कठुआ दुष्कर्म मामले में फैसला सराहनीय, मगर इतना ही काफी नहीं

Edited By ,Updated: 13 Jun, 2019 12:52 AM

the decision in the kathua rape case is admirable but not so much

जहां दुष्कर्म के सभी मामले ङ्क्षनदनीय हैं, वहीं कठुआ दुष्कर्म मामला, जिसमें 8 वर्ष की एक बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गई, सर्वाधिक जघन्य तथा भयावह कृत्यों में से एक के तौर पर देखा जाएगा। दुष्कर्मियों तथा ...

जहां दुष्कर्म के सभी मामले ङ्क्षनदनीय हैं, वहीं कठुआ दुष्कर्म मामला, जिसमें 8 वर्ष की एक बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गई, सर्वाधिक जघन्य तथा भयावह कृत्यों में से एक के तौर पर देखा जाएगा। दुष्कर्मियों तथा जिन लोगों ने मामले को दबाना चाहा उन्हें पठानकोट की एक विशेष अदालत ने सजा सुनाई है। आरोपियों में से 3 को उम्रकैद जबकि 3 अन्य को 5-5 वर्ष जेल  की सजा सुनाई गई।

जांच तथा अभियोग एजैंसियां, जो अत्यंत दबाव में थीं, ने एक प्रशंसनीय कार्य किया है हालांकि वे निर्णय से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हैं और दोषियों के लिए मौत की सजा चाहती थीं। मामला निश्चित तौर पर उच्च अदालतों में जाएगा क्योंकि दोषी पाए गए व्यक्तियों के पारिवारिक सदस्य तथा वकील निर्णय की समीक्षा चाहते हैं।

यह घटना, जिसने सारे समाज को झकझोर कर रख दिया, गत वर्ष जनवरी में हुई थी जब बकरवाल समुदाय की 8 वर्षीय एक बच्ची को उस समय अगवा कर लिया गया था जब वह पशु चरा रही थी। नशे की दवा पिलाकर उससे दुष्कर्म किया गया और 4 से अधिक दिन तक उसे यातनाएं दी गईं और फिर सभी सबूत मिटाने के लिए गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी गई। यह सब इसलिए भी अधिक स्तब्ध करने वाला था क्योंकि अपराध एक पूजा स्थल में किया गया था।

कृत्य का उद्देश्य
अभियोग पक्ष के मुताबिक इसका उद्देश्य बकरवाल समुदाय, जो एक मुस्लिम खानाबदोश जनजाति है, को डरा कर जम्मू क्षेत्र से दूर भगाना था। इस मामले में साम्प्रदायिक कोण तब सार्वजनिक हो गया जब हिन्दू एकता मंच नामक एक स्थानीय संगठन ने आरोपियों, जिनमें मंदिर की देखरेख करने वाला भी शामिल था, के समर्थन में एक प्रदर्शन का आयोजन किया। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के कुछ स्थानीय नेताओं ने भी मंच को अपना समर्थन दिया। यह काफी अप्रत्याशित था, जिसने देश भर में शोक की लहर पैदा कर दी।

बाद की जांचों में खुलासा हुआ कि कैसे मामले की जांच के लिए लगाए गए पुलिस कर्मी खुद रिश्वतें लेने तथा सबूतों को नष्ट करने के षड्यंत्र में शामिल थे। इनमें से तीन पुलिस कर्मियों को अब 5-5 वर्ष कैद की सजा सुनाई गई है। यह फैसला देश के विभिन्न हिस्सों से नाबालिग बच्चियों के साथ दुष्कर्म तथा हत्याओं की आने वाली खबरों के बीच आया है। इनमें अलीगढ़ में 3 वर्ष की एक बच्ची के साथ दुष्कर्म तथा हत्या का मामला भी शामिल है।

जहां दुष्कर्म का अभिशाप विश्व के लगभग सभी देशों में प्रचलित है, इतनी छोटी बच्चियों और यहां तक कि नवजात बच्चों के खिलाफ ऐसी नृशंसता सम्भवत: विश्व के किसी भी अन्य स्थान के मुकाबले भारत में कहीं अधिक है। हमें अध्ययन करने की जरूरत है कि क्यों स्थिति खराब से बदतर होती जा रही है।

क्या खराब लालन-पालन के लिए दुष्कर्मियों की मांओं सहित पारिवारिक सदस्य जिम्मेदार हैं? इतने धर्मपरायण अथवा धार्मिक मानसिकता के बावजूद क्या हम समाज में अच्छे मूल्य नहीं भर रहे? कहां हैं हमारे धार्मिक नेता तथा समाज सुधारक? समाज में इस तरह के पतन के लिए क्या चीज प्रोत्साहित करती है और इस रुझान पर नियंत्रण पाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

कड़ी सजाएं
छोटे बच्चों के साथ दुष्कर्म करने वालों के लिए कड़ी सजाएं सुनिश्चित करने हेतु मध्य प्रदेश सरकार ने कुछ वर्ष पूर्व पहल करते हुए कानून में संशोधन कर 12 वर्ष से कम उम्र की नाबालिगों के दुष्कर्मियों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया। हरियाणा जैसे कुछ अन्य राज्यों ने भी इसका अनुसरण किया। हालांकि जाहिरा तौर पर ये कदम दुष्कर्मियों को रोकने में असफल रहे हैं। दरअसल कुछ सामाजिक संगठनों का कहना है कि मृत्युदंड की व्यवस्था दुष्कर्मियों को सबूत मिटाने के लिए शिकार की हत्या करने के लिए उकसाती है ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि पीड़िता दुष्कर्मी की पहचान न कर सके।

इस बात पर वाद-विवाद हो सकता है लेकिन जरूरत है ऐसे सभी मामलों में तेजी से मुकद्दमा चलाने की। ऐसे अपराधों को अंजाम देने वालों को पता होना चाहिए कि दंड कड़ा तथा जल्दी दिया जाएगा। कठुआ मामले में सराहना की जानी चाहिए कि दोषसिद्धि अपराध करने के डेढ़ वर्ष से भी कम समय में हो गई। इसका एक कारण यह भी था कि मामला राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गया तथा मामले की कार्रवाई को जम्मू से पठानकोट की फास्ट ट्रैक अदालत में स्थानांतरित करने में खुद सर्वोच्च अदालत शामिल थी। न्यायपालिका को ऐसे मामलों में समयबद्ध तरीके से मुकद्दमा चलाने के लिए अलग से जजों की नियुक्ति करनी चाहिए।

लेकिन क्या इस बढ़ रहे रुझान को काबू में लाना ही पर्याप्त होगा? नहीं, निश्चित तौर पर नहीं लेकिन एक समाज के तौर पर बढ़ रही समस्या से निपटने हेतु हमें सभी आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है। समाज सुधारकों के अतिरिक्त समाजशास्त्रियों तथा मनोवैज्ञानिकों को अवश्य इस स्थिति का अध्ययन करके समाज के लिए सकारात्मक समाधानों के साथ आगे आना होगा।
 

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