प्राथमिक शिक्षा की ‘दशा और दिशा’ बदलने के गम्भीर प्रयत्न नहीं हुए

Edited By Pardeep,Updated: 16 Apr, 2018 04:05 AM

the condition of primary education serious efforts did not change direction

प्राथमिक  शिक्षा किसी भी व्यक्ति, समाज और देश की बुनियाद को मजबूत या कमजोर करती है, इसीलिए गांधी जी ने बेसिक तालीम की बात कही थी। दुनिया के तमाम विकसित देशों में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है। भारत के महानगरों में जो...

प्राथमिक शिक्षा किसी भी व्यक्ति, समाज और देश की बुनियाद को मजबूत या कमजोर करती है, इसीलिए गांधी जी ने बेसिक तालीम की बात कही थी। दुनिया के तमाम विकसित देशों में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है। 

भारत के महानगरों में जो कुलीन वर्ग के माने-जाने प्रतिष्ठित स्कूल हैं, उनके शिक्षकों की गुणवत्ता, सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि बाकी स्कूलों के शिक्षकों से कहीं ज्यादा बेहतर होती है। इन स्कूलों में पढ़ाई के अलावा व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास पर ध्यान दिया जाता है। यही कारण है कि इन स्कूलों से निकलने वाले बच्चे दुनिया के पटल पर हर क्षेत्र में सरलता से आगे निकल जाते हैं जबकि देश की बहुसंख्यक आबादी जिन स्कूलों में शिक्षा पाती है, वहां शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति ज्यादा होती है। बावजूद इसके अगर इन स्कूलों से कुछ विद्यार्थी आगे निकल जाते हैं, तो यह उनका पुरुषार्थ ही होता है। बात इतनी-सी नहीं है, इससे कहीं ज्यादा गहरी है। आजादी के बाद से आज तक, कुछ अपवादों को छोड़कर व्यापक स्तर पर प्राथमिक शिक्षा की दशा और दिशा बदलने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। 

यदि आपने ‘चाणक्य’ सीरियल देखा होगा तो आपको याद होगा कि महान आचार्य चाणक्य के शिक्षा और गुरुकुल के विषय में विचार कितने स्पष्ट और ओजस्वी थे। उनकी शिक्षा का उद्देश्य देशभक्त, सनातनधर्मी व कुशल नेतृत्व देने योग्य युवा तैयार करना था। पिछड़ी जाति के दासी पुत्र को स्वीकार कर ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ से मगध का सम्राट बनाने तक का उनका सफर इसी सोच का फल था। उल्लेखनीय है कि 28 अप्रैल से मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली पर 3 दिवसीय महाकुंभ शुरू होने जा रहा है, जिसमें दक्षिण एशिया के समस्त गुरुकुलों के प्रतिनिधि और शिक्षा प्रणाली से जुड़े संघ के सभी राष्ट्र स्तरीय चिंतक हिस्सा लेंगे। प्रश्र है कि क्या उज्जैन में होने जा रहा महाकुंभ ऐसी ही शिक्षा प्रणाली की स्थापना करने पर विचार कर रहा है? 

भारत की सनातन परम्परा में प्रश्न करने और शास्त्रार्थ करने पर विशेष बल दिया गया है। इसे शिक्षा के प्रारंभ से ही प्रोत्साहित किया जाता था जबकि भारत में मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में एकतरफा शिक्षण की परम्परा स्थापित हो गई है। शिक्षक कक्षा में आकर कुछ भी बोलकर चला जाए, विद्यार्थियों को समझ में आए या न आए, उनके प्रश्नों के उत्तर मिलें या न मिलें, इससे किसी को कुछ अंतर नहीं पड़ता। केवल पाठ्यक्रम को  रटने और परीक्षा पास करने की शिक्षा दी जाती है जबकि शिक्षा का उद्देश्य हमें तर्कपूर्ण और विवेकशील बनाना होना चाहिए। तर्क करने का उद्देश्य उद्दंडता नहीं होता, बल्कि अपनी जिज्ञासा को शांत करना होता है। श्रीमद्भगवदगीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘आत्मबोध प्राप्त गुरुकी शरण में जाओ। अपनी सेवा से उन्हें प्रसन्न करो और फिर विनम्रता से जिज्ञासा करो। 

यदि वह कृपा करना चाहेंगे, तो तुम्हारे प्रश्नों का समाधान कर देंगे।’’ आधुनिक शिक्षा की तरह नहीं कि शिक्षक के सामने मेज पर पैर रखकर, सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए और अभद्रतापूर्ण भाषा में प्रश्न किया जाए। ऐसा भी मैंने कुछ संस्थानों में देखा है। गनीमत है अभी ज्यादातर संस्थानों में यह प्रवृत्ति नहीं आई है। यूं तो हमारे भी शास्त्र कहते हैं कि 16 वर्ष का होते ही पुत्र मित्र के समान हो जाता है और उससे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, पर इस मित्रता का आधार भी हमारी सनातन संस्कृति के स्थापित संस्कारों पर आधारित होना चाहिए। इससे समाज में शालीनता और निरंतरता बनी रहती है। भारत भूमि ने चार्वाक से लेकर बुद्ध तक सभी दार्शनिक धाराओं को जगह दी है। 

व्यापक दृष्टिकोण, मस्तिष्क की खिड़कियों का खुला होना, मिथ्या अहंकार से मुक्त रहकर विनम्रता किंतु दृढ़ता से दूसरी विचारधाओं के साथ व्यवहार करने का तरीका हमारी बौद्धिक परिपक्वता का परिचय देता है। दूसरी तरफ अपने विचारों और मान्यताओं से इतर भी अगर किसी व्यक्ति में कुछ गुण हैं तो उनकी उपेक्षा करना या उन्हें सीखने के प्रति उत्साह प्रकट न करना, हमें कुएं का मेंढक बना देता है। भारत के पतन का एक यह भी बड़ा कारण रहा है कि हमने विदेशी आक्रांताओं के आने के बाद अपनी शिक्षा, जीवन पद्धति और समाज की खिड़कियों को बंद कर दिया। परिणामत: शुद्ध वायु का प्रवेश अवरुद्ध हो गया। बासी हवा में सांस लेकर जैसा व्यक्ति का स्वास्थ्य हो सकता है, वैसा ही आज हमारे समाज का स्वास्थ्य हो गया है। उज्जैन का महाकुंभ क्या हमारी प्राथमिक शिक्षा को इस सड़ांध से बाहर निकालकर शुद्ध वायु में श्वास लेने और सूर्य के प्रकाश से ओज लेने के योग्य बना पाएगा, यही देखना है।-विनीत नारायण

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