सम्राटों को बनाने वाले थे ‘ब्राह्मण’

Edited By ,Updated: 12 Jul, 2020 03:38 AM

the brahmins were the ones who made emperors

यदि आप भारतीय इतिहास पढ़ेंगे, तब आप उन कहानियों के बारे में जान पाओगे जिसमें एक सम्राट या एक जमींदार अपना राज्याभिषेक करता है या फिर यह पता चलेगा कि वह अपने आपको सम्राट के रूप में कैसे बदलते हैं। इसके लिए वह किसी विशेष क्षेत्र से किसी ब्राह्मण को...

यदि आप भारतीय इतिहास पढ़ेंगे, तब आप उन कहानियों के बारे में जान पाओगे जिसमें एक सम्राट या एक जमींदार अपना राज्याभिषेक करता है या फिर यह पता चलेगा कि वह अपने आपको सम्राट के रूप में कैसे बदलते हैं। इसके लिए वह किसी विशेष क्षेत्र से किसी ब्राह्मण को बुलाते थे जो उनका राज्याभिषेक करे। कारण यह था कि स्थानीय ब्राह्मण उनका समर्थन नहीं करेगा जब तक कि वह उस ब्राह्मण का समर्थन हासिल न कर ले। सम्राट के तौर पर उसे मान्यता नहीं मिल सकती थी। ब्राह्मणों की यह भूमिका तीसरी शताब्दी से चलती आई। इसी से गुप्त सम्राटों तथा पौराणिक साहित्य का उत्थान हुआ। 

ब्राह्मण एक सम्राट को 2 तरीकों से बनाता था। एक उसकी वंशावली को स्थापित कर और दूसरा प्राचीनकाल के सम्राटों के साथ उसका संबंध जोड़ता जिसमें सूर्य और चंद्र वंश शामिल थे मगर जरूरी तौर पर एक ब्राह्मण ने धर्म शास्त्र तथा अर्थ शास्त्र के आधार पर प्रशासन की प्रणाली को स्थापित किया। इस तरह ब्राह्मण अपने आपको स्थापित कर पाया। भारत में इसी से वह बेहद मशहूर तथा सशक्त हो गए। ब्राह्मण का शासन बौद्ध मॉडल या फिर जैन मॉडल से भिन्न था। बौद्ध या जैन मॉडल में सम्राट अपने आपको धर्म के संरक्षक के तौर पर प्रस्तुत करते थे। वह बौद्ध संघों का समर्थन करते थे। मिसाल के तौर पर ऐसा करने से वह लोगों का समर्थन यकीनी बनाते थे। 

ब्राह्मण मॉडल हालांकि इससे भिन्न था। यह पूरी तरह से लोगों की बजाय सम्राट पर केन्द्रित था। ब्राह्मण सम्राट के दावे को देवी-देवताओं के माध्यम से वैध करार देते थे। उसके बाद वह गांवों को सफलतापूर्वक स्थापित करते थे जिससे मिलने वाली आय सम्राट को अमीर बनाती थी। उनकी सेवा के लिए ब्राह्मण को एक भूमि दी जाती थी। इसे ब्रह्मदया या अग्रहारा भूमि का नाम दिया गया। दी गई इस भूमि से वह मंदिर का निर्माण करता था। एक स्थानीय देवता को स्थापित किया जाता था। इसके अलावा पौराणिक देवी-देवताओं से उसका संबंध जोड़ा जाता था। मंदिर राजा को सेवा करने का मौका देता था तथा एक सम्राट का प्रतिनिधि भी था। सम्राट मृत्यु पा लेते थे मगर एक मंदिर कभी नहीं मरता था। इस तरह सम्राट देवता का एक राज्य संरक्षक भी था। इस मंदिर के माध्यम से उसका साम्राज्य स्थापित होता था। यह धर्म तंत्र नहीं था। मगर देवता सम्राट बन जाता था और सम्राट देवता। इस तरह स्थानीय समुदायों को निकट लाया जाता था। 

इसके बाद ब्राह्मण सम्राट तथा उसके परिवार के माध्यम से सामाजिक तानाबाना बुनते थे। भूमि के मालिक क्षत्रिय कहलाते थे जो भूमि पर नियंत्रण कर शक्तिशाली हो जाते थे और अपना संबंध सम्राट के परिवार से बनाते थे। इस तरह सम्राट का परिवार भी बढ़ जाता था। बाजार अर्थव्यवस्था पर लक्ष्य केन्द्रित करने वाले व्यापारी वैश्य कहलाए। इसके बाद श्रमिक, सेवा प्रदाता,शूद्र आते थे। विभिन्न जनजातीय समूह वर्ण जाति धर्म के कार्य से जुट जाते थे जो एक विशेष तरह की सेवा उपलब्ध करवाते थे। इसमें टोकरियों को बनाना या फिर शहद एकत्रित करना शामिल था। इस तरह विभिन्न समुदाय एक प्रणाली के तहत जुड़े थे। 

ब्राह्मणों ने एक धर्म तंत्र ढांचा उपलब्ध करवाया था जिसमें साम्राज्य अस्तित्व में आया था। यह ढांचा ज्योतिष, शिल्पशास्त्र, स्थान, अर्थशास्त्र तथा धर्म शास्त्र पर आधारित था। ब्राह्मण काफी शिक्षित थे। हम कह सकते हैं कि वह सम्राट के नौकरशाह थे। इसके अलावा उसे परामर्श भी देते थे। यह वैसे ही था जैसे देवताओं के लिए बृहस्पति तथा असुरों के लिए शुक्राचार्य थे। शहर के बीचों-बीच सम्राट तथा उसका परिवार प्रफुल्लित था। क्षत्रिय भूमि पर नियंत्रण करते थे। उनके बाद ब्राह्मण बैठते थे जो सम्राट के लिए उसके साम्राज्य को संचालित करते थे। ब्राह्मण ही गांवों को स्थापित करते तथा उनसे कर एकत्रित करते। 

उसके बाद वैश्य आते जो वस्तुओं का आदान-प्रदान तथा उन्हें उपलब्ध करवाते। इसके बाद शूद्रों का स्थान था जो सेवाएं देते थे। समय बदलने के बाद सेवा प्रदाताओं का 2 समूहों में वर्गीकरण किया गया। एक स्वच्छता से जुड़े व्यवसाय से संबंधित थे जो मृतक देहों को ढोने का काम करते थे। उनके साथ संबंध जुडऩे से अशुद्धिकरण हो जाता था। वह गांवों से दूर रहते थे तथा उनकी पहुंच ऐसे स्थानों से दूर थी। उनकी सेवाओं की प्रकृति के हिसाब से वह घरों में प्रवेश करते थे मगर उनका प्रवेश रसोई या मंदिर में निषेध था। ब्राह्मण भी बंटे हुए थे। एक स्तर पर ऐसे ब्राह्मण थे जो मंदिर के साथ निकटता से जुड़े हुए थे। उसके बाद ऐसे भी थे जो नौकरशाही या सम्राट के दरबार में रुचि रखते थे। समय के साथ-साथ दरबार में रुचि रखने वाले लोग कायस्थ समुदाय कहलाए। 

जब मुसलमान भारत में आए तब कायस्थ सम्राटों को अपनी सेवाएं दे रहे थे तथा वह ब्राह्मणों के कोप का भाजन बने। ब्राह्मणों ने मुस्लिम सम्राटों की सेवा करने की बजाय मंदिर या फिर शिक्षा से संबंधित जुड़े कार्यों तक अपने को सीमित रखा। इसके विपरीत मुस्लिम सम्राट भारत में प्रशासन की फारसी पद्धति लेकर आए। अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए उन्होंने ब्राह्मण मॉडल को दर-किनार कर दिया। यूरोपियनों के आने के बाद यह मॉडल बिल्कुल तहस-नहस हो गया। उन्होंने ब्राह्मणों को क्लर्कों तक सीमित कर दिया तथा सम्राट के बराबर की हैसियत प्रदान करने से मना कर दिया।(ई.टा.)-देवदूत पटनायक

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