महागठबंधन नामक ‘सियासी सर्कस’

Edited By ,Updated: 30 Mar, 2019 04:27 AM

the legislative assembly called the  national circus

पिछले कुछ महीनों से भारत महागठबंधन पर चर्चा कर-करके ऊब गया है। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा था कि मोदी और भाजपा बहुत मजबूत हैं तथा उन्हें किसी एक पार्टी द्वारा चुनौती देना मुश्किल है। भारत का सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य बदल चुका है। भारतीय अब नेताओं को...

पिछले कुछ महीनों से भारत महागठबंधन पर चर्चा कर-करके ऊब गया है। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा था कि मोदी और भाजपा बहुत मजबूत हैं तथा उन्हें किसी एक पार्टी द्वारा चुनौती देना मुश्किल है। भारत का सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य बदल चुका है।

भारतीय अब नेताओं को उनकी योग्यता और क्षमता से आंकते हैं न कि पारम्परिक वफादारी से। हमारे साथ ‘‘विरोधियों के गठबंधन’’ का वायदा किया गया था क्योंकि भारत को बचाना था। हमारे साथ सामान्य न्यूनतम एजैंडा का वायदा किया गया था। प्रधानमंत्री की कुर्सी  का इच्छुक प्रत्येक नेता इस गठबंधन का सूत्रधार बनना चाहता था। ये लोग समय-समय पर अपने-अपने राज्यों में शो का आयोजन कर रहे थे जिसमें  सभी विरोधियों को बुलाया जा रहा था। 

वर्तमान में जब दो चरणों के लिए नामांकन हो चुके हैं तथा तीसरे चरण के लिए होने वाले हैं, आइए स्थिति का विश्लेषण करें। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस-नैशनल कांफ्रैंस गठबंधन  कुछ सीटों पर एक-दूसरे के खिलाफ लड़ेगा। हरियाणा में किसी गठबंधन की संभावना नहीं। दुष्यंत चौटाला की पार्टी ने घोषणा की है कि वे कांग्रेस विरोधी हैं। जहां तक दिल्ली की बात है क्या ‘आप’ कभी कांग्रेस से गठबंधन चाहती थी। यदि यह उनके साथ तीन सीटें छोड़ते हुए गठबंधन करती है तो दिल्ली विधानसभा चुनाव से 8 महीने पहले  ऐसा करने का मतलब होगा 70 में से 30 विधानसभा क्षेत्रों में अपने चुनावी आधार को कांग्रेस को पेश करना। यदि ‘आप’ ऐसा करती है तो यह उसकी बड़ी हिम्मत होगी। 

उधर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वह  अवांछनीय है। बसपा नेता अपना गठबंधन करने के बाद यह सुनिश्चित करने में लगे हैं कि कांग्रेस की सीटें  न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि अन्य स्थानों पर भी कम हो जाएं। बिहार में गठबंधन में पेश आ रही कठिनाइयां साफ दिख रही हैं। एन.डी.ए. के कुछ पूर्व सहयोगी कांग्रेस-राजद की कमजोरियों के कारण अपने लिए बड़ा हिस्सा पाने में असफल रहे हैं। कांग्रेस ने भाजपा के कुछ पूर्व सहयोगियों को उपहार के तौर पर स्वीकार कर लिया है। हम कांग्रेस का धन्यवाद करते हैं। हमारी समस्या अब उनकी हो गई है। गुडलक।  झारखंड में  राजद गठबंधन से बाहर आ गया है।

असम में हताश कांग्रेस बदरूद्दीन अजमल की पार्टी से गठबंधन के प्रयास में है। बहुसंख्यक समाज को नाराज करने के बाद अब इसने अपने नए साथी के साथ समान वोट बैंक ढूंढ लिया है। असम में कांग्रेस की यात्रा  ‘‘बदरूद्दीन अजमल कौन है? ’’ से ‘‘आओ साथ-साथ चलें।’’ तक रही है। पश्चिम बंगाल में चारकोणीय मुकाबला है। इससे तृणमूल कांग्रेस तथा भाजपा के बीच मुकाबले का ध्रुवीकरण होगा। कांग्रेस और वामदल टूट गए हैं। महागठबंधन में तीन सबसे ज्यादा शोर मचाने वालों ने टैलीविजन पर एक साथ बाइट्स दीं लेकिन अब  वे एक-दूसरे के खिलाफ हैं। कांग्रेस चौथे स्थान के लिए संघर्ष कर रही है। ओडिशा में कांग्रेस तीसरे स्थान के लिए कोशिश कर रही है। 

आंध्र प्रदेश : यदि तेलंगाना में टी.डी.पी. और कांग्रेस के बीच गठबंधन सुविधा का मामला था तो आंध्र प्रदेश में महागठबंधन का वायदा करने वाले दो सदस्यों के बीच कौशलपूर्ण तलाक भी देखा है। वे अलग-अलग लड़ रहे हैं। टी.डी.पी. इस समय आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को ‘अछूत’ मानती है।  उधर केरल में कांग्रेस और वामदल महागठबंधन की बैठकों में गले मिलते हैं लेकिन वैसे एक-दूसरे के विरोधी हैं। उक्त राज्यों में लगभग आधी लोकसभा सीटें स्थित हैं। अन्य आधे हिस्से में जो महाराष्ट्र से पंजाब तक फैला हुआ है, जिसमें हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और गुजरात शामिल हैं, में सियासी हवा कांग्रेस के पक्ष में नहीं है। 

नेतृत्व का झगड़ा 
पहले ही बहुत से नेता नेतृत्व की लगाम अपने हाथ में लेने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं। इनमें से प्रत्येक  दूसरी पार्टी की ताकत को कम होते देखना चाहता है। इनमें से प्रत्येक त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में अपने लिए  बड़ी उम्मीदें पाले हुए है। वह विश्वास करता/करती है कि अनिश्चितता की स्थिति में ही उन्हें फायदा है। नीति, स्थायित्व तथा तरक्की के मामले में ऐसी सरकारों के पिछले इतिहास को ध्यान में रखना जरूरी है। उनका भ्रष्टाचार का रिकार्ड भी सभी जानते हैं। 

गठबंधन और संघ
संघवाद इस बात की अपेक्षा करता है कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं और प्रतिनिधित्व को सरकार में स्थान मिले।  लेकिन विस्तृत राष्ट्रीय हित इस बात की अपेक्षा करता है कि भारत में जनाधार वाली एक ऐसी राष्ट्रीय पार्टी होनी चाहिए जो इस तरह के गठबंधन की धुरी बन सके। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बने गठबंधन को वाजपेयी के व्यक्तित्व तथा भाजपा के 183 सांसदों ने आधार प्रदान किया। इसी प्रकार पिछली लोकसभा में भाजपा के पास पूर्ण बहुमत था। इसके बावजूद उसने गठबंधन किया। यह भाजपा सांसदों की संख्या  तथा पिछले गठबंधन में नेतृत्व की स्पष्टता के कारण ही संभव हो सका कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में एक सफल सरकार का संचालन हुआ। 

वर्तमान में महागठबंधन की बात छोडि़ए, कोई गठबंधन भी नहीं। यह एक ‘गैर-बंधन’ है। आपके पास न कोई नेता है, न कार्यक्रम और न ही वैचारिक समानता। सबसे बड़ी कमी स्थिरता की है। केवल एक ही चीज सामान्य है और वह है ‘‘एक आदमी को हटाने का एजैंडा’’, यह अस्थिरता की स्थिति के लिए रैसिपी है।-अरुण जेतली

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