देश को चाहिए वायदे निभाने वाली सरकार

Edited By ,Updated: 09 Apr, 2019 03:59 AM

the country should take the promise of government

चुनावों के कारण अप्रैल और मई माह पूरी तरह से उत्साहित करने वाले और व्यस्त रहने वाले हैं। राजनीतिक दल और सभी पाॢटयों के उम्मीदवार इस दौरान चुनाव प्रचार, धन एकत्रित करने, घर-घर घूमने में व्यस्त रहेंगे। यह एक ऐसा काम है जो 5 साल में एक बार करना पड़ता...

चुनावों के कारण अप्रैल और मई माह पूरी तरह से उत्साहित करने वाले और व्यस्त रहने वाले हैं। राजनीतिक दल और सभी पाॢटयों के उम्मीदवार इस दौरान चुनाव प्रचार, धन एकत्रित करने, घर-घर घूमने में व्यस्त रहेंगे। यह एक ऐसा काम है जो 5 साल में एक बार करना पड़ता है ताकि वे एक बार फिर संसद के लिए निर्वाचित हो सकें। मतदाता हमेशा यह सोचता है कि उसके नेता में क्या गुण होने चाहिएं। बहुत बार वे किसी नेता द्वारा दिए गए नारे के प्रभाव में आ जाते हैं अथवा उसके काम के हिसाब से निर्णय लेते हैं। पिछले 2 हफ्तों में मैंने बहुत से युवाओं से बात की और यह जाना कि आज का युवा यह समझता है कि वह क्या चाहता है। मुझे नहीं लगता कि वह किसी राजनीतिक दल से संबंध रखते हैं, वे यह जानना चाहते हैं कि उनके नेता क्या हैं और उनके लिए क्या काम कर सकते हैं? 

क्या इस बार भी चलेगा मोदी का जादू!
पिछले लोकसभा चुनावों में मोदी के जादू और उनके वायदों ने काम किया था। चाहे यह स्वच्छ भारत हो अथवा शौचालयों की बात हो अथवा यह कि लोग मनमोहन सरकार से ऊब गए हों लेकिन उस समय केवल मोदी का ही नाम था। पिछले लोकसभा चुनावों में एन.डी.ए. की तरफ से जीतने वाले उम्मीदवारों की जीत का बड़ा कारण केवल मोदी थे। क्या वह जादू फिर से काम करेगा? क्या मोदी के नाम पर इस बार फिर उनकी पार्टी के उम्मीदवार जीत पाएंगे। आज जाति, धर्म और आस्था को बेचा जा रहा है और यही चीजें आपका उम्मीदवार तय करती हैं। प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में किसके कितने वोट हैं? यदि कोई लोकसभा क्षेत्र ब्राह्मण बहुल है तो आपका उम्मीदवार ब्राह्मण होगा, यदि यह राजपूत बहुल क्षेत्र है तो उम्मीदवार राजपूत होगा। क्या इससे काम चलेगा? मैं ऐसा नहीं मानती, युवा इस आधार पर अपना निर्णय नहीं लेते। 

पिछले दिनों मैं एक लैक्चर देने के लिए एक कॉलेज गई थी और मैंने वहां कहा कि जाति, धर्म और आस्था से ऊपर उठो और उस व्यक्ति को वोट दो जो आपके लिए काम करे। उन्होंने मुझे दिल्ली के 2-3 उम्मीदवारों के नाम बताए जिन्होंने उनके क्षेत्रों में काम किया था और वे फिर से उन पर भरोसा करेंगे। मुझे इस बात की खुशी हुई कि छात्रों को उन उम्मीदवारों के समुदाय से कोई लेना-देना नहीं था। मैं ऐसा ही करूंगी, मैं किसी पार्टी या धर्म के आधार पर वोट देने की बजाय उम्मीदवार को ध्यान में रख कर वोट दूंगी। 

मैं एक मजबूत सरकार चाहती हूं जो काम करे, मैं एक ऐसी सरकार चाहती हूं जिसमें घमंड न हो, जो मेरे साथ बैठ कर मेरी समस्याओं पर चर्चा करे। मैं एक ऐसी सरकार चाहती हूं जो अपना किया गया वायदा निभाए और यदि उन्होंने मुफ्त पानी, शिक्षा, बिजली का वायदा किया है तो उसे निभाएं अन्यथा अगली बार मेरा वोट उनके लिए नहीं है। मैं एक ऐसी सरकार चाहती हूं जहां सबको उचित सम्मान मिले और संस्थानों को बर्बाद न किया जाए, जहां प्रत्येक संस्थान का सम्मान किया जाए। यदि कोई सरकार खुद ही संस्थानों का सम्मान नहीं करेगी तो वह आम आदमी से ऐसी उम्मीद कैसे कर सकती है? 

एक साथ चुनाव करवाने का विचार
मैं इस बात को भी प्राथमिकता दूंगी कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो जाएं। इससे जहां पैसे और समय की बचत होगी, वहीं टी.वी. एंकर्स का हल्ला भी कम होगा। हर दूसरे साल किसी न किसी राज्य में चुनाव आ जाता है और हमें आए दिन टैलीविजन पर वही ड्रामा देखना पड़ता है। बेशक, मीडिया के लोग किसी पार्टी विशेष की तरफ नजदीकी दिखा सकते हैं। लेकिन सौभाग्य से आजकल अनपढ़ अथवा पढ़ी-लिखी जनता इन बातों को समझती है। वे जानते हैं कि इसका मतलब क्या है, वे जानते हैं कि या तो चैनल का मालिक मुश्किल में है अथवा उसे सरकार से कुछ काम है। मैं आज भी दूरदर्शन देखना पसंद करती हूं क्योंकि यह संतुलित समाचार पेश करता है। 

यदि विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ हो जाएं तो 5 साल में केवल एक बार चुनाव होंगे। ऐसा करने से प्रत्येक सरकार को काम करने का पर्याप्त समय मिल जाएगा। मुझे यह भी विश्वास है कि ऐसा होने से राज्यों और केन्द्र के बीच समन्वय बढ़ेगा। बहरहाल, इन दो महीनों में तू-तू, मैं-मैं, आरोप-प्रत्यारोप, आंतरिक कलह और एक-दूसरे को धराशायी करने का खेल चलता रहेगा। चुनावों के दौरान नौकरशाही का सारा कार्य ठप्प हो जाता है। चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद उन्हें पता नहीं होता कि क्या किया जाए लेकिन आजकल आचार संहिता में कौन विश्वास करता है। हर कोई अपनी मनमानी करता है और फिर हर काम में सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ता है जबकि यह संस्थाओं की जिम्मेदारी बनती है। 

संवैधानिक संस्थाओं की मजबूती जरूरी
चाहे यह फिल्म स्टार्स को उम्मीदवार के तौर पर चुनने की बात हो अथवा क्रिकेटर या गायकों को, यह देखा जाता है कि कौन ज्यादा भीड़ इक_ी कर सकता है। उनकी जिम्मेदारी अथवा काम की कोई सीमा नहीं होती। बहुत से फिल्म स्टार्स आते हैं और संसद में एक भी शब्द कहे बिना अपना कार्यकाल पूरा कर जाते हैं। क्या आप ऐसे लोगों के लिए अपना वोट गंवाना चाहेंगे? मैं ऐसा नहीं मानती। अवसरवादी और दलबदलू नेताओं को भी संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। मैं उम्मीद करती हूं कि इस देश के लोग एक ऐसी सरकार चुनेंगे जो बिना किसी नाटकबाजी के गरीब आदमी और देश के विकास के लिए कार्य करे। इस देश के बच्चों के भविष्य और संस्थाओं को बचाने के लिए यह जरूरी है। यह निराशाजनक है कि विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता कम हो रही है। अशिक्षित लोगों के लिए भी वे हंसी का पात्र बन रही हैं। 

आशा है कि ये संस्थाएं दोबारा अपना खोया हुआ सम्मान हासिल करेंगी चाहे इसके लिए हमें कोई भी कीमत अदा करनी पड़े। आओ, इंतजार करें और देखें कि 23 मई को किस तरह की सरकार चुन कर आती है और यह प्रार्थना करें कि नई सरकार देशवासियों को रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ रोजगार भी प्रदान करे जिससे हर व्यक्ति सम्मान के साथ जी सके। मैं चाहती हूं कि लोग धर्म, जाति और सम्प्रदाय से ऊपर उठ कर अपने मत का प्रयोग करें क्योंकि सबका रचयिता ईश्वर है। नेता लोग वोट के लिए सब कुछ बेचेंगे और हमें बांटने की भी कोशिश करेंगे, प्रार्थना करो कि वे सफल न हों।-देवी चेरियन
 

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