि आत्मघाती हमलावर उसके लड़ाके थे। उसने आठ आत्मघाती हमलावरों की एक तस्वीर जारी की है, जिसमें सात की पहचान-अबू उबैदा, अबू अल-मुख्तार, अबू खलील, अबू हमजा, अबू अल-बारा, अबू मोहम्मद और अबू अब्दुल्ला के रूप में की है। श्रीलंकाई मीडिया के अनुसार, जब कोलंबो पुलिस जांच करते हुए एक आतंकी के घर पहुंचने में सफल हुई, तब उसकी पत्नी ने भी खुद को बम से उड़ा लिया, जिसमें उसके दोनों बच्चे भी मारे गए। 

आई.एस. आतंकियों की उस तस्वीर में श्रीलंकाई कट्टरपंथी इस्लामी संगठन नैशनल तौहीद जमात (एन.टी.जे.) का प्रमुख मोहम्मद जहरान हाशिम (उबैदा) दिख रहा है। संभावना है कि तस्वीर में मुंह छिपाए शेष आतंकी भी एन.टी.जे. के सक्रिय सदस्य हैं। श्रीलंकाई सरकार और अन्य विदेशी खुफिया एजैंसियां पहले ही इस घटना के लिए नैशनल तौहीद जमात को जिम्मेदार ठहरा रही हैं। श्रीलंका में यह संगठन तौहीद-ए-जमात के नाम से भी जाना जाता है,जो यहां के कई हिस्सों में महिलाओं के लिए बुर्का और मस्जिदों के निर्माण के साथ शरिया कानून को जबरन लागू करने की गतिविधियों में लिप्त रहा है। इसी संगठन ने वर्ष 2014 में श्रीलंका में भगवान बुद्ध की कई मूर्तियों को तोड़ा था। 

तौहीद की भूमिका
मध्यकालीन अफगानिस्तान में भी भगवान बुद्ध की सैकड़ों मूर्तियों को मजहबी उन्मादियों ने तोड़ा था या उन्हें निरंतर  क्षति पहुंचाई थी। आधुनिक दौर में विश्व, तालिबानियों द्वारा बामियान की प्राचीन बौद्ध प्रतिमा को मार्च 2001 में विस्फोटक और गोलीबारी से जमींदोज करने का साक्षी बना था। क्या अब तालिबान और तौहीद-ए-जमात में कोई अंतर है? क्या यह सत्य नहीं कि दोनों घटनाक्रमों में बौद्ध प्रतिमाओं को नुक्सान पहुंचाने या उसे तोडऩे की प्रेरणा एक ही विषाक्त दर्शनशास्त्र से मिली है? 

वैश्विक मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग दावा कर रहा है कि श्रीलंका का फिदायीन हमला क्राइस्टचर्च मस्जिद में हुई गोलीबारी का बदला है। श्रीलंकाई रक्षा राज्य मंत्री रुवान विजयवद्र्धने ने भी अपनी संसद को जानकारी देते हुए यही बताया है। संभव है कि यह क्राइस्टचर्च हमले की प्रतिक्रिया हो। क्या केवल श्रीलंका में फिदायीन हमले का यही एकमात्र कारण है? क्या शेष विश्व में अब तक हुए निर्मम आतंकी घटनाओं का संबंध किसी-न-किसी पूर्ववर्ती ङ्क्षहसा या हमले का प्रतिशोध है? 

यदि उपरोक्त तर्क को आधार बनाया जाए तो वे सभी अमरीका में न्यूयार्क के 9/11 आतंकी हमले के बारे क्या कहेंगे, जिसमें 3 हजार निरपराध मारे गए थे। इसी तरह वे लोग मुंबई के 26/11 आतंकी हमले के बारे क्या  तर्क रखेंगे, जिसमें विदेशी पर्यटकों सहित 165 निर्दोष नागरिकों की मौत हो गई थी। साथ ही 16 दिसम्बर 2014 की उस भयावह घटना के बारे में क्या कहेंगे, जिसमें पाकिस्तान में पेशावर स्थित एक स्कूल में 149 मासूम बच्चों को तालिबानियों ने गोलियों से भून डाला था। क्या यह सत्य नहीं कि श्रीलंका में जिन आत्मघाती जेहादियों ने चर्च में प्रार्थना कर रहे मासूम बच्चों, महिलाओं और वृद्धों को निशाना बनाया, उन्हें भी उसी रुग्ण ङ्क्षचतन ने प्रेरित किया है, जिससे प्रेरणा लेकर जेहादियों ने न्यूयार्क 9/11, मुंबई 26/11 और पेशावर 16/12 को अंजाम दिया था? 

इस्लामिक देशों में अधिक आतंकी घटनाएं
यदि इस विकृत ‘‘प्रतिशोध सिद्धांत’’ को विस्तृत रूप से और आगे बढ़ाएं तो आतंकवाद और मजहबी हिंसा से ग्रस्त देशों की सूची में अधिकतर मुस्लिम बहुल देशों का नाम सबसे ऊपर होने का कारण क्या है। ग्लोबल टैरेरिज्म इंडैक्स (जी.टी. आई.) के अनुसार, सर्वाधिक आतंकवादी घटनाओं की सूची में पहले से छठे स्थान पर क्रमश: ईराक, अफगानिस्तान, नाइजीरिया, सीरिया, पाकिस्तान और सोमालिया का नाम है। वैश्विक क्षेत्र के संदर्भ में भी मुस्लिम बहुल मध्यपूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीका में सबसे अधिक आतंकी घटनाएं होती हैं। मिस्र, लीबिया, मोरक्को, सूडान, अल्जीरिया, ईरान और यमन सहित कई देशों में 2002-2017 के  बीच 33,126 आतंकी हमले हुए जिसमें 91 हजार से अधिक लोगों की मौत हो गई। इसी तरह दक्षिण एशिया में उसी अवधि में 31,960 आतंकी हमलों में 59 हजार से अधिक लोग मारे गए हैं। क्या इस वीभत्स स्थिति के पीछे भी प्रतिशोध लेने की मानसिकता जिम्मेदार है? 

सच तो यह है कि विश्व में एक वर्ग इन हमलों को प्रतिशोध की कार्रवाई बताकर मजहबी आतंकवाद के मुख्य आधार पर ईमानदार चर्चा से बचना या फिर उसे भटकाना चाह रहा है। जो पश्चिमी देश अक्सर विश्व के इस विशाल भूखंड पर होने वाली प्रत्येक आतंकवादी घटनाओं को क्षेत्रीय विवाद से जोड़कर देखते थे, अब उनके यहां भी बीते दो दशकों में एक के बाद एक कई भीषण आतंकी हमले हुए हैं। विडम्बना है कि मजहबी आतंकवाद विरोधी उनके दृष्टिकोण में अब भी कोई परिवर्तन नहीं आया है। 

श्रीलंका में हुए आत्मघाती हमले के संदर्भ में पिछले दिनों पाकिस्तान स्थित बालाकोट में भारतीय वायुसेना की सफल एयरस्ट्राइक का महत्व काफी बढ़ जाता है। 14 फरवरी को आतंकियों द्वारा पुलवामा के आत्मघाती हमले के बाद जिस प्रकार मोदी सरकार की ओर से सेना को कार्रवाई करने की खुली छूट दी गई और खुफिया एजैंसियों से प्राप्त सूचना पर उसने 26 फरवरी की तड़के सुबह गुलाम कश्मीर के साथ खैबर पख्तूनख्वा के बालाकोट में सक्रिय आतंकी शिविरों पर एक हजार किलो बम बरसाए, उसमें एक भी पाकिस्तानी सैनिक और आम जनता को नुक्सान पहुंचाए बिना भारत में फिदायीन हमला करने का प्रशिक्षण ले रहे कई जेहादियों को मार गिराया था। 

अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि यदि भारतीय नेतृत्व ने उस समय साहसिक राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई होती, (जिसके परिणामस्वरूप भारतीय वायुसेना ने अपने शौर्य का परिचय दिया) तो संभवत: वे फिदायीन हमलावर कश्मीर सहित शेष भारत को भी अपना निशाना बना सकते थे। क्या पिछले  पांच वर्षों में आतंकवाद के प्रति सरकार की नीतियों से देश में आतंकवाद केवल कश्मीर तक सीमित नहीं रह गया है? क्या यह सत्य नहीं कि इस स्थिति के लिए घाटी का जनसांख्यिकीय अनुपात भी मुख्य भूमिका निभा रहा है-जैसा अक्सर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईराक, सीरिया, लीबिया आदि देशों में देखने को मिलता है। 

मजहबी आतंकवाद के मुख्य कारणों पर इस कॉलम में वर्षों से चर्चा होती रही है। क्या इस वीभत्स स्थिति के लिए ‘काफिर-कुफ्र’ ङ्क्षचतन के साथ समाज में एक वर्ग का तथाकथित अति-उदारवादी नजरिया जिम्मेदार नहीं है? यह सत्य है कि इस प्रकार की मजहब प्रेरित आतंकी घटनाओं और हिंसा को विश्व से एकाएक खत्म नहीं किया जा सकता है। आवश्यकता है कि जहां कहीं संभव हो, आतंकवाद के मूलभूत ढांचे और तंत्र का समय रहते निर्णायक और वस्तुनिष्ठ उन्मूलन कर दिया जाए। बालाकोट में भारतीय कार्रवाई इसका आदर्श उदाहरण है।-बलबीर पुंज    

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