भारतीय शिक्षा व्यवस्था की खोखली जड़ें

Edited By ,Updated: 08 Aug, 2024 05:31 AM

the hollow roots of the indian education

हाल ही में दिल्ली स्थित एक कोचिंग सैंटर की बेसमैंट में बरसात का पानी भरने से 3 छात्रों की मौत हो गई। सी.बी.आई. मामले की जांच कर रही है, तो सर्वोच्च न्यायालय ने मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए केंद्र और दिल्ली सरकार से जवाब मांगा है।

हाल ही में दिल्ली स्थित एक कोचिंग सैंटर की बेसमैंट में बरसात का पानी भरने से 3 छात्रों की मौत हो गई। सी.बी.आई. मामले की जांच कर रही है, तो सर्वोच्च न्यायालय ने मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए केंद्र और दिल्ली सरकार से जवाब मांगा है। अदालत ने अपनी टिप्पणी में कोचिंग सैंटरों को ‘डैथ चैंबर’ कहकर संबोधित किया है। इस हृदयविदारक घटनाक्रम से 2 मुद्दे चर्चा के केंद्र में आ गए हैं। 

पहला- यह घटना लचर प्रशासनिक व्यवस्था को दिखाती है। स्थापित नियम-कानूनों और सुरक्षा मानकों को ताक पर रखकर दिल्ली के कई भवनों के तलघरों में शिक्षा के नाम पर दुकान लगाकर करोड़ों-अरबों रुपए का व्यापार होता रहा और शासन-प्रशासन तमाशबीन बने रहे। वे तब जागे, जब दिल्ली के ओल्ड राजेंद्र नगर स्थित एक कोचिंग सैंटर की बेसमैंट में अचानक बारिश का पानी घुस जाने और उसमें 4 घंटे से अधिक समय तक फंसे रहने के कारण सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे 3 छात्रों की मौत हो गई। यह प्रशासनिक उदासीनता नई नहीं है। पिछले साल दिल्ली के मुखर्जी नगर में एक कोङ्क्षचग सैंटर में आग लगने के बाद पुलिस ने दिल्ली उच्च न्यायालय को सूचित किया था कि शहर के करीब 600 कोचिंग संस्थानों में से सिर्फ 67 के पास अधिकारियों से अनापत्ति प्रमाणपत्र था। हालिया घटना से साफ है कि शिक्षण प्रतिष्ठानों में सुरक्षा सुनिश्चित करने के मामले में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। 

दूसरा बड़ा मुद्दा शिक्षा का बाजारीकरण और गुणवत्ताहीन शिक्षा है। 10 लाख से अधिक उम्मीदवार केवल एक हजार सीटों के लिए सिविल सेवा परीक्षा की प्रतिस्पर्धा करते हैं। वर्ष 2024 में 20 लाख से अधिक छात्रों ने मैडीकल प्रवेश परीक्षा (नीट) दी, जबकि देश के मैडीकल कॉलेजों (सरकारी-निजी सहित) में एक लाख से कुछ अधिक सीटें हैं। अब जो कोचिंग सैंटर चला रहे हैं, वे इस कुस्थिति को व्यावसायिक अवसर के रूप में भुना रहे हैं। जो अभ्यर्थी सफल नहीं हो पाते, वे कोचिंग सैंटरों के लिए उपभोक्ता होते हैं और माता-पिता भी अपने बच्चों की बेहतरी के लिए अपनी सारी जमा पूंजी लगा देते हैं। 

सिविल सेवा और नीट-जे.ई.ई. आदि की तैयारी कर रहे प्रति छात्र और उसके परिवार पर निजी कोङ्क्षचग शुल्क, रहना-खाना और अध्ययन सामग्री का कुल खर्च औसतन प्रतिवर्ष 4-6 लाख रुपए का दबाव होता है। भारत में निश्चित रूप से कई उच्च स्तर के शिक्षण संस्थान हैं। विश्व-स्तरीय भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आई.आई.एम.) आदि ऐसे उदाहरण हैं, जहां उत्कृष्ट स्नातक तैयार होते हैं और अक्सर दुनिया के विकसित देशों में जाकर देश का मान भी बढ़ाते हैं। परंतु उनकी संख्या बहुत कम है। 

भारतीय जनसंख्या के संदर्भ में यह ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ है। देश के अधिकांश स्कूल-कॉलेज न केवल शिक्षा के मामले में, बल्कि उनका ढांचा तक जर्जर है। इस संबंध में 17 जनवरी 2024 को शिक्षा-केंद्रित गैर-लाभकारी संस्था ‘प्रथम फाऊंडेशन’ ने 28 जिलों के सरकारी-निजी शिक्षण संस्थानों में 14-18 आयु वर्ष के युवाओं की चिंताजनक तस्वीर को उजागर किया है। इसके मुताबिक, 50 प्रतिशत से अधिक युवा गणित के सामान्य सवाल हल करने, 25 प्रतिशत कक्षा-2 की क्षेत्रीय भाषा की पुस्तक पढऩे और करीब 43 प्रतिशत अंग्रेजी के एक वाक्य को धाराप्रवाह पढऩे में असमर्थ हैं। अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि यह समूह किसी रोजगार में कितनी गुणवत्ता के साथ न्याय कर पा रहे होंगे। 

शिक्षा के मूलत: 2 उद्देश्य होते हैं। पहला-मनुष्य को समाज की बेहतरी के लिए उत्कृष्ट रूप में विकसित करना, जिससे उसमें दूसरों के प्रति दया का भाव और सद्भावना आए। दूसरा-व्यक्ति संसार में अपने ज्ञान-कौशल द्वारा अर्जित आजीविका से स्वयं और अपने परिजनों की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम बने। आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 के अनुसार, बढ़ते कार्यबल की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को गैर-कृषि क्षेत्र में 2030 तक सालाना औसतन लगभग 78.5 लाख नौकरियां पैदा करने की आवश्यकता है। इस संबंध में मोदी सरकार ने 2 लाख करोड़ रुपए से 5 योजनाएं शुरू की हैं। क्या इससे कोई आमूलचूल परिवर्तन आएगा? 

देश के बहुत बड़े वर्ग में धारणा बनी हुई है कि रोजगार का मतलब सरकारी नौकरी ही होता है और वे इसी दिशा में अपनी तैयारी भी करते हैं। इसी वर्ष उत्तर प्रदेश पुलिस भर्ती में 60 हजार कांस्टेबल पदों के लिए 50 लाख से ज्यादा आवेदन आए थे। गत वर्ष नवंबर में हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग (एच.एस.एस.सी.) ने चतुर्थ श्रेणी के 13,500 से अधिक पदों के लिए 13.84 लाख युवाओं ने पंजीकरण कराया था। सच तो यह है कि अधिकांश भारतीयों को सरकारी नौकरियां अधिक वेतन, भत्तों, विशेषाधिकार, सामाजिक सुरक्षा और अक्सर ऊपरी कमाई करने के ‘अवसरों’ के कारण आकर्षित करती हैं। 

पूर्व प्रशिक्षु (ट्रेनी) आई.ए.एस. अधिकारी पूजा खेडकर संबंधित प्रकरण इसका उदाहरण है। पूजा पर न केवल फर्जी पहचान पत्र बनवाने, धोखाधड़ी करके परीक्षा देने का आरोप है, साथ ही बतौर आई.ए.एस. अपने पद का बेजा दुरुपयोग करने, निर्धारित सीमा से अधिक सुविधा मांगने, वरिष्ठ अधिकारी का कार्यालय हथियाने, अपने निजी वाहन में लालबत्ती लगाने और उस पर ‘महाराष्ट्र सरकार’ की प्लेट लगवाने का आरोप है। व्यवसाय तक सीमित कोचिंग सैंटर, नीट विवाद, पेपर लीक के बाद पूजा खेडकर मामला इस बात का सूचक है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सड़ांध कितनी बढ़ चुकी है।-बलबीर पुंज  
 

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